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'आत्महत्या के लिए क्यों मजबूर हैं किसान'

नेशनल क्राइम एजेंसी (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में देशभर में 11,379 किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने आत्महत्या की है. इस हिसाब से देश में रोजाना औसतन 31 और महीने में करीब 948 किसान मौत को गले लगा रहे हैं. हांलाकि आत्महत्या का ये आंकड़ा साल 2014 (12,360) और 2015 (12,602) के मुकाबले कम है. पढ़ें एक विवेचनात्मक आलेख...

प्रतीकात्मक चित्र
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Published : Nov 14, 2019, 12:03 PM IST

पिछले 25 सालों में लगातार सभी सरकारें देश के किसानों की समस्याओं का समाधान करने में असफल रही हैं. ये एक विडंबना ही है कि, 135 करोड़ लोगों को खाना खिलाने वाले हाथ आज की तारीख में इतने मजबूर हैं कि उनके सामने आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नही बचा है. नेशनल क्राइम एजेंसी (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में देशभर में 11,379 किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने आत्महत्या की है. इस हिसाब से देश में रोजाना औसतन 31 और महीने में करीब 948 किसान मौत को गले लगा रहे हैं. हांलाकि आत्महत्या का ये आंकड़ा साल 2014 (12,360) और 2015 (12,602) के मुकाबले कम है.

किसानों की मौतों के मामले में पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है. 2016 में राज्य मे कुल 3,661 किसानों ने आत्महत्या की, इसके बाद कर्नाटक (2,078), मध्यप्रदेश (1,321) और आंध्र प्रदेश (804) का नंबर आता है. इस रिपोर्ट के अनुसार जहां एक तरफ देश में किसानों की आत्महत्या में पिछले सालों के मुकाबले 21 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं खेतों में काम करने वाले मजदूरों की आत्महत्या की दर में 10 प्रतिशत की बढ़त हुई है. एनसीआरबी ने अपनी पिछली रिपोर्टों में किसानों की आत्महत्या के पीछे के कारणों को साफतौर पर चिन्हित किया है. इनमे फसल का नुकसान, आय का नुकसान, लोन, पारिवारिक परेशानियां और बीमारियां शामिल है. अगर कारण लोन था तो लोन को आंकड़ों के साथ साथ किसान कि सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में भी जिक्र किया गया है. हालांकि इस बार, इस रिपोर्ट में अन्य और पैमानों को जगह मिली है और पुराने पैमाने रिपोर्ट से नदारद हैं. रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल के बारे में बताया गया है, जहां 6270 किसानों और 5109 खेती मजदूरों ने आत्महत्या की है. अलग अलग सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने के बारे में जानकारी इस प्रकार है:

एनसीआरबी ने जबसे डाटा एकत्र करना शुरू किया है, तब से अबतक देशभर में 3 लाख 30 हजार 407 किसानों ने आत्महत्या की है. ये समय 1995 से 2016 के बीच का है. आईएएस अधिकारी पीसी बोध के अनुमान के अनुसार, इस ट्रेंड के चलते 2020 तक चार लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो चुके होंगे. ऐसा लगता है कि दिन रात खेतों में मेहनत करनेवाले किसानों की परेशानियों का हल आने वाले समय में तो नही है. लगातार फसलों के खराब होने के कारण, बैंको के लोन, सही सपोर्ट दाम न होने और भंडारण की सुविधाऐं न होने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं.

इस सबके ऊपर पिछले दिनों आई बाढ़ ने हालात और खराब कर दिये हैं. महाराष्ट्र ही नही, देशभर के किसानों का अमूमन यही हाल है. इस साल किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 280 बताये जाने से किसान संगठनों मे भारी रोष है. 17 राज्यों में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े से खेती मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा कहीं ज्यादा है. ये देश में ग्रमीण अर्थव्यवस्था की हालत के बारे में काफी कुछ कहता है. रोजगार गारंटी योजना से खेती मजदूरों को जमीनी स्तर पर कितना फायदा मिला है इसके लिये आकड़ों का गहराई से अध्ययन जरूरी है. सरकार ने किसानों की आय को 2022 तक दोगुनी करने का लक्ष्य तो रखा है, लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिये ठोस कदम उठाने की जरूरत है.

इसे भी पढे़ं- ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना आर्थिक विकास की कुंजी है

केंद्र सरकार ने किसानों को 6000 रुपये की कैश सब्सिडी देने का ऐलान किया है. कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने के लिये मुख्यमंत्रियों की कमेटी का गठन किया गया है. इस कमेटी का मकसद है कृषि उत्पादों की मार्केटिंग, पट्टे पर होने वाली खेती के तरीकों और प्राइवेट इनवेस्टनमेंट लाने के नये तरीके तलाशना. महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस के समय बनी इस टास्क फोर्स को बने चार महीने हो चुके हैं, मगर अभी तक इसका भविष्य कैसा होगा ये साफ नही है.

गौरतलब है कि समय समय पर किसान संगठन किसानों के हालातों को सुधारने के लिये संसद के विशेष सत्र बुलाये जाने की मंग करते रहे हैं, लेकिन फिलहाल ये मांग सत्ता के गलियारों में खो गई है. आंकड़ें बताते हैं की 2015 में खेती के लिये गये लोन में, 80 प्रतिशत बैंक और माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से लिया गया है. किसानों के लिये सहकारिता लोन की समस्या का समाधान हमेशा हकीकत से दूर रहा है.

इन सभी परेशानियों के अलावा पर्यावरण में हो रहा बदलाव छोटे किसानों की समस्याओं को और बड़ा रहा है. आईआईटी मुंबई के शोध में राज्य स्तर के अलावा जिला स्तर पर पर्यावरण के अनुकूल खेती के तरीको को लागू करने पर जोर दिया गया है. वैज्ञानिको का मानना है कि केरल की बाढ़ प्रतिरोधी चावल की पोक्काली नस्ल को देश के अन्य बाढ़ संभावित राज्यों में लगाया जाना चाहिये. अब समय आ चुका है कि खेती को विज्ञान के साथ जोडा जाये और ये समझा जाये कि देश में खाद्य सुरक्षा के लिये किसानों के हालातों में सुधार होना बेहद जरूरी है.

पिछले 25 सालों में लगातार सभी सरकारें देश के किसानों की समस्याओं का समाधान करने में असफल रही हैं. ये एक विडंबना ही है कि, 135 करोड़ लोगों को खाना खिलाने वाले हाथ आज की तारीख में इतने मजबूर हैं कि उनके सामने आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नही बचा है. नेशनल क्राइम एजेंसी (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में देशभर में 11,379 किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने आत्महत्या की है. इस हिसाब से देश में रोजाना औसतन 31 और महीने में करीब 948 किसान मौत को गले लगा रहे हैं. हांलाकि आत्महत्या का ये आंकड़ा साल 2014 (12,360) और 2015 (12,602) के मुकाबले कम है.

किसानों की मौतों के मामले में पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है. 2016 में राज्य मे कुल 3,661 किसानों ने आत्महत्या की, इसके बाद कर्नाटक (2,078), मध्यप्रदेश (1,321) और आंध्र प्रदेश (804) का नंबर आता है. इस रिपोर्ट के अनुसार जहां एक तरफ देश में किसानों की आत्महत्या में पिछले सालों के मुकाबले 21 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं खेतों में काम करने वाले मजदूरों की आत्महत्या की दर में 10 प्रतिशत की बढ़त हुई है. एनसीआरबी ने अपनी पिछली रिपोर्टों में किसानों की आत्महत्या के पीछे के कारणों को साफतौर पर चिन्हित किया है. इनमे फसल का नुकसान, आय का नुकसान, लोन, पारिवारिक परेशानियां और बीमारियां शामिल है. अगर कारण लोन था तो लोन को आंकड़ों के साथ साथ किसान कि सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में भी जिक्र किया गया है. हालांकि इस बार, इस रिपोर्ट में अन्य और पैमानों को जगह मिली है और पुराने पैमाने रिपोर्ट से नदारद हैं. रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल के बारे में बताया गया है, जहां 6270 किसानों और 5109 खेती मजदूरों ने आत्महत्या की है. अलग अलग सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने के बारे में जानकारी इस प्रकार है:

एनसीआरबी ने जबसे डाटा एकत्र करना शुरू किया है, तब से अबतक देशभर में 3 लाख 30 हजार 407 किसानों ने आत्महत्या की है. ये समय 1995 से 2016 के बीच का है. आईएएस अधिकारी पीसी बोध के अनुमान के अनुसार, इस ट्रेंड के चलते 2020 तक चार लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो चुके होंगे. ऐसा लगता है कि दिन रात खेतों में मेहनत करनेवाले किसानों की परेशानियों का हल आने वाले समय में तो नही है. लगातार फसलों के खराब होने के कारण, बैंको के लोन, सही सपोर्ट दाम न होने और भंडारण की सुविधाऐं न होने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं.

इस सबके ऊपर पिछले दिनों आई बाढ़ ने हालात और खराब कर दिये हैं. महाराष्ट्र ही नही, देशभर के किसानों का अमूमन यही हाल है. इस साल किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 280 बताये जाने से किसान संगठनों मे भारी रोष है. 17 राज्यों में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े से खेती मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा कहीं ज्यादा है. ये देश में ग्रमीण अर्थव्यवस्था की हालत के बारे में काफी कुछ कहता है. रोजगार गारंटी योजना से खेती मजदूरों को जमीनी स्तर पर कितना फायदा मिला है इसके लिये आकड़ों का गहराई से अध्ययन जरूरी है. सरकार ने किसानों की आय को 2022 तक दोगुनी करने का लक्ष्य तो रखा है, लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिये ठोस कदम उठाने की जरूरत है.

इसे भी पढे़ं- ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करना आर्थिक विकास की कुंजी है

केंद्र सरकार ने किसानों को 6000 रुपये की कैश सब्सिडी देने का ऐलान किया है. कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने के लिये मुख्यमंत्रियों की कमेटी का गठन किया गया है. इस कमेटी का मकसद है कृषि उत्पादों की मार्केटिंग, पट्टे पर होने वाली खेती के तरीकों और प्राइवेट इनवेस्टनमेंट लाने के नये तरीके तलाशना. महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस के समय बनी इस टास्क फोर्स को बने चार महीने हो चुके हैं, मगर अभी तक इसका भविष्य कैसा होगा ये साफ नही है.

गौरतलब है कि समय समय पर किसान संगठन किसानों के हालातों को सुधारने के लिये संसद के विशेष सत्र बुलाये जाने की मंग करते रहे हैं, लेकिन फिलहाल ये मांग सत्ता के गलियारों में खो गई है. आंकड़ें बताते हैं की 2015 में खेती के लिये गये लोन में, 80 प्रतिशत बैंक और माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से लिया गया है. किसानों के लिये सहकारिता लोन की समस्या का समाधान हमेशा हकीकत से दूर रहा है.

इन सभी परेशानियों के अलावा पर्यावरण में हो रहा बदलाव छोटे किसानों की समस्याओं को और बड़ा रहा है. आईआईटी मुंबई के शोध में राज्य स्तर के अलावा जिला स्तर पर पर्यावरण के अनुकूल खेती के तरीको को लागू करने पर जोर दिया गया है. वैज्ञानिको का मानना है कि केरल की बाढ़ प्रतिरोधी चावल की पोक्काली नस्ल को देश के अन्य बाढ़ संभावित राज्यों में लगाया जाना चाहिये. अब समय आ चुका है कि खेती को विज्ञान के साथ जोडा जाये और ये समझा जाये कि देश में खाद्य सुरक्षा के लिये किसानों के हालातों में सुधार होना बेहद जरूरी है.

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पिछले 25 सालों में लगातार सभी सरकारें देश के किसानों की समस्याओँ का समाधान करने में असफल रही हैं। ये एक विडंबना ही है कि, 135 करोड़ लोगों को खाना खिलाने वाले हाथ आज की तारीख में इतने मजबूर हैं कि उनके सामने आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नही बचा है। नेशनल क्राइम एजेंसी (एनसीआरबी) के ताजा आंकड़ों के मुताबिक, साल 2016 में देशभर में 11,379 किसान और खेतों में काम करने वाले मजदूरों ने आत्महत्या की है। इस हिसाब से देश में रोजाना औसतन 31 और महीने में करीब 948 किसान मौत को गले लगा रहे हैं। हांलाकि आत्महत्या का ये आंकड़ा साल 2014 (12,360) और 2015 (12,602) के मुकाबले कम है।



किसानों की मौतों के मामले में पिछले कुछ सालों में महाराष्ट्र सबसे आगे रहा है। 2016 में राज्य मे कुल 3,661 किसानों ने आत्महत्या की, इसके बाद कर्नाटक (2,078), मध्यप्रदेश (1,321) और आंध्र प्रदेश (804) का नंबर आता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक जहां एक तरफ देश में किसानों की आत्महत्या में पिछले सालों के मुकाबले 21 प्रतिशत की गिरावट आई है, वहीं खेतों में काम करने वाले मजदूरों की आत्महत्या की दर में 10 प्रतिशत की बढ़त हुई है। एनसीआरबी ने अपनी पिछली रिपोर्टों में किसानों की आत्महत्या के पीछे के कारणों को साफतौर पर चिन्हित किया है। इनमे फसल का नुकसान, आय का नुकसान, लोन, पारिवारिक परेशानियां और बीमारियां शामिल है। अगर कारण लोन था तो लोन को आंकड़ों के साथ साथ किसान कि सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बारे में भी जिक्र किया गया है। हालांकि इस बार, इस रिपोर्ट में अन्य और पैमानों को जगह मिली है और पुराने पैमाने रिपोर्ट से नदारद हैं। रिपोर्ट में पश्चिम बंगाल के बारे में बताया गया है, जहां 6270 किसानों और 5109 खेती मजदूरों ने आत्महत्या की है। अलग अलग सरकारी कार्यक्रमों को लागू करने के बारे में जानकारी इस प्रकार है:



एनसीआरबी ने जबसे डाटा एकत्र करना शुरू किया है, तब से अबतक देशभर में 3 लाख 30 हजार 407 किसानों ने आत्महत्या की है। ये सामय 1995 से 2016 के बीच का है।आईएएस अधिकारी पीसी बोध के अनुमान के अनुसार, इस ट्रेंड के चलते 2020 तक चार लाख किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो चुके होंगे। ऐसा लगता है कि दिन रात खेतों में मेहनत करनेवाले किसानों की परेशानियों का हल आने वाले समय में तो नही है। लगातार फसलों के खारब होने के कारण, बैंको के लोन, सही सपोर्ट दाम न होने और भंडारण की सुविधाऐं न होने के कारण किसान आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं। इस सबके ऊपर पिछले दिनों आई बाढ़ ने हालात और खराब कर दिये हैं। महाराष्ट्र ही नही, देशभर के किसानों का अमूमन यही हाल है। इस साल किसानों की आत्महत्या का आंकड़ा 280 बताये जाने से किसान संगठनों मे ंभारी रोष है। 17 राज्यों में किसानों की आत्महत्या के आंकड़े से खेती मजदूरों की आत्महत्या का आंकड़ा कहीं ज्यादा है। ये देश में ग्रमीण अर्थव्यवस्था की हालत के बारे में काफी कुछ कहता है। रोजगार गारंटी योजना से खेती मजदूरों को जमीनी स्तर पर कितना फायदा मिला है इसके लिये आकड़ों का गहराई से अध्ययन जरूरी है। सरकार ने किसानों की आय को 2022 तक दोगुनी करने का लक्ष्य तो रखा है, लेकिन इसे अमली जामा पहनाने के लिये ठोस कदम उठाने की जरूरत है।    



केंद्र सरकार ने किसानों को 6000 रुपये की कैश सब्सिडी देने का ऐलान किया है। कृषि क्षेत्र में बदलाव लाने के लिये मुख्यमंत्रियों की कमेटी का गठन किया गया है। इस कमेटी का मकसद है कृषि उत्पादों की मार्केटिंग, पट्टे पर होने वाली खेती के तरीकों, और प्राइवेट इनवेस्टनमेंट लाने के नये तरीके तलाशना। महाराष्ट्र के त्तकालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस के समय बनी इस टास्क फोर्स को बने चार महीने हो चुके हैं, मगर अभी तक इसका भविष्य कैसा होगा ये साफ नही है। गौरतलब है कि समय समय पर किसान संगठन किसानों के हालातों को सुधारने के लिये संसद के विशेष सत्र बुलाये जाने की मंग करते रहे हैं, लेकिन फिलहाल ये मांग सत्ता के गलियारों में खो गई है। आंकड़ें बताते हैं की 2015 में खेती के लिये गये लोन में, 80 प्रतिशत बैंक और माइक्रो फाइनेंस कंपनियों से लिया गया है। किसानों के लिये सहकारिता लोन की समस्या का समाधान हमेशा हकीकत से दूर रहा है। इन सभी परेशानियों के अलावा पर्यावरण में हो रहा बदलाव छोटे किसानों की समस्याओं को और बड़ा रहा है। आईआईटी मुंबई के शोध में राज्य स्तर के अलावा जिला स्तर पर पर्यावरण के अनुकूल खेती के तरीको को लागू करने पर जोर दिया गया है। वैज्ञानिको का मानना है कि केरल की बाढ़ प्रतिरोधी चावल की पोक्काली नस्ल को देश के अन्य बाढ़ संभावित राज्यों में लगाया जाना चाहिये। अब समय आ चुका है कि खेती को विज्ञान के साथ जोडा जाये और ये समझा जाये कि देश में खाद्य सुरक्षा के लिये किसानों के हालातों में सुधार होना बेहद जरूरी है।


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