हल्द्वानी: देवभूमि उत्तराखंड को सैनिकों के अदम्य साहस, शौर्य और शहादत की वजह से वीरभूमि भी कहा जाता है. देश के सम्मान और स्वाभिमान के लिए पहाड़ के चिरागों ने समय-समय पर अपनी देशभक्ति का परिचय दिया है. जिसका लोहा पूरा देश कारगिल युद्ध में मान चुका है.
इस महासमर में 75 रणबांकुरों ने अपने प्राणों की आहुति देकर तिरंगे की ताकत को पूरी दुनिया में कायम रखा. इसी में एक थे हल्द्वानी के शहीद मोहन सिंह. हल्द्वानी के नवाबी रोड पर नागा रेजीमेंट के शहीद मोहन सिंह का परिवार रहता है. शहीद की पत्नी उमा देवी जब मोहन सिंह की शहादत के बारे में बताती हैं तो उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं.
7 जुलाई 1999 को आई थी शाहदत की खबरः
कारगिल युद्ध के दौरान 7 जुलाई 1999 को उन्हें सबसे बूरी खबर मिली थी. क्योंकि इसी दिन उनके पति मोहन सिंह युद्ध में दुश्मनों से लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए थे. बाद में सरकार ने उनकी शहादत के लिए उन्हें मरणोपरांत सम्मानित भी किया था.
टाइगर हिल पर दुश्मनों से लिया था लोहाः
मोहन सिंह मूल रूप से बागेश्वर के कर्मी गांव के रहने वाले थे. कारगिल युद्ध के दौरान उनकी तैनाती जम्मू-कश्मीर के जम्मू पोस्ट में की गई थी. जब करगिल युद्ध शुरू हुआ तो उनकी नागा रेजीमेंट से 25 लोगों को टाइगर हिल भेजा गया.
पढ़ेंः कारगिल विजय : उत्तराखंड के 75 रणबांकुरों ने दी थी प्राणों की आहुति
3 घुसपैठियों को किया था ढेरः
टाइगर हिल पर मोहन सिंह ने 3 पाकिस्तानी घुसपैठियों को मार गिराया था, लेकिन इसी मुठभेड़ में एक गोली मोहन सिंह को लग गई थी और वो शहीद हो गए थे.
टाइगर हिल पर जाते समय की थी आखरी बार बातः
उमा देवी बताती हैं कि जब उनके पति मोहन सिंह टाइगर हिल की तरफ जा रहे थे, तब आखिरी बार उनकी बात हुई थी. उन्होंने कहा था कि वह युद्ध लड़ने टाइगर हिल जा रहे हैं और वहां से वापस आने के बाद ही उनसे बात करेंगे, लेकिन बाद में उनके शहादत की खबर ही आई. यह शब्द कहते कहते उमा देवी के आंसू आ गए.
दोनों बच्चे हैं बेरोजगारः
शहीद मोहन सिंह के एक बेटा और एक बेटी हैं. दोनों बच्चे बेरोजगार है. परिवार की केंद्र व राज्य सरकार से एक ही मांग है कि उनके बच्चों को रोजगार मुहैया कराया जाए.