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क्या जमीन पर अखाड़े के दावे को स्वीकार करते हैं मुस्लिम, अयोध्या केस के 20वें दिन SC ने पूछा सवाल

अयोध्या मामले में 20वें दिन की सुनावई के दौरान उच्चतम न्यायालय ने मुस्लिम पक्षकारों के उन आरोपों का संज्ञान लिया, जिसमें कहा गया कि निर्मोही अखाड़ा के कई गवाहों ने अपनी गवाही में बढ़ा चढ़ाकर दावे पेश किए.

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Published : Sep 6, 2019, 12:06 AM IST

Updated : Sep 29, 2019, 2:43 PM IST

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को मुस्लिम पक्षकारों के उन आरोपों का संज्ञान लिया, जिसमें कहा गया कि निर्मोही अखाड़ा के कई गवाहों ने अपनी गवाही में बढ़ा चढ़ाकर दावे किए. इस पर न्यायालय ने उनसे पूछा कि क्या वे इसके बावजूद अयोध्या में विवादित भूमि पर उनका अधिकार स्वीकार करते हैं.

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस ए नजीर की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन की दलीलों पर विचार किया कि अखाड़ा ने अपने वाद के पक्ष में जिन गवाहों का परीक्षण किया उनके बयानों में विसंगति और विरोधाभास है.

धवन इस मामले के मूल वादकार एम सिद्दीक समेत सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य की तरफ से उपस्थित थे.

वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, 'किसी ने कहा कि निर्मोही अखाड़ा 700 साल पहले अस्तित्व में आया तो कुछ ने कहा कि यह 250 साल पहले वजूद में आया एक गवाह ने कहा कि भगवान राम 12 लाख वर्ष पहले अवतरित हुए थे.

उन्होंने कहा, लेकिन मैं इस तथ्य से बच नहीं सकता कि इस बात के रिकॉर्ड हैं कि 1855-56 में निर्मोही अखाड़ा था और 1885 में (महंत रघुबर दास ने)एक मुकदमा दायर किया गया था. धवन ने कहा कि एक गवाह,

जिसने 200 से अधिक मामलों में गवाही दी है, उसका मानना ​​था कि अगर कोई जगह जबरन छीन ली गई है तो झूठ बोलने में कोई बुराई नहीं है.

पीठ ने कहा, इन विरोधाभासों के बावजूद, आप अब भी यह कहते हैं कि उन्होंने (निर्मोही अखाड़ा) अपने शेबैत (प्रबंधन) अधिकार स्थापित किये हैं. पीठ ने राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मामले में सुनवाई के 20 वें दिन कहा कि अगर निर्मोही अखाड़ा के 'शेबैत अधिकारों' को स्वीकार कर लिया गया, तो उनके साक्ष्य भी स्वीकार कर लिए जाएंगे.

पढ़ें- अयोध्या केस में 15वें दिन की सुनवाई पूरी, जानें पूरा विवरण

धवन ने कहा कि शेबैत अधिकार सिर्फ स्थल के प्रबंधन और पूजा आदि तक सीमित हैं और यह 'अखाड़ा' के किसी भी स्वामित्व के दावे को जन्म नहीं देता.

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के एक फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर सुनवाई कर रहा है.उच्च न्यायालय ने चार दीवानी मुकदमों पर अपने फैसले में 2.77 एकड़

विवादित भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला के बीच समान रूप से विभाजित करने का फैसला सुनाया था.

(एक्सट्रा इनपुट- पीटीआई)

नई दिल्ली: उच्चतम न्यायालय ने गुरुवार को मुस्लिम पक्षकारों के उन आरोपों का संज्ञान लिया, जिसमें कहा गया कि निर्मोही अखाड़ा के कई गवाहों ने अपनी गवाही में बढ़ा चढ़ाकर दावे किए. इस पर न्यायालय ने उनसे पूछा कि क्या वे इसके बावजूद अयोध्या में विवादित भूमि पर उनका अधिकार स्वीकार करते हैं.

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई, न्यायमूर्ति एस ए बोबडे, न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस ए नजीर की पीठ ने वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन की दलीलों पर विचार किया कि अखाड़ा ने अपने वाद के पक्ष में जिन गवाहों का परीक्षण किया उनके बयानों में विसंगति और विरोधाभास है.

धवन इस मामले के मूल वादकार एम सिद्दीक समेत सुन्नी वक्फ बोर्ड और अन्य की तरफ से उपस्थित थे.

वरिष्ठ अधिवक्ता ने कहा, 'किसी ने कहा कि निर्मोही अखाड़ा 700 साल पहले अस्तित्व में आया तो कुछ ने कहा कि यह 250 साल पहले वजूद में आया एक गवाह ने कहा कि भगवान राम 12 लाख वर्ष पहले अवतरित हुए थे.

उन्होंने कहा, लेकिन मैं इस तथ्य से बच नहीं सकता कि इस बात के रिकॉर्ड हैं कि 1855-56 में निर्मोही अखाड़ा था और 1885 में (महंत रघुबर दास ने)एक मुकदमा दायर किया गया था. धवन ने कहा कि एक गवाह,

जिसने 200 से अधिक मामलों में गवाही दी है, उसका मानना ​​था कि अगर कोई जगह जबरन छीन ली गई है तो झूठ बोलने में कोई बुराई नहीं है.

पीठ ने कहा, इन विरोधाभासों के बावजूद, आप अब भी यह कहते हैं कि उन्होंने (निर्मोही अखाड़ा) अपने शेबैत (प्रबंधन) अधिकार स्थापित किये हैं. पीठ ने राजनीतिक रूप से संवेदनशील इस मामले में सुनवाई के 20 वें दिन कहा कि अगर निर्मोही अखाड़ा के 'शेबैत अधिकारों' को स्वीकार कर लिया गया, तो उनके साक्ष्य भी स्वीकार कर लिए जाएंगे.

पढ़ें- अयोध्या केस में 15वें दिन की सुनवाई पूरी, जानें पूरा विवरण

धवन ने कहा कि शेबैत अधिकार सिर्फ स्थल के प्रबंधन और पूजा आदि तक सीमित हैं और यह 'अखाड़ा' के किसी भी स्वामित्व के दावे को जन्म नहीं देता.

गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय, इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के एक फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर सुनवाई कर रहा है.उच्च न्यायालय ने चार दीवानी मुकदमों पर अपने फैसले में 2.77 एकड़

विवादित भूमि को सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला के बीच समान रूप से विभाजित करने का फैसला सुनाया था.

(एक्सट्रा इनपुट- पीटीआई)

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SC-AYODHYA
SC asks Muslims if they accept Akhara's claim on Ayodhya land despite tall claims of witnesses
         New Delhi, Sep 5 (PTI) The Supreme Court on Thursday took note of allegations of Muslim parties that many witnesses of Nirmohi Akhara made "tall claims" in their testimonies and asked them whether they still accept that it has rights over the disputed Ram Janmbhoomi-Babri masjid land at Ayodhya.
         A five-judge Constitution bench headed by Chief Justice Ranjan Gogoi considered the submission of senior advocate Rajeev Dhavan, appearing for Sunni Waqf Board and others including original litigant M Siddiq, that there were "discrepancies" and "contradictions' in statements of witnesses examined by the Akhara in favour of its lawsuit.
         "Somebody said Nirmohi Akhara came into being 700 years ago, some said 250 years ago... A witness said Lord Ram was there 12 lakh years ago...
         "But, I cannot get away from the fact that there are records that Nirmohi Akhara was there in 1855-56 and a suit was filed (by Mahant Raghubar Das) in 1885," the senior advocate told the bench also comprising justices S A Bobde, D Y Chandrachud, Ashok Bhushan and S A Nazeer.
         A witness, who had testified in over 200 cases, believed that there was "no harm in telling a lie" if a place has been forcibly taken away, he said.
         "Despite these contradictions, you still maintain that they (Nirmohi Akhara) have established their shebaiti (managing) rights," the bench asked.
         If the 'shebaitship" of Nirmohi Akhara was accepted, then their evidence will also be accepted, the bench said on the 20th day of the hearing in the politically-sensitive case.
         Right as 'shebait' was restricted to the plea seeking right to manage, charge and worship at the site and it did not give rise to any ownership claim to 'Akahara', Dhavan, who was assisted by lawyer Ejaz Maqbool, said.
         These witnesses cannot be called "liars in toto", but the Muslim parties "stand by" with their claim that the incident of placing of idols inside the central dome on the intervening night of December 22-23, 1949 at the disputed site did take place, Dhavan said and urged the bench that part of testimonies, contrary to Muslims' claim, be discarded.
         "I accept that Nirmohis are 'shebaits' of 'Ram Chabutara in outer courtyard. Some part (of statements of testimonies) is not credible. The tall claims are not correct," he said.
         He said a 'shebait' can be the manager of the property and can live on its earnings, but "certainly" it has no title rights over such an asset.
         Referring to pleadings of Akhara, Dhavan said it has claimed that "'Janmsthan' now commonly known as 'Janmabhoomi' ... belongs and has always belonged to the plaintiff no. 1 (Akhara) who through its reigning 'Mahant' ... has ever since been managing it and receiving offerings made there at in form of money, sweets, flowers and fruits and other articles and things."
         Dhavan alleged that Akhara by using terms -- belong and belonging to -- in its lawsuit has sought ownership of the entire disputed site and idols there.
         He then extensively dealt with the meaning of the terms by citing dictionary and judgements and said there was a "contrast" between terms "belonging to" and "ownership".
         "Without prejudice..., a question was raised about the meaning of the word 'belong' and 'belonging to'. It is submitted that they (terms) connote ownership with some flexibility," he said.
         The bench asked Dhavan as to why he was stressing on these terms as they were not part of law and moreover, Akhara has been seeking management and charge of the property.
         If Akhara says that it is a 'shebait', which is the manager and in service of the deity, to whom the land belongs then it may construed that the land is owned by the deity and managed by the 'shebait', the bench said.
         "Nirmohi Akhara's right as shebait does not exist without the deity and the 'shebait' being in the service and management of the deity has the right to serve and protect the interest of the deity," it said.
         Dhavan then said the lawsuit of Akhara was time-barred under the law of limitation as they said that their cause of action started when the receiver took possession of the disputed site on January 5, 1950 and the case was filed in 1959 which is beyond the three year time limit.
         The bench said that Akhara has argued that it was a case of "continuous wrong" as the deprivation from management and prayer rights continued and moreover, no final adjudication on the attachment proceedings took place and hence the plea of Akhara was not time-barred.
         "As the final order was not passed in the Section 145 proceedings (attachment of site). So Akhara says that the Limitation dos not run against it. What You (Dhavan) have to say," it asked.
         When did the cause of action arise, it started on January 5, 1950 and they filed the case in 1959, Dhavan said, adding that Akhara "muddled up" their case.
         Dhavan would continue his submissions on September 11.
         The Allahabad High Court, in its judgment of 2010 on four civil lawsuits, had partitioned the 2.77-acre disputed land equally among Sunni Waqf Board, Nirmohi Akhara and Ram Lalla.
         Fourteen appeals have been filed in the Supreme Court against the verdict. PTI SJK
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Last Updated : Sep 29, 2019, 2:43 PM IST
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