ETV Bharat / bharat

अमेरिका-तालिबान डील से भारतीय सीमाओं पर पाक को न मिले मुक्त शासन : पूर्व राजदूत - us taliban deal

भारत उस ऐतिहासिक पल का साक्षी बनेगा जब तालिबान और अमेरिका के बीच बहुप्रतीक्षित समझौते पर साइन किया जाएगा. इस समझौते का मकसद युद्धग्रस्त अफगानिस्तान में शांति बहाली और वहां तैनात अमेरिकी सैनिकों को हटाने का मार्ग प्रशस्त करना है. पूर्व राजदूत मीरा शंकर ने एक विशेष साक्षात्कार के दौरान भारत के दृष्टिकोण से अमेरिका-तालिबान समझौते की अहमियत बताई है. पढ़ें विशेष साक्षात्कार के अंश-

meera shankar
पूर्व राजदूत मीरा शंकर
author img

By

Published : Feb 29, 2020, 5:28 PM IST

Updated : Mar 2, 2020, 11:34 PM IST

नई दिल्ली : कतर में भारतीय राजदूत पी कुमारन आज भारत की ओर से दोहा में अमेरिका-तालिबान शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे. इस समझौते में 30 देशों के राजदूतों के उपस्थित होने की उम्मीद जताई जा रही है. समझौते के दौरान तालिबान के साथ वार्ता के दौरान अमेरिका के शांति दूत रहे जाल्मे खलीलजाद भी मौजूद रहेंगे. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो भी समझौते के दौरान मौजूद रहेंगे.

इसके अलावा पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी, उज्बेकिस्तान के विदेश मंत्री कामिलोव और क्षेत्र के कई अन्य हितधारक भी मौजूद रहेंगे.

यह पहली बार है जब भारत किसी आधिकारिक कार्यक्रम में तालिबान के साथ मंच साझा करेगा. इससे भारत के पहले के स्टैंड में बदलाव हुआ है. इससे पहले भारत ने वार्ता के लिए दो सेवानिवृत्त राजदूतों को मॉस्को भेजा था. हालांकि, इन लोगों को 'गैर-आधिकारिक' में भेजा गया था.

इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने संयुक्त राष्ट्र में पूर्व भारतीय राजदूत मीरा शंकर से बात की. मीरा शंकर ने उन तमाम सवालों पर जवाब दिए कि, अमेरिका-तालिबान समझौते को लेकर भारत के लिए क्या दांव पर है. मीरा शंकर ने तालिबान को मुख्यधारा में लाने के बारे को लेकर भारत की बड़ी चिंताओं पर भी बात की.

पूर्व राजदूत मीरा शंकर के साथ विशेष साक्षात्कार

पूर्व राजदूत मीरा शंकर का मानना है कि भारत को निकासी के बाद के परिदृश्य को बारीकी से देखना और आंकना होगा. ऐसे में जबकि भारत अपनी सेना अफगानिस्तान में नहीं भेजेगा, उसे काबुल में सहायता और उपकरण की आपूर्ति पर मदद बढ़ाने होंगे.

इससे पहले स्मिता शर्मा ने रूस के सीनेटर और विदेश मामलों की कमेटी के उपाध्यक्ष एंड्रयू क्लीमोव से भी बात की. एंड्रयू ने कहा कि मॉस्को को शामिल किए बिना अफगानिस्तान में कोई भी शांति समझौता सफल नहीं हो सकता.

इस पर मीरा शंकर का मानना है कि भारत को तालिबान के साथ भागीदारी कर ईरान और रूस जैसे क्षेत्रीय हितधारकों के साथ भी संपर्क बनाए रखना चाहिए.

सवाल- दोहा में आयोजित हस्ताक्षर समारोह में भारत का प्रतिनिधित्व किया जाएगा. इस समय भारत की बड़ी चिंताएं क्या हैं?

जवाब- भारत की चिंता यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सेना की किसी भी तरह की वापसी के कारण वहां अराजक स्थिति पैदा हो सकती है. सेना की वापसी से एक शून्य पैदा हो सकता है, जिसका आतंकवादी और चरमपंथी ताकतों द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे क्षेत्रीय बलों और वैश्विक सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इसलिए हम चिंतित हैं कि अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबान को मुख्यधारा में लाने का काम व्यवस्थित तरह से किया जाना चाहिए.

इस अवधि में जहां अफगान सरकार का समर्थन किया जाएगा, विशेषकर उनकी सेना और पुलिस का, क्योंकि वे वास्तव में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषित हैं.

अगर उनका वित्त पोषण अचानक बंद होता है तो सरकार गिर जाएगी जो किसी के हित में नहीं है.

दूसरी बात यह है कि जब आप तालिबान को मुख्यधारा में लाते हैं, तो लोकतांत्रिक बहुलवाद के संदर्भ में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने से जुड़े लाभों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है.

अंत में चिंता की बात यह है कि अफगानिस्तान के साथ डील करने में पाकिस्तान, अमेरिका के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. उन्हें अनजाने में भी संकेत नहीं मिलने चाहिए कि अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ सहयोग करने को लेकर उन्हें भारत की पूर्वी सीमा पर एक मुक्त शासन दिया जाएगा.

सवाल - क्या यह संभव है कि ट्रंप इमरान खान के साथ व्हाईट हाऊस में बैठें. उन्होंने नई दिल्ली में प्रेस वार्ता को दौरान कहा था कि इमरान खान और नरेंद्र मोदी को अपना दोस्त बताया था, क्या अमेरिका वास्तव में इस समय पाकिस्तान पर बहुत अधिक कठोर हो सकता है, क्योंकि उन्होंने तालिबान को वार्ता की मेज पर लाने में भूमिका निभाई है?

उन्होंने कहा है ऐसे कई उपकरण हैं जिनका उपयोग अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के माध्यम से पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए कर सकता है. जैसे कि उदाहरण के लिए, मसूद अजहर की लिस्टिंग में, पाकिस्तान को एफएटीएफ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) और आईएमएफ के माध्यम से किया था.

सवाल - हमने हाल के दिनों में देखा है जब भारत और अफगानिस्तान से एक कदम पीछे खींच लिया हैा जबकि भारतीय को वहां संसद भवन, या बुनियादी ढांचे, सड़कों के निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. यदि भारत कहता है कि जमीन पर कोई समाधान नहीं होंगे तो भारत अपनी रणनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अफगानिस्तान में अपने निवेश को कैसे बढ़ा सकता है?

उन्होंने कहा कि इंट्रा-अफगान समस्या क्या है, फिर एक इंडो-पाक समस्या और एक में बदल जाएगी। इसलिए भारत के लिए जमीन पर समाधान रखना वास्तव में वांछनीय नहीं है. हमारी कई बुनियादी परियोजनाओं के लिए हम उनकी रक्षा करने के लिए सहमत हैं. हमने अपनी कुछ पैरा मिलिट्री वहां ले ली है. हम निश्चित रूप से प्रशिक्षण, उपकरण आपूर्ति को बढ़ा सकते हैं यदि हम उन्हें कुछ और एयरलिफ्ट क्षमताओं की आपूर्ति कर सकते हैं. हमने उन्हें अतीत में हेलीकॉप्टर उपलब्ध कराए हैं. लेकिन वे एयरलिफ्ट क्षमताओं से काफी कम हैं.

सवाल - मैंने एक रूसी सीनेटर से बात की, जो विदेश मामलों की समिति का उप-प्रमुख होता है, जो मानता है कि एक शांति सौदा जिसमें मॉस्को शामिल नहीं है जो अफगानिस्तान में उनके पिछले अनुभवों को देखते हुए सफल नहीं होगा. क्या भारत तालिबान के साथ कुछ बैक चैनल के लिए रूस या ईरान का उपयोग कर सकता है. इन हितधारकों की क्या भूमिका होगी?

ईरान ने तालिबान या कुछ तत्वों के साथ मूल रूप से अमेरिकी के खिलाफ लाभ उठाने के लिए अपनी रणनीति के एक हिस्से के रूप में लिंक रखा है, क्योंकि वह अमेरिकी उपस्थिति को लेकर बहुत चिंतित रहे हैं. हालांकि वह शुरू में तालिबान के शत्रु थे, जिसे उन्होंने शिया-विरोधी के रूप में देखा था.

मुख्य रूप से अमेरिकी उपस्थिति के बारे में उनकी चिंताओं के कारण उन्होंने मुख्य रूप से तालिबान के साथ संबंध बनाए रखे हैं. रूस मध्य एशिया और रूस में ही अफगानिस्तान में अस्थिरता के प्रभाव के बारे में चिंतित रहा है. विशेष रूप से मादक पदार्थों का व्यापार, जो वहां से रूस में होता. इसलिए वह वहां नजर रखेंगे.

नई दिल्ली : कतर में भारतीय राजदूत पी कुमारन आज भारत की ओर से दोहा में अमेरिका-तालिबान शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेंगे. इस समझौते में 30 देशों के राजदूतों के उपस्थित होने की उम्मीद जताई जा रही है. समझौते के दौरान तालिबान के साथ वार्ता के दौरान अमेरिका के शांति दूत रहे जाल्मे खलीलजाद भी मौजूद रहेंगे. अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो भी समझौते के दौरान मौजूद रहेंगे.

इसके अलावा पाकिस्तान के विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी, उज्बेकिस्तान के विदेश मंत्री कामिलोव और क्षेत्र के कई अन्य हितधारक भी मौजूद रहेंगे.

यह पहली बार है जब भारत किसी आधिकारिक कार्यक्रम में तालिबान के साथ मंच साझा करेगा. इससे भारत के पहले के स्टैंड में बदलाव हुआ है. इससे पहले भारत ने वार्ता के लिए दो सेवानिवृत्त राजदूतों को मॉस्को भेजा था. हालांकि, इन लोगों को 'गैर-आधिकारिक' में भेजा गया था.

इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा ने संयुक्त राष्ट्र में पूर्व भारतीय राजदूत मीरा शंकर से बात की. मीरा शंकर ने उन तमाम सवालों पर जवाब दिए कि, अमेरिका-तालिबान समझौते को लेकर भारत के लिए क्या दांव पर है. मीरा शंकर ने तालिबान को मुख्यधारा में लाने के बारे को लेकर भारत की बड़ी चिंताओं पर भी बात की.

पूर्व राजदूत मीरा शंकर के साथ विशेष साक्षात्कार

पूर्व राजदूत मीरा शंकर का मानना है कि भारत को निकासी के बाद के परिदृश्य को बारीकी से देखना और आंकना होगा. ऐसे में जबकि भारत अपनी सेना अफगानिस्तान में नहीं भेजेगा, उसे काबुल में सहायता और उपकरण की आपूर्ति पर मदद बढ़ाने होंगे.

इससे पहले स्मिता शर्मा ने रूस के सीनेटर और विदेश मामलों की कमेटी के उपाध्यक्ष एंड्रयू क्लीमोव से भी बात की. एंड्रयू ने कहा कि मॉस्को को शामिल किए बिना अफगानिस्तान में कोई भी शांति समझौता सफल नहीं हो सकता.

इस पर मीरा शंकर का मानना है कि भारत को तालिबान के साथ भागीदारी कर ईरान और रूस जैसे क्षेत्रीय हितधारकों के साथ भी संपर्क बनाए रखना चाहिए.

सवाल- दोहा में आयोजित हस्ताक्षर समारोह में भारत का प्रतिनिधित्व किया जाएगा. इस समय भारत की बड़ी चिंताएं क्या हैं?

जवाब- भारत की चिंता यह है कि अफगानिस्तान से अमेरिका और नाटो सेना की किसी भी तरह की वापसी के कारण वहां अराजक स्थिति पैदा हो सकती है. सेना की वापसी से एक शून्य पैदा हो सकता है, जिसका आतंकवादी और चरमपंथी ताकतों द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है. इससे क्षेत्रीय बलों और वैश्विक सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है.

इसलिए हम चिंतित हैं कि अमेरिकी सेना की वापसी और तालिबान को मुख्यधारा में लाने का काम व्यवस्थित तरह से किया जाना चाहिए.

इस अवधि में जहां अफगान सरकार का समर्थन किया जाएगा, विशेषकर उनकी सेना और पुलिस का, क्योंकि वे वास्तव में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वित्त पोषित हैं.

अगर उनका वित्त पोषण अचानक बंद होता है तो सरकार गिर जाएगी जो किसी के हित में नहीं है.

दूसरी बात यह है कि जब आप तालिबान को मुख्यधारा में लाते हैं, तो लोकतांत्रिक बहुलवाद के संदर्भ में महिलाओं और अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करने से जुड़े लाभों को संरक्षित करना महत्वपूर्ण है.

अंत में चिंता की बात यह है कि अफगानिस्तान के साथ डील करने में पाकिस्तान, अमेरिका के लिए अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है. उन्हें अनजाने में भी संकेत नहीं मिलने चाहिए कि अफगानिस्तान में अमेरिका के साथ सहयोग करने को लेकर उन्हें भारत की पूर्वी सीमा पर एक मुक्त शासन दिया जाएगा.

सवाल - क्या यह संभव है कि ट्रंप इमरान खान के साथ व्हाईट हाऊस में बैठें. उन्होंने नई दिल्ली में प्रेस वार्ता को दौरान कहा था कि इमरान खान और नरेंद्र मोदी को अपना दोस्त बताया था, क्या अमेरिका वास्तव में इस समय पाकिस्तान पर बहुत अधिक कठोर हो सकता है, क्योंकि उन्होंने तालिबान को वार्ता की मेज पर लाने में भूमिका निभाई है?

उन्होंने कहा है ऐसे कई उपकरण हैं जिनका उपयोग अमेरिका अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली के माध्यम से पाकिस्तान पर दबाव बनाने के लिए कर सकता है. जैसे कि उदाहरण के लिए, मसूद अजहर की लिस्टिंग में, पाकिस्तान को एफएटीएफ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) और आईएमएफ के माध्यम से किया था.

सवाल - हमने हाल के दिनों में देखा है जब भारत और अफगानिस्तान से एक कदम पीछे खींच लिया हैा जबकि भारतीय को वहां संसद भवन, या बुनियादी ढांचे, सड़कों के निर्माण में अपनी भूमिका निभानी चाहिए. यदि भारत कहता है कि जमीन पर कोई समाधान नहीं होंगे तो भारत अपनी रणनीतिक सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अफगानिस्तान में अपने निवेश को कैसे बढ़ा सकता है?

उन्होंने कहा कि इंट्रा-अफगान समस्या क्या है, फिर एक इंडो-पाक समस्या और एक में बदल जाएगी। इसलिए भारत के लिए जमीन पर समाधान रखना वास्तव में वांछनीय नहीं है. हमारी कई बुनियादी परियोजनाओं के लिए हम उनकी रक्षा करने के लिए सहमत हैं. हमने अपनी कुछ पैरा मिलिट्री वहां ले ली है. हम निश्चित रूप से प्रशिक्षण, उपकरण आपूर्ति को बढ़ा सकते हैं यदि हम उन्हें कुछ और एयरलिफ्ट क्षमताओं की आपूर्ति कर सकते हैं. हमने उन्हें अतीत में हेलीकॉप्टर उपलब्ध कराए हैं. लेकिन वे एयरलिफ्ट क्षमताओं से काफी कम हैं.

सवाल - मैंने एक रूसी सीनेटर से बात की, जो विदेश मामलों की समिति का उप-प्रमुख होता है, जो मानता है कि एक शांति सौदा जिसमें मॉस्को शामिल नहीं है जो अफगानिस्तान में उनके पिछले अनुभवों को देखते हुए सफल नहीं होगा. क्या भारत तालिबान के साथ कुछ बैक चैनल के लिए रूस या ईरान का उपयोग कर सकता है. इन हितधारकों की क्या भूमिका होगी?

ईरान ने तालिबान या कुछ तत्वों के साथ मूल रूप से अमेरिकी के खिलाफ लाभ उठाने के लिए अपनी रणनीति के एक हिस्से के रूप में लिंक रखा है, क्योंकि वह अमेरिकी उपस्थिति को लेकर बहुत चिंतित रहे हैं. हालांकि वह शुरू में तालिबान के शत्रु थे, जिसे उन्होंने शिया-विरोधी के रूप में देखा था.

मुख्य रूप से अमेरिकी उपस्थिति के बारे में उनकी चिंताओं के कारण उन्होंने मुख्य रूप से तालिबान के साथ संबंध बनाए रखे हैं. रूस मध्य एशिया और रूस में ही अफगानिस्तान में अस्थिरता के प्रभाव के बारे में चिंतित रहा है. विशेष रूप से मादक पदार्थों का व्यापार, जो वहां से रूस में होता. इसलिए वह वहां नजर रखेंगे.

Last Updated : Mar 2, 2020, 11:34 PM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.