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विशेष लेख : गंगा को साफ करने के लिए क्या आस्था काफी है?

पर्यावरण के प्रति हिंसा फैलने वाली है. ठीक उसी उदासीनता की तरह, जो हमारे समाज में व्याप्त है. यह हिंसा, नशे की तरह हमारी नसों में उदासीनता के रूप में भर गई है. और हां, हमें यह पसंद है. हिंसा और उदासीनता, ऐसे दो पहलू हैं, जो किसी भी देश को दुनिया के विध्वंस के मार्ग पर ले जा सकते हैं.

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Published : Mar 2, 2020, 9:04 PM IST

Updated : Mar 3, 2020, 5:09 AM IST

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प्रतीकात्मक चित्र

पर्यावरण के प्रति हिंसा फैलने वाली है, ठीक उसी उदासीनता की तरह जो हमारे समाज में व्याप्त है. यह हिंसा, नशे की तरह हमारी नसों में उदासीनता के रूप में भर गई है. और हां हमें यह पसंद है. हिंसा और उदासीनता, ऐसे दो पहलू हैं जो किसी भी देश को दुनिया के विध्वंस के मार्ग पर ले जा सकते हैं.

हमने इस मद में अपने पहाड़ों और जंगलों का सफाया कर दिया है और देश आखिरकार पर्यावरण के लिहाज से खतरनाक स्थिति में आ गया है. इसकी कीमत, 7 लाख लोग सालाना जल प्रदूषण के कारण असमय मौत के शिकार हो जाते हैं और लाखों दस्त और धातु से होनी वाले नुकसान से जूझ रहे हैं. जमीन पर मौजूद हमारे पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं, और ग्राउंड वॉटर का स्तर लगातार कम होता जा रहा, जो आने वाले दिनों में पानी के लिये होने वाली जंग की तरफ इशारा कर रहे हैं.

आज के जमाने के हमारे ठेकेदार खुलेआम नदियों को बर्बाद कर रहे हैं, गैरकानूनी तरीके से खनन कर नदियों से मिट्टी और पत्थर निकाला जा रहा है. वहीं, पुरानी पीढ़ी जिम्मेदारी की बात करती है, वो यह भूल जाते हैं कि इस तरह के आचरण की शुरुआत उन्हीं के दौर से हुई है.

प्रदूषण के लिये सरकार जिम्मेदार नहीं है, यह आम लोगों के लालच, लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है. हमारे समाज ने हिंसा और उदासीनता को अपना लिया है और इसकी कीमत मां गंगा को चुकानी पड़ रही है.

गंगा नदी को हमने देवी का दर्जा दिया है, लेकिन आज यह नदी उपजाऊ मिट्टी से नहीं बल्कि जहरीले पदार्थों और लाखों लीटर मल और कूड़े से भरी है. गंगा दुनिया की चौथी सबसे प्रदूषित नदी है, और यह न केवल इंसानों के लिये जहरीली है बल्कि पौधों और मच्छलियों के लिये भी.

एनवाईटी से लेकर भारत सरकार की कई रिपोर्ट इस तरफ इशारा करती हैं कि गंगा नदी नही, धीरे धीरे कूड़े और जहरीले पदार्थों से भरे एक नाले का स्वरूप लेती जा रही है.

गंगा यात्रा और जागरूकता अभियान इस समस्या से निपटने की तरफ कदम हो सकता हैं, लेकिन यह अभी असल समाधान से कोसों दूर हैं. गंगा को बचाने के लिये अभी तक हजारों करोड़ खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन अभी भी प्रयागराज में नदी का पानी पीने लायक नहीं है.

हिंदु आस्था के सबसे बड़े आयोजनों में से एक अर्द्ध कुंभ की याद आती है, जो 2019 में हुआ था. इसके चलते नदी का सारा किनारा गंदगी और जहरीले पदार्थों से भर गया था. करोड़ों लोगों की आस्था को लेकर कोई सवाल नहीं है, लेकिन क्या यह आस्था अच्छी है?

इसका जवाब आसान नहीं है, लेकिन जाहिर है. दिशाहीन आस्था या आस्था के नाम पर खानापूर्ति ने दुनिया की सबसे बड़ी नदी प्रणाली को कुछ दशकों में ही खात्मे के कगार पर ला दिया है. गंगा में नहाना पापी दिमाग के लिये सस्ती खुशी के समान है. केवल अपनी चिंता करना और नदी के बारे में न सोचना हिंदू धर्म नहीं है, बल्कि हिंदु धर्म के लिये विचारहीन सोच है.

इसका समाधान भी जटिल है और इसमें त्याग लगेगा. आस्था के नाम पर हमें गंगा में होने वाले स्नान को नियंत्रित करना होगा, खासतौर पर उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों में. गंदगी और कचरा जो गंगा के प्रदूषण का 8% है, इसे फौरन रोकने की आवश्यकता है.

गंगा संरक्षण के लिये एक राष्ट्रीय रणनीति बनाने की जरूरत है और इसमें गंगा के ऊपरी इलाको में गंदगी और कूड़े की रोकथाम के लिये काम करने की जरूरत है. मौजूदा समय में हम राफ्टिंग कैंप से होने वाली गंदगी तक को गंगा में गिरने से नहीं रोक पा रहे हैं. हमे गंगा के स्रोत पर शुद्धता लानी होगी, और एक कारगर सीवेज मैनेजमेंट प्रणाली के बिना ऐसा नहीं हो सकेगा.

गंगा और उसकी सहायक नदियों की सेहत के बारे में सारी जानकारी देने वाले एक पोर्टल की भी जरूरत है. अगला कदम है गंगा के कैचमेंट इलाक़ों को दुरुस्त करना. इसका मतलब है कि, गंगा की सभी सहायक नदियों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाना चाहिये और यहां पर अवैध खनन पर रोक लगा कर उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिये.

गंगा के इलाकों में आने वाली ग्रामीण पुलिस को भी इन समस्याओं के बारे में जागरूक करने की जरूरत है, क्योंकि आने वाले समय में पानी सोने से भी ज्यादा कीमती होने वाला है.

लेकिन गंगा को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने वाले हैं उद्योग, और इनके लिये कड़े नियम और नया स्वच्छ गंगा टैक्स लगाने की जरूरत है. कड़े नियम बनाने के लिहाज से सरकार को नॉर्वे या स्वीडन और उनकी नदी नीतियों की तरफ देखना चाहिये. प्रदूषण फैलाने वाले सभी उद्योगों को अपनी फैक्ट्री में ही ट्रीटमेंट प्लांट लगाना अनिवार्य होना चाहिये, और राज्य प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों को पारदर्शिता के लिये किसी तीसरी पार्टी से सत्यापित कराने की जरूरत है.

गंगा बेसिन में आने वाले शहरों के उद्योगों के सीएसआर फंड को गंगा को पुनर्रजीवित करने के कामों में इस्तेमाल करना चाहिये. पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे लोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है. मिसाल के तौर पर, अगर कोई चमड़े की फैक्ट्री अपने आप ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगा सकती है, तो वो ऐसे लोगों से साझेदारी कर सकती है. नदी के किनारे छोटे-छोटे हिस्सों में औद्योगिक क्षेत्रों की जगह हरित औद्योगिक क्षेत्र बसाने की जरूरत है, जो पानी की सफ़ाई आदि से जुड़े प्रॉजेक्ट पर काम करें.

गंगा के किनारे काम कर रहे एनजीओ और किसानों को ऑर्गेनिक खेती के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये और राज्य सरकारों को इसके लिये आर्थिक मदद देना चाहिये. गंगा ऑर्गेनिक नाम से एक ब्रैंड भी उपभोक्ताओं के लिये बनाया जा सकता है. जैविक सेतु के नाम से बिहार सरकार ने एक कार्यक्रम शुरू किया है और इसे गंगा के सारे इलाकों में लागू करने की जरूरत है.

सारांक्ष में, गंगा, यमुना या किसी भी नदी का प्रदूषण मुख्यता आस्था के संकट से उपजता है. एक समाज के तौर पर हमने अपनी संस्कृति को नुकसान पहुंचाया है और अब प्रदूषण और बीमारियों के रूप में इसका फल भुगत रहे हैं. एक मृत नदी, मृत आस्था और मृत हिंदु धर्म का प्रतीक है.

हमारा लालच और हमारा धर्म साथ साथ नहीं रह सकते हैं. या तो नदी जीवित रहेगी या लालच और प्रदूषण की जीत होगी. पैसा और सरकार गंगा की सफाई के लिये नाकाफी हैं, केवल त्याग और आस्था ही हमारी नदी को साफ कर सकते हैं. हमारे समाज में जिम्मेदारी को दोबारा जगाने के लिये एक गंगा सत्याग्रह की जरूरत है.

यह भी पढ़ें- अनशन के बाद एम्स में भर्ती साध्वी पद्मावती की हालत में नहीं हो रहा सुधार

हमारी जीवन दायनी गंगा नदी आज जहर उगल रही है और इसके लिये पूरी तरह से हम जिम्मेदार हैं. अब समय आ गया है कि हम भारत के लोग अपने होश में वापस आयें और नदियों के लिये अपने प्रेम को दोबारा जीवित करें.

इस समय गरुण पुराण की याद आती है- 'गंगा के एक दर्शन से मनुष्य के हज़ारों पाप नष्ट हो जाते हैं, और मनुष्य गंगा के पानी को छूने से, पीने से या केवल गंगा कहने से पवित्र हो जाता है.' ऐसी है गंगा की पवित्रता. अब समय आ गया है कि हम खुद को और अपने समाज को लालच, संकीर्णता और पर्यावरण के लिये हिंसा से मुक्त करें और गंगा को दोबारा पवित्र मां गंगा का दर्जा दें.

पर्यावरण के प्रति हिंसा फैलने वाली है, ठीक उसी उदासीनता की तरह जो हमारे समाज में व्याप्त है. यह हिंसा, नशे की तरह हमारी नसों में उदासीनता के रूप में भर गई है. और हां हमें यह पसंद है. हिंसा और उदासीनता, ऐसे दो पहलू हैं जो किसी भी देश को दुनिया के विध्वंस के मार्ग पर ले जा सकते हैं.

हमने इस मद में अपने पहाड़ों और जंगलों का सफाया कर दिया है और देश आखिरकार पर्यावरण के लिहाज से खतरनाक स्थिति में आ गया है. इसकी कीमत, 7 लाख लोग सालाना जल प्रदूषण के कारण असमय मौत के शिकार हो जाते हैं और लाखों दस्त और धातु से होनी वाले नुकसान से जूझ रहे हैं. जमीन पर मौजूद हमारे पानी के स्रोत सूखते जा रहे हैं, और ग्राउंड वॉटर का स्तर लगातार कम होता जा रहा, जो आने वाले दिनों में पानी के लिये होने वाली जंग की तरफ इशारा कर रहे हैं.

आज के जमाने के हमारे ठेकेदार खुलेआम नदियों को बर्बाद कर रहे हैं, गैरकानूनी तरीके से खनन कर नदियों से मिट्टी और पत्थर निकाला जा रहा है. वहीं, पुरानी पीढ़ी जिम्मेदारी की बात करती है, वो यह भूल जाते हैं कि इस तरह के आचरण की शुरुआत उन्हीं के दौर से हुई है.

प्रदूषण के लिये सरकार जिम्मेदार नहीं है, यह आम लोगों के लालच, लापरवाही और उदासीनता का नतीजा है. हमारे समाज ने हिंसा और उदासीनता को अपना लिया है और इसकी कीमत मां गंगा को चुकानी पड़ रही है.

गंगा नदी को हमने देवी का दर्जा दिया है, लेकिन आज यह नदी उपजाऊ मिट्टी से नहीं बल्कि जहरीले पदार्थों और लाखों लीटर मल और कूड़े से भरी है. गंगा दुनिया की चौथी सबसे प्रदूषित नदी है, और यह न केवल इंसानों के लिये जहरीली है बल्कि पौधों और मच्छलियों के लिये भी.

एनवाईटी से लेकर भारत सरकार की कई रिपोर्ट इस तरफ इशारा करती हैं कि गंगा नदी नही, धीरे धीरे कूड़े और जहरीले पदार्थों से भरे एक नाले का स्वरूप लेती जा रही है.

गंगा यात्रा और जागरूकता अभियान इस समस्या से निपटने की तरफ कदम हो सकता हैं, लेकिन यह अभी असल समाधान से कोसों दूर हैं. गंगा को बचाने के लिये अभी तक हजारों करोड़ खर्च किये जा चुके हैं, लेकिन अभी भी प्रयागराज में नदी का पानी पीने लायक नहीं है.

हिंदु आस्था के सबसे बड़े आयोजनों में से एक अर्द्ध कुंभ की याद आती है, जो 2019 में हुआ था. इसके चलते नदी का सारा किनारा गंदगी और जहरीले पदार्थों से भर गया था. करोड़ों लोगों की आस्था को लेकर कोई सवाल नहीं है, लेकिन क्या यह आस्था अच्छी है?

इसका जवाब आसान नहीं है, लेकिन जाहिर है. दिशाहीन आस्था या आस्था के नाम पर खानापूर्ति ने दुनिया की सबसे बड़ी नदी प्रणाली को कुछ दशकों में ही खात्मे के कगार पर ला दिया है. गंगा में नहाना पापी दिमाग के लिये सस्ती खुशी के समान है. केवल अपनी चिंता करना और नदी के बारे में न सोचना हिंदू धर्म नहीं है, बल्कि हिंदु धर्म के लिये विचारहीन सोच है.

इसका समाधान भी जटिल है और इसमें त्याग लगेगा. आस्था के नाम पर हमें गंगा में होने वाले स्नान को नियंत्रित करना होगा, खासतौर पर उत्तराखंड के ऊपरी इलाकों में. गंदगी और कचरा जो गंगा के प्रदूषण का 8% है, इसे फौरन रोकने की आवश्यकता है.

गंगा संरक्षण के लिये एक राष्ट्रीय रणनीति बनाने की जरूरत है और इसमें गंगा के ऊपरी इलाको में गंदगी और कूड़े की रोकथाम के लिये काम करने की जरूरत है. मौजूदा समय में हम राफ्टिंग कैंप से होने वाली गंदगी तक को गंगा में गिरने से नहीं रोक पा रहे हैं. हमे गंगा के स्रोत पर शुद्धता लानी होगी, और एक कारगर सीवेज मैनेजमेंट प्रणाली के बिना ऐसा नहीं हो सकेगा.

गंगा और उसकी सहायक नदियों की सेहत के बारे में सारी जानकारी देने वाले एक पोर्टल की भी जरूरत है. अगला कदम है गंगा के कैचमेंट इलाक़ों को दुरुस्त करना. इसका मतलब है कि, गंगा की सभी सहायक नदियों को राष्ट्रीय धरोहर घोषित किया जाना चाहिये और यहां पर अवैध खनन पर रोक लगा कर उल्लंघन करने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की जानी चाहिये.

गंगा के इलाकों में आने वाली ग्रामीण पुलिस को भी इन समस्याओं के बारे में जागरूक करने की जरूरत है, क्योंकि आने वाले समय में पानी सोने से भी ज्यादा कीमती होने वाला है.

लेकिन गंगा को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने वाले हैं उद्योग, और इनके लिये कड़े नियम और नया स्वच्छ गंगा टैक्स लगाने की जरूरत है. कड़े नियम बनाने के लिहाज से सरकार को नॉर्वे या स्वीडन और उनकी नदी नीतियों की तरफ देखना चाहिये. प्रदूषण फैलाने वाले सभी उद्योगों को अपनी फैक्ट्री में ही ट्रीटमेंट प्लांट लगाना अनिवार्य होना चाहिये, और राज्य प्रदूषण बोर्ड के आंकड़ों को पारदर्शिता के लिये किसी तीसरी पार्टी से सत्यापित कराने की जरूरत है.

गंगा बेसिन में आने वाले शहरों के उद्योगों के सीएसआर फंड को गंगा को पुनर्रजीवित करने के कामों में इस्तेमाल करना चाहिये. पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे लोगों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है. मिसाल के तौर पर, अगर कोई चमड़े की फैक्ट्री अपने आप ट्रीटमेंट प्लांट नहीं लगा सकती है, तो वो ऐसे लोगों से साझेदारी कर सकती है. नदी के किनारे छोटे-छोटे हिस्सों में औद्योगिक क्षेत्रों की जगह हरित औद्योगिक क्षेत्र बसाने की जरूरत है, जो पानी की सफ़ाई आदि से जुड़े प्रॉजेक्ट पर काम करें.

गंगा के किनारे काम कर रहे एनजीओ और किसानों को ऑर्गेनिक खेती के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये और राज्य सरकारों को इसके लिये आर्थिक मदद देना चाहिये. गंगा ऑर्गेनिक नाम से एक ब्रैंड भी उपभोक्ताओं के लिये बनाया जा सकता है. जैविक सेतु के नाम से बिहार सरकार ने एक कार्यक्रम शुरू किया है और इसे गंगा के सारे इलाकों में लागू करने की जरूरत है.

सारांक्ष में, गंगा, यमुना या किसी भी नदी का प्रदूषण मुख्यता आस्था के संकट से उपजता है. एक समाज के तौर पर हमने अपनी संस्कृति को नुकसान पहुंचाया है और अब प्रदूषण और बीमारियों के रूप में इसका फल भुगत रहे हैं. एक मृत नदी, मृत आस्था और मृत हिंदु धर्म का प्रतीक है.

हमारा लालच और हमारा धर्म साथ साथ नहीं रह सकते हैं. या तो नदी जीवित रहेगी या लालच और प्रदूषण की जीत होगी. पैसा और सरकार गंगा की सफाई के लिये नाकाफी हैं, केवल त्याग और आस्था ही हमारी नदी को साफ कर सकते हैं. हमारे समाज में जिम्मेदारी को दोबारा जगाने के लिये एक गंगा सत्याग्रह की जरूरत है.

यह भी पढ़ें- अनशन के बाद एम्स में भर्ती साध्वी पद्मावती की हालत में नहीं हो रहा सुधार

हमारी जीवन दायनी गंगा नदी आज जहर उगल रही है और इसके लिये पूरी तरह से हम जिम्मेदार हैं. अब समय आ गया है कि हम भारत के लोग अपने होश में वापस आयें और नदियों के लिये अपने प्रेम को दोबारा जीवित करें.

इस समय गरुण पुराण की याद आती है- 'गंगा के एक दर्शन से मनुष्य के हज़ारों पाप नष्ट हो जाते हैं, और मनुष्य गंगा के पानी को छूने से, पीने से या केवल गंगा कहने से पवित्र हो जाता है.' ऐसी है गंगा की पवित्रता. अब समय आ गया है कि हम खुद को और अपने समाज को लालच, संकीर्णता और पर्यावरण के लिये हिंसा से मुक्त करें और गंगा को दोबारा पवित्र मां गंगा का दर्जा दें.

Last Updated : Mar 3, 2020, 5:09 AM IST
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