सरकार द्वार मुहैया कराई जा रही स्वास्थ्य सेवाएँ अभी भी आम आदमी की पहुँच से दूर हैं. नीति आयोग ने हाल ही मे देश मे लोक स्वास्थ्य सेवाओं के हाल पर एक रिपोर्ट जारी की है. इस रिपोर्ट मे देश में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं सेवाओं तक पहुँचने की चुनौतियों के बारे में बात की गई है. जहाँ एक तरफ़ दुनिया भर के देश अपने नागरिकों को बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं देने के लिये काफ़ी काम कर रही हैं, वहीं भारत फ़िलहाल ऐसे देशों की लिस्ट मे आने से कोसो दूर है. करोड़ों भारतियों के लिये आज भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँचना आज भी दूसर है, नीति आयोग की रिपोर्ट इसी तरफ़ इशारा करती है. न्यू इंडिया की तरफ़ क़दम बढ़ाने के क्रम मे नीति आयोग ने कई क्षेत्रों को चिह्नित किया है. अगर हेल्थकेयर पर कुल सरकारी ख़र्च को जीडीपी की तुलना मे देखें तो भारत का ख़र्च श्री लंका, इंडोनेशिया, मिस्त्र और फ़िलीपींस जैसे देशों से भी कम है
दुनियाभर में औसत निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च महज़ 18% ही है, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ये आँकड़ा 63% है. प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना केवल 40% जनसंख्या को ही कवर कर रही है, इनमें वो पाँच प्रतिशत लोग शामिल नहीं हैं जो पहले से ही किसी सरकारी योजना का लाभ ले रहे है. ये आँकड़े बताते हैं कि फ़िलहाल देश के अधिक्तर लोगों के पास आज भी सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के फ़ायदे नहीं हैं. नेशनल हेल्थ प्रॉटेक्शन स्कीम बताती है कि सालाना छह करोड़ लोग मेडिकल बिलों के कारण लोन लेने को मजबूर हैं. वहीं दूसरी तरफ़ सही निर्देशों के अभाव में लाखों लोग हेल्थ बीमा का फ़ायदा नहीं उठा पा रहे हैं. सही समय पर इलाज न मिलने के कारण देश में सालाना चौबीस लाख लोगों की जान चली जाती है.
नीति आयोग ने लोगों के बीच स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर लोगों में विश्वास जगाने के लिये कई सुझाव दिये हैं. इसके तहत 2030 तक 10 लाख नवजात शिशुओं को बचाने और कामकाजी वृद्ध जनसंख्या में मृत्यु दर को 16 प्रतिशत तक कम करना शामिल है. हांलाकि भारत में मेडिकल पर्यटन की ग्रोथ अच्छी है, पर ये सरकार की ज़िम्मेदारी है कि अपने नागरिकों को भी बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं मुहैया कराई जाये. स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता और गुणवत्ता को नापने के लिये 195 देशों में किये गये सर्वे में भारत का स्थान 145वां है. चीन, भूटान, बांग्लादेश और श्रीलंका का प्रदर्शन भा हमसे बेहतर रहा है. इन बाहरी आँकड़ों के अलाव भी केंद्र सरकार ने ये बात मानी हैं कि देश में बीस फ़ीसदी प्राइमरी हेल्थ सेंटर और तीस फ़ीसदी सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है. भारत मे बीस लाख डॉक्टरों और चालीस लाख नर्कों की कमी भी है.
सरकार ने ये आँकड़ा भी दिया कि देश में 57% एलोपैथ दवाइयाँ अप्रक्षिशत डॉक्टरों द्वारा दी जा रही हैं. लाखों लोग मजबूरी में नक़ली डॉक्टरों से इलाज करा रहे हैं. इसे रोकने के लिये युद्धस्तर पर काम करने की ज़रूरत है. नीति आयोग के आँकड़ों के मुताबिक़ अस्सी फ़ीसदी अस्पतालों में दस लोगों ले कम स्टाफ़ है. ज़्यादातर अस्पताल और डॉक्टर शहरी इलाक़ों में हैं जिसके चलते ग्रामीण इलाक़ों में स्वास्थ्य सेवाओं जर्जर हालात मे हैं. नीति आयोग ने अपनी रिपोर्ट में ये साफ़ किया है कि अगर इन हालातों से निपटने के लिये ठोस क़दम नहीं उठाये गये तो, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का फ़ायदा उसके सही हक़दारों तक नहीं पहुँच सकेगा, और लोग ऐसी योजनाओं के बावजूद अपने मेडिकल ख़र्चे ख़ुद उठाने को मजबूर रहेंगे.
दक्षिण कोरिया, चीन, तुर्की, पेरू, मालदीव जैसे देशों ने अपने यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं में ये समझते हुए सुधार किया है कि बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं से ही राष्ट्र का पूर्ण विकास हो सकेगा. कनाडा, कतार, फ़्रांसीसी, नार्वे और न्यू ज़ीलैंड भी अपने यहाँ स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर विश्व में उद्धारण बना रहे हैं. भारत औरइन देशों में इतना फ़र्क़ होने के पीछे सबसे बड़ा कारण है संसाधनों की कमी. भारत में प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर ख़र्च 63 यूएसडी है, वहीं चीन इसका सात गुना ख़र्च करता है. एकतरफ़ा जहाँ क्यूबा, ऑस्ट्रिया, बेल्जियम और डेनमार्क अपनी जीडीपी का सात से आठ फ़ीसदी स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च कर रहे हैं भारत में ये आँकड़ा 1.1% है. स्वास्थय सेवाओं पर निजि खर्च को कम करके इटली, ग्रीस, हांगकांग जैसे देशों ने स्वास्थय सेवाओं संबंधी स्कीमों को अपने यहां कारगर बनाया है. स्वीटजर्लैंड भी अपने यहां स्वास्थय संबंधी योजनाओँ को और कारगर बनाने पर काम कर रहा है. बिल गेटस का कहना है कि 'प्राइमरी हेल्थकेयर के मामले में भारत की स्थिति काफी आशावादी है और वो दुनियाभर के लिये मिसाल का काम कर सकता है.' इन शब्दों को सच्चाई बनाने के लिये फंड की कमी से लेकर डॉक्टरों की कमी जैसे मसलों को हल करने की जरूरत है. जब देश की बदहाल स्वास्थय सेवाओं को सही दवा मिलेगी तभी जन स्वास्थय सेवाऐं सही दिशा में चल सकेंगी.