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भारत और जापान के रिश्तों पर आबे प्रभाव अहम स्थान तक पहुंचा

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Published : Aug 31, 2020, 10:26 AM IST

जापान और भारत के बीच वैश्विक साझेदारी को बेहतर बनाने की नींव वर्ष 2001 में रखी गई थी. आबे ने गति तेज की और इसके बाद 2005 से वार्षिक द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन करने पर सहमति जताई गई थी . अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत का दौरा किया और वर्ष 2007 के अगस्त में भारतीय संसद को संबोधित किया. दोनों देशों के संबंधों के बारे में उन्होंने अपने भाषण में दो सागरों का मेल (कन्फ्लूएंस ऑफ टू सीज) कहकर अपना नजरिया जाहिर किया था. यह उनके हिंद-प्रशांत की अवधारणा की व्याख्या करता है, जो अब भारत-जापान के रिश्तों का एक महत्वपूर्ण आधार है.

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फोटो

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. इसके साथ ही देश फिर से राजनीतिक अस्थिरता के दौर का सामना कर रहा है जबकि भारत समझता है कि उसने वैश्विक क्षेत्र में अपने सबसे मुखर समर्थकों में से एक को खो दिया है. आबे ने व्यक्तिगत रूप से जापानी नीति में भारत को अहम स्थान पर रखने का गौरव प्रदान किया था.

जापान और भारत के बीच वैश्विक साझेदारी को बेहतर बनाने की नींव वर्ष 2001 में रखी गई थी. आबे ने गति तेज की और इसके बाद 2005 से वार्षिक द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन करने पर सहमति जताई गई थी . अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत का दौरा किया और वर्ष 2007 के अगस्त में भारतीय संसद को संबोधित किया. दोनों देशों के संबंधों के बारे में उन्होंने अपने भाषण में दो सागरों का मेल (कन्फ्लूएंस ऑफ टू सीज) कहकर अपना नजरिया जाहिर किया था. यह उनके हिंद-प्रशांत की अवधारणा की व्याख्या करता है, जो अब भारत-जापान के रिश्तों का एक महत्वपूर्ण आधार है.

जब 2012 से उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ तब से गणतंत्र दिवस समारोह के लिए मुख्य अतिथि बनने सहित उन्होंने तीन बार भारत का दौरा किया है और भारतीय प्रधानमंत्री से एक करीबी व्यक्तिगत बॉन्ड स्थापित किया है. आबे और नरेंद्र मोदी दोनों दोस्ती असामान्य लग सकती है.

आबे जापान में राजनीतिक राज्याधिकार के निकटतम उत्तराधिकारी हैं (जापान के गुलदाउदी सिंहासन राजशाही के प्राचीन वंश से अलग)- आबे के दादा नोबुसुकी किशी प्रधानमंत्री (1957-60) थे. उनके पिता शिंतारो आबे विदेशमंत्री थे और वह अपने महान चाचा इसाकू सातो को पछाड़कर सबसे लंबे समय तक काम करने वाले प्रधानमंत्री बने.

मोदी जबकि नीचे से उठकर वहां पहुंचे हैं. उनके मजबूत राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की साझा दृष्टि ‘मजबूत’ राष्ट्रवाद और आबे की जापानी पूंजी को चीन से बाहर ले जाने के लिए क्रमिक चाल ने सिर्फ राष्ट्रीय हितों की एक बढ़ती कुलबुलाहट को ही जन्म नहीं दिया, बल्कि आबे से उनका व्यक्तिगत जुड़ाव भी हुआ. जिसे मोदी को यमनाशी स्थित अपने पैतृक घर में मेजबानी करके आबे ने स्पष्ट दिखा दिया. मोदी ऐसे पहले विदेशी नेता बने जिन्हें यह सम्मान मिला.

विदेश नीति के मोर्चे पर आबे प्रमुख सहयोगी डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका को जापान के दाईं ओर बनाए रखने में जबकि शक्तिशाली और हठधर्मी चीन के खिलाफ दृढ़ रहने कामयाब रहे. अन्य के अलावा भारत के साथ संबंध बढ़ाकर चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के वैकल्पिक मॉडल के रूप में एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर की शुरुआत की. इसके अलावा वह क्वाड यानी लोकतांत्रिक चतुर्भुज को एक साथ लाने के प्रमुख प्रस्तावक बने. इसमें जापान और भारत के अलावा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं. यह बगैर कुछ कहे चीन को स्पष्ट संकेत है कि इस क्षेत्र में उसकी हठधर्मी नीतियां दुखदायी थीं.

अपनी वैश्विक स्वीकार्यता के बावजूद जापान के भीतर आबे उत्साहित करने वाला समर्थन नहीं हासिल कर पाए.

विशेष रूप से उनकी अधिक राष्ट्रवादी नीतियों और देश के संविधान को फिर से बनाना और इतिहास को संशोधित करना, विशेष रूप से जापान के औपनिवेशिक इतिहास और युद्धकालीन शोषण में जापानी सशस्त्र बलों की भूमिका, कोरिया में 'कम्फर्ट वीमेन' की हिंसा और गुलामी के इतिहास को बदलने की कोशिशों की वजह से ऐसा हुआ. जैसा कि उनकी सरकार ने हाल ही में रक्षा पर जारी श्वेत पत्र में दिखाया है कि उन्होंने जापान की आत्मरक्षा बलों को आदर्श स्थिति तक मजबूत किया है.

भारत के साथ संबंध बेहतर हुए हैं. दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्री की बैठक 2-2 की नवंबर 2019 से शुरू हुई. ये पहल द्विपक्षीय रणनीतिक जुड़ाव के निकटतम स्तर का संकेत है. दोनों देशों ने 2015 में रक्षा उपकरणों और प्रौद्योगिकी संधि पर हस्ताक्षर किए, जो पहले विश्वयुद्ध के बाद जापान के लिए असामान्य था और एक्वीजिशन एंड क्रॉस-सर्विंग एग्रीमेंट नाम से एक सैन्य लॉजिस्टिक्स समझौते पर बातचीत कर रहे हैं.

मोदी और आबे ने द्विपक्षीय संबंधों को एक ‘विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी’ के रूप में उन्नत किया है. परमाणु हमले का सामना करने वाला एकमात्र देश जापान है. उसने गैर एनटीपी देश भारत के साथ एक अत्यंत प्रभावशाली सिविल परमाणु करार पर हस्ताक्षर किया है. संबंध अब आतंकवाद, समुद्री सुरक्षा, बुलेट ट्रेन से लेकर भारत-प्रशांत रणनीति के लिए तीसरे देशों में बुनियादी ढांचे तक विकसित करने में दोनों के मिलकर काम करने तक पहुंच चुका है. भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र एक अन्य फोकस क्षेत्र है. एक्ट ईस्ट फोरम के तहत जापान बड़े निवेश के लिए प्रतिबद्ध है.

आबे ने क्वाड के लिए विदेश मंत्री स्तर के लिए प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया क्योंकि हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीनी हठधर्मिता बढ़ गई है. इससे पहले डोकलाम में 2017 में और अभी लद्दाख में भारत-चीन सीमा गतिरोध के दौरान जापान ने भारत का समर्थन किया और एकतरफा यथास्थिति को बदलने के प्रयास को लेकर सार्वजनिक रूप से चीनी व्यवहार की आलोचना की. टोक्यो ने जम्मू- कश्मीर और नागरिकता संशोधन अधिनियम सहित भारतीय घरेलू मुद्दों पर टिप्पणी कभी नहीं की है. नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन ने आबे को उनकी दिसंबर 2019 की गुवाहाटी यात्रा रद्द करने के लिए मजबूर किया था.

जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री के रूप में सेवा करने वाले 66 वर्षीय आबे ने जापान के लोगों से स्वास्थ्य के कारणों से इस्तीफा की घोषणा करते समय अधूरे रह गए अपने कामों के लिए माफी मांगी है. एक वर्ष बाद सितंबर 2021 में उनका कार्यकाल पूरा हो रहा था. उन्होंने अपनी उपलब्धियों का हवाला दिया, जिसे आम तौर पर ‘ आबेनॉमिक्स ’ के रूप में जाना जाता है. जापान के आर्थिक पुनरुद्धार और स्थिरता पर केंद्रित उनके आर्थिक ब्रांड नीति-निर्माण ने जापानी अर्थव्यवस्था को घरेलू मांग को बढ़ाकर इसे मुद्रास्फीति जनित मंदी के दलदल से बाहर खींच लिया जो बिल्कुल करीब था.

आबे के अचानक इस्तीफे से लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर उथल-पुथल मच जाएगी. उनका निर्वाचित उत्तराधिकारी बाकी कार्यकाल तक काम करेगा. सितंबर 2021 से पहले नया राष्ट्रीय चुनाव होना चाहिए. देखना यह है कि उनका उत्तराधिकारी भारत के साथ संबंधों पर केंद्रित गर्मजोशी और गहराई को बनाए रखेगा या नहीं. लेकिन नई दिल्ली बहुत रुचि के साथ टोक्यो में होने वाली आगामी राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखेगी.

(निलोवा रॉय चौधरी)

जापान के प्रधानमंत्री शिंजो आबे ने अपने इस्तीफे की घोषणा कर दी है. इसके साथ ही देश फिर से राजनीतिक अस्थिरता के दौर का सामना कर रहा है जबकि भारत समझता है कि उसने वैश्विक क्षेत्र में अपने सबसे मुखर समर्थकों में से एक को खो दिया है. आबे ने व्यक्तिगत रूप से जापानी नीति में भारत को अहम स्थान पर रखने का गौरव प्रदान किया था.

जापान और भारत के बीच वैश्विक साझेदारी को बेहतर बनाने की नींव वर्ष 2001 में रखी गई थी. आबे ने गति तेज की और इसके बाद 2005 से वार्षिक द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन करने पर सहमति जताई गई थी . अपने पहले कार्यकाल के दौरान उन्होंने भारत का दौरा किया और वर्ष 2007 के अगस्त में भारतीय संसद को संबोधित किया. दोनों देशों के संबंधों के बारे में उन्होंने अपने भाषण में दो सागरों का मेल (कन्फ्लूएंस ऑफ टू सीज) कहकर अपना नजरिया जाहिर किया था. यह उनके हिंद-प्रशांत की अवधारणा की व्याख्या करता है, जो अब भारत-जापान के रिश्तों का एक महत्वपूर्ण आधार है.

जब 2012 से उनका दूसरा कार्यकाल शुरू हुआ तब से गणतंत्र दिवस समारोह के लिए मुख्य अतिथि बनने सहित उन्होंने तीन बार भारत का दौरा किया है और भारतीय प्रधानमंत्री से एक करीबी व्यक्तिगत बॉन्ड स्थापित किया है. आबे और नरेंद्र मोदी दोनों दोस्ती असामान्य लग सकती है.

आबे जापान में राजनीतिक राज्याधिकार के निकटतम उत्तराधिकारी हैं (जापान के गुलदाउदी सिंहासन राजशाही के प्राचीन वंश से अलग)- आबे के दादा नोबुसुकी किशी प्रधानमंत्री (1957-60) थे. उनके पिता शिंतारो आबे विदेशमंत्री थे और वह अपने महान चाचा इसाकू सातो को पछाड़कर सबसे लंबे समय तक काम करने वाले प्रधानमंत्री बने.

मोदी जबकि नीचे से उठकर वहां पहुंचे हैं. उनके मजबूत राष्ट्रवादी दृष्टिकोण की साझा दृष्टि ‘मजबूत’ राष्ट्रवाद और आबे की जापानी पूंजी को चीन से बाहर ले जाने के लिए क्रमिक चाल ने सिर्फ राष्ट्रीय हितों की एक बढ़ती कुलबुलाहट को ही जन्म नहीं दिया, बल्कि आबे से उनका व्यक्तिगत जुड़ाव भी हुआ. जिसे मोदी को यमनाशी स्थित अपने पैतृक घर में मेजबानी करके आबे ने स्पष्ट दिखा दिया. मोदी ऐसे पहले विदेशी नेता बने जिन्हें यह सम्मान मिला.

विदेश नीति के मोर्चे पर आबे प्रमुख सहयोगी डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व वाले अमेरिका को जापान के दाईं ओर बनाए रखने में जबकि शक्तिशाली और हठधर्मी चीन के खिलाफ दृढ़ रहने कामयाब रहे. अन्य के अलावा भारत के साथ संबंध बढ़ाकर चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के वैकल्पिक मॉडल के रूप में एशिया-अफ्रीका ग्रोथ कॉरिडोर की शुरुआत की. इसके अलावा वह क्वाड यानी लोकतांत्रिक चतुर्भुज को एक साथ लाने के प्रमुख प्रस्तावक बने. इसमें जापान और भारत के अलावा, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया हैं. यह बगैर कुछ कहे चीन को स्पष्ट संकेत है कि इस क्षेत्र में उसकी हठधर्मी नीतियां दुखदायी थीं.

अपनी वैश्विक स्वीकार्यता के बावजूद जापान के भीतर आबे उत्साहित करने वाला समर्थन नहीं हासिल कर पाए.

विशेष रूप से उनकी अधिक राष्ट्रवादी नीतियों और देश के संविधान को फिर से बनाना और इतिहास को संशोधित करना, विशेष रूप से जापान के औपनिवेशिक इतिहास और युद्धकालीन शोषण में जापानी सशस्त्र बलों की भूमिका, कोरिया में 'कम्फर्ट वीमेन' की हिंसा और गुलामी के इतिहास को बदलने की कोशिशों की वजह से ऐसा हुआ. जैसा कि उनकी सरकार ने हाल ही में रक्षा पर जारी श्वेत पत्र में दिखाया है कि उन्होंने जापान की आत्मरक्षा बलों को आदर्श स्थिति तक मजबूत किया है.

भारत के साथ संबंध बेहतर हुए हैं. दोनों देशों के विदेश और रक्षा मंत्री की बैठक 2-2 की नवंबर 2019 से शुरू हुई. ये पहल द्विपक्षीय रणनीतिक जुड़ाव के निकटतम स्तर का संकेत है. दोनों देशों ने 2015 में रक्षा उपकरणों और प्रौद्योगिकी संधि पर हस्ताक्षर किए, जो पहले विश्वयुद्ध के बाद जापान के लिए असामान्य था और एक्वीजिशन एंड क्रॉस-सर्विंग एग्रीमेंट नाम से एक सैन्य लॉजिस्टिक्स समझौते पर बातचीत कर रहे हैं.

मोदी और आबे ने द्विपक्षीय संबंधों को एक ‘विशेष रणनीतिक और वैश्विक साझेदारी’ के रूप में उन्नत किया है. परमाणु हमले का सामना करने वाला एकमात्र देश जापान है. उसने गैर एनटीपी देश भारत के साथ एक अत्यंत प्रभावशाली सिविल परमाणु करार पर हस्ताक्षर किया है. संबंध अब आतंकवाद, समुद्री सुरक्षा, बुलेट ट्रेन से लेकर भारत-प्रशांत रणनीति के लिए तीसरे देशों में बुनियादी ढांचे तक विकसित करने में दोनों के मिलकर काम करने तक पहुंच चुका है. भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र एक अन्य फोकस क्षेत्र है. एक्ट ईस्ट फोरम के तहत जापान बड़े निवेश के लिए प्रतिबद्ध है.

आबे ने क्वाड के लिए विदेश मंत्री स्तर के लिए प्रतिनिधित्व बढ़ाने पर जोर दिया क्योंकि हिंद-प्रशांत समुद्री क्षेत्र में चीनी हठधर्मिता बढ़ गई है. इससे पहले डोकलाम में 2017 में और अभी लद्दाख में भारत-चीन सीमा गतिरोध के दौरान जापान ने भारत का समर्थन किया और एकतरफा यथास्थिति को बदलने के प्रयास को लेकर सार्वजनिक रूप से चीनी व्यवहार की आलोचना की. टोक्यो ने जम्मू- कश्मीर और नागरिकता संशोधन अधिनियम सहित भारतीय घरेलू मुद्दों पर टिप्पणी कभी नहीं की है. नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ आंदोलन ने आबे को उनकी दिसंबर 2019 की गुवाहाटी यात्रा रद्द करने के लिए मजबूर किया था.

जापान के सबसे लंबे समय तक प्रधानमंत्री के रूप में सेवा करने वाले 66 वर्षीय आबे ने जापान के लोगों से स्वास्थ्य के कारणों से इस्तीफा की घोषणा करते समय अधूरे रह गए अपने कामों के लिए माफी मांगी है. एक वर्ष बाद सितंबर 2021 में उनका कार्यकाल पूरा हो रहा था. उन्होंने अपनी उपलब्धियों का हवाला दिया, जिसे आम तौर पर ‘ आबेनॉमिक्स ’ के रूप में जाना जाता है. जापान के आर्थिक पुनरुद्धार और स्थिरता पर केंद्रित उनके आर्थिक ब्रांड नीति-निर्माण ने जापानी अर्थव्यवस्था को घरेलू मांग को बढ़ाकर इसे मुद्रास्फीति जनित मंदी के दलदल से बाहर खींच लिया जो बिल्कुल करीब था.

आबे के अचानक इस्तीफे से लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर उथल-पुथल मच जाएगी. उनका निर्वाचित उत्तराधिकारी बाकी कार्यकाल तक काम करेगा. सितंबर 2021 से पहले नया राष्ट्रीय चुनाव होना चाहिए. देखना यह है कि उनका उत्तराधिकारी भारत के साथ संबंधों पर केंद्रित गर्मजोशी और गहराई को बनाए रखेगा या नहीं. लेकिन नई दिल्ली बहुत रुचि के साथ टोक्यो में होने वाली आगामी राजनीतिक गतिविधियों पर नजर रखेगी.

(निलोवा रॉय चौधरी)

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