नई दिल्ली : परमाणु सुरक्षा विशेषज्ञ जॉर्ज पेरकोविच का मानना है कि अफगानिस्तान की स्थिति शायद ही बदली है और दोनों पक्षों के बीच किसी भी नई उपलब्धि को हासिल करने की संभावना नहीं है. वाशिंगटन में अंतरराष्ट्रीय शांति के लिए वैश्विक थिंक टैंक कार्नेगी एंडोमेंट के उपाध्यक्ष का कहना है कि कश्मीर में मानवाधिकार की स्थिति के बारे में वास्तविक चिंता है. उनके अनुसार घाटी में सशस्त्र संघर्ष की संभावना और भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ रहा है.
बेंगलुरु में कार्नेगी ग्लोबल टेक्नोलॉजी समिट के दौरान वरिष्ठ पत्रकार स्मिता शर्मा से बात करते हुए, पेरकोविच ने यह भी तर्क दिया कि मोदी सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 के उन्मूलन और राज्य के पुनर्निर्माण के बाद कश्मीर के विषय में पाकिस्तानी तर्कों को वाशिंगटन में अधिक महत्व मिल रहा है. पेरकोविच ने कहा, हालांकि, डोनाल्ड ट्रम्प को दक्षिण एशिया या उसकी गतिशीलता का कोई अंदाज़ा नहीं है और अकसर झूठ बोलते हैं.
अब जब अमेरिका ने तालिबान के साथ वार्ता को फिर से शुरू करने की घोषणा की है, तो क्या आप इसे कोई सफलता मिलती देख रहे हैं?
मेरी समझ में यह सिर्फ बातचीत के लिए नहीं है. कैंप डेविड बैठक रद्द होने से पहले प्रगति हुई थी. अब अमरिकी सेना के भीतर और भारत के भीतर विवादास्पद आवाजें उठने लगीं हैं कि जिस बात पर सहमति होने वाली थी, वह तालिबान के पक्ष में बहुत ज्यादा थी. लेकिन विवाद के बावजूद कुछ प्रगति हुई थी. यदि वे चर्चाओं को फिर से शुरू कर रहे हैं तो मेरे लिए यह देखना मुश्किल है कि जिस बड़े पैकेज जिसकी अफवाह है वो मौजूदा मसौदे से कैसे अलग होगी. ज़मीन पर ऐसा कोई बदलाव नहीं आया है जिसके लिए तालिबान को बड़ी रियायतें दी जानी चाहिए. मुझे नहीं पता कि अमेरिका ऐसा क्या ज्यादा करने जा रहा है जो उसने पहले से ही नहीं किया है.
जब कैंप डेविड से बातचीत के लिए ट्रम्प ने तालिबान को आमंत्रित किया और तब हमले का हवाला देते हुए उसे रद्द कर दिया, तब परदे के पीछे क्या हुआ था?
सच में मैं नहीं जानता. इसके लक्षण या संकेत कुछ ऐसे हैं जो ट्रम्प प्रशासन में कई बार हुए हैं. जहां राष्ट्रपति किसी बात के लिए सहमत होते हैं या कुछ ऐसा प्रतीत होता है कि वह कुछ आशाजनक कह रहे हैं, वह अक्सर उस महान टेलीविजन की कल्पना कर रहे होते हैं, जो उन्हें महान दिखायेगा. लेकिन वे अज्ञानी हैं. वह स्थिति को बारीकी से नहीं समझते हैं. इसलिए समय समय पर उनके कर्मचारी और अन्य लोग उन्हें सचेत करने की कोशिश कर रहे हैं कि यह मुद्दा जटिल है, विवादास्पद हो सकता है, जो वो करते रहते हैं उनके क्या निहितार्थ हैं.
वह आखिरी पल तक ध्यान नहीं देते हैं और फिर इस निष्कर्ष पर आते हैं कि अगर वह इसके साथ आगे बढ़ते हैं तो वह टेलीविजन पर बुरे लगेंगे और इसलिए वह उसकार्यक्रम को रद्द कर देते हैं. तो तालिबान के प्रतिनिधियों के साथ कैंप डेविड में योजनाबद्ध बैठक से पहले हुई चीजों में से एक यह है कि लोगों को अंतत: ट्रम्प के पीछे पड़ गए थे और उन्होंने महसूस किया कि वह अच्छे नहीं लगेगें. लोग कह रहे थे कि तालिबान हत्यारे हैं और आप उन्हें कैंप डेविड में बिना बदले में कुछ मिले आमंत्रित कर रहे हैं. तो ऐसा प्रतीत होता है कि उन्हें एहसास हुआ कि वह इतना अच्छा नहीं लगेंगे इसलिए उन्होंने उसे रद्द कर दिया.
अमेरिका में कश्मीर पर दो बार सुनवाई हो चुकी है क्या ह्यूस्टन रैली और रिपब्लिकन में ट्रम्प की उपस्थिति को देखते हुए डेमोक्रेट्स के बीच आज भी गहरी आलोचना है कि पीएम मोदी ने उन्हें 2020 के लिए समर्थन दिया है?
मुझे नहीं लगता कि ह्यूस्टन में राष्ट्रपति ट्रम्प और पीएम मोदी के इस तरह के रिश्तों की वजह से भारत को अमेरिका में राजनीतिक रूप से मदद मिली है. लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह बहुत बड़ी बात थी. मेरी समझ में डेमोक्रेटिक प्रतिनिधि कश्मीर में स्थिति के बारे में जवाब नहीं दे रहे हैं या ट्रम्प के साथ मोदी की बैठक के लिए कुछ प्रतिशोध के रूप में अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं. इसने मदद नहीं की, लेकिन यह इसका कारण भी नहीं था. जो वास्तविक अर्थ में चिंता पैदा कर रहा है वह है कि यह कश्मीर के मुद्दे पर एक बड़ी पारी थी.
यह एक ज्वलंत मुद्दा है जिसके कारण तनाव हुआ और सशस्त्र संघर्ष हो सकता है. और संभवतः इसे एकतरफा हल नहीं किया जा सकता है जो भारत सरकार की कोशिश और चाहत है. यह वास्तविक चिंता है कि इससे समस्या हल नहीं होगी. वे हकीकत में कश्मीर में मानव अधिकारों की स्थिति के बारे में चिंतित हैं. इसके बारे में ज्यादा जानकारी नहीं आ रही है क्योंकि भारत सरकार ख़बरों को रोक रही है, इससे लोगों में ये धारणा घर कर गयी है कि हालात वाकई बहुत खराब हैं और यह कि भारत सरकार की स्थिति बहुत समस्याग्रस्त है क्योंकि वे खबरों को बाहर जाने की अनुमति नहीं दे रही है. अधिकारियों और डेमोक्रेट के बीच संशय पैदा होना स्वाभाविक है और उनके लिए जो आम तौर पर मानव अधिकारों में अधिक रुचि रखते हैं. यही बात कांग्रेस की सुनवाई में भारत के विषय में पूछताछ में परिलक्षित होती है.
राष्ट्रपति ट्रम्प ने कश्मीर मुद्दे पर मध्यस्थता के बारे में कुछ बातें कही हैं, फिर बयान बदल दिए हैं. अमेरिकी प्रशासन भारत-पाकिस्तान की स्थिति को लेकर कितना गंभीर है?
अमेरिकी राष्ट्रपति अपने पद के कारण क्या कहते हैं और क्या करते हैं, उसे दरकिनार करना मुश्किल है. लेकिन इस आदमी को दक्षिण एशिया या गतिशीलता के बारे में कुछ भी नहीं जानकारी नहीं है. वो अक्सर वो बातें कहते हैं, जो सच नहीं होती हैं. मुझे ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी पर यकीन करना होगा जब वो कहते हैं कि ऐसा कोई मामला था ही नहीं. (प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्रपति ट्रम्प को कभी भी मध्यस्थता करने के लिए नहीं कहा) 1999 से अबतक 20 वर्षों से हिंसा की मौजूदगी अंतर्निहित मुद्दे के तौर पर अमेरिकी सरकारों के लिए चिंता का विषय है.
वे चिंतित हैं कि चाहे न चाहे ये मुद्दा और गरमा सकता है और ऐसे में दो परमाणु सशस्त्र राज्यों के बीच भिड़न्त की संभावना प्रबल हो जाती है, इसलिए परमाणु आयाम के बारे में चिंता करना स्वाभाविक है. एक साथ यह नहीं कहा जा सकता है कि हमारे पास जंग को रोकने के लिए परमाणु हथियार हैं और फिर कुछ संघर्षों के दौरान वे अप्रासंगिक हैं. तब आप उन्हें होने के मूल उद्देश्य को ही नकार रहे हैं जो कि युद्ध को रोकना था. यह एक वास्तविक चिंता है जो अक्सर मीडिया द्वारा अतिरंजित कर दी जाती है. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि चिंतित होने की कोई बात नहीं है.
इमरान खान की व्हाइट हाउस की यात्रा के पश्चात क्या पाकिस्तान से उत्पन्न होने वाला आतंकवाद अभी भी ट्रम्प के लिए दबाव बनाने के प्राथमिकता क्षेत्र है?
आतंकवाद बड़ी चिंता का विषय बना हुआ है. अमरिका पाकिस्तान पर बहुत दबाव डाल रहा है. मुख्य दबाव एफ़एटीएफ़ (फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स) द्वारा डाला गया है और वह ग्रे सूची से काली सूची में नहीं जाना चाहता है. पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था बहुत खराब स्थिति में है. इससे भी उनपर भारी दबाव पड़ता है. अमेरिका ने अवगत कराया है कि यदि कोई और बड़ी घटना होती है और ऐसा प्रतीत होता कि पाकिस्तान इसे रोकने की कोशिश नहीं कर रहा होता तो यह उसके लिए गंभीर परिणाम लेकर आएगा. दूसरी ओर आप पकिस्तान को जितना कम सहयोग करेंगे उस पर दबाव उतना कम बन पायेगा. उसका वैभव घटेगा. अनुच्छेद 370 और कश्मीर पर भारतीय कार्रवाई हालत को आसान नहीं बना रही है. क्योंकि पाकिस्तान के पास अब यह कहने के लिए एक तर्क है कि भारत सरकार कश्मीरी लोगों के साथ समस्याओं का समाधान कभी भी नहीं करने जा रही है और वह उन पर प्रतिबन्ध लगाकर और हिंसा का प्रयोग कर दमन कर रही है.
लेकिन धारा 370 पर भारतीय कार्रवाई निश्चित रूप से सीमा पार आतंकवाद को सही नहीं ठहरा सकती.
यह आतंकवाद को सही नहीं ठहराती, लेकिन पाकिस्तानी राज्य को यह कहने का मौक़ा देती है कि हम सब कुछ नियंत्रित नहीं कर रहे हैं क्योंकि देखो भारत में यह एक स्वदेशी विद्रोह है. भारतीय सरकार जब उसे नियंत्रित नहीं कर सकी, तो क्रूरता से मानव अधिकारों का हनन कर रही है जिसके कारण वहां के लोग नाराज़ हैं, इसलिए इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता है और इसको अनदेखा करने के बजाय और पाकिस्तान पर अधिक दबाव डालने के, 370 पर भारतीय सरकार द्वारा की गयी कार्रवाई पर अधिक प्रतिध्वनि है.
उत्तर कोरिया के चेयरमैन किम जोंग उन के साथ ट्रम्प की बातचीत और वार्ता के संबंध में बातें कहां तक पहुंची हैं?
मुझे लगता है कि यह अच्छा है कि राष्ट्रपति ट्रम्प ने चेयरमैन किम के साथ संपर्क साधा है. लेकिन समस्या यह है कि यदि आप उत्तर कोरियाई हैं तो ऐसा लगा कि यह केवल राष्ट्रपति ट्रम्प बात करने के लिए सक्षम हैं. स्टेट डिपार्टमेंट और अन्य जगहों के लोगों के साथ तकनीकी और विस्तृत बातचीत करने का कोई मतलब नहीं है क्योंकि आप वास्तव में राष्ट्रपति ट्रम्प को राजी करना चाहते हैं, जिन्हें वो विवरण के साथ-साथ स्टेट डिपार्टमेंट या सामान्य रूप से बातचीत करने का विशेष तरीका नहीं जानते हैं.
अमरिका ने विशेष दूत स्टीफन बेजगन को भेजने की कोशिश की थी जो एक बहुत ही बुद्धिमान दूत हैं और अपने समकक्षों के साथ बातचीत करने के लिए उचित व्यक्ति हैं. लेकिन उत्तर कोरियाई समकक्षों के पास बातचीत करने के लिए वास्तव में शक्ति नहीं है. वे चिंतित हैं कि अगर उन्होंने किसी तरह की रियायत दी, तो उन्हें गोली मार दी जाएगी या फिर बड़ी मुसीबत में पड़ जाएंगे. आपके आगे एक संरचनात्मक समस्या है जहां उत्तर कोरियाई केवल ट्रम्प से बात करना चाहते हैं और अमेरीकियों ने निष्कर्ष निकाला है कि सौदे को प्रगति करने के लिए केवल अध्यक्ष किम लचीले हो सकते हैं. इसलिए हम अभी एक तरह से फंस गए हैं.
चेयरमैन किम सहित उत्तर कोरियाई लोगों का कहना है कि वे तंग आ चुके हैं और क्रिसमस या नए साल के आसपास कुछ नाटकीय या उत्तेजक काम करेंगे. यह एक लंबी दूरी की मिसाइल का परीक्षण हो सकता है. उन्होंने जापान के ऊपर मिसाइलों के परीक्षण के बारे में बात की है. तो हमें देखना है कि वास्तव में होता क्या है. क्या यह रियायत पाने की कोशिश में निरा धमकी है या वास्तव में ऐसा कुछ होता है. ऐसा लगता है कि उत्तर कोरियाई चाहते हैं कि अमेरिका द्वारा प्रतिबंधों पर रियायत मिले ताकि उन्हें वित्तीय राहत या इनाम या प्रोत्साहन मिले, ताकि वास्तव में बातचीत शुरू हो सके या जैसा कि अमरिका कह रहा है कि आप इसे केवल वार्ता के अंत में प्राप्त करेंगे जबकि उत्तर कोरिया कह रहा है कि यदि हम इसे आगे बढ़ाना चाहते हैं तो यही वह जगह है जहाँ से बात शुरू होगी. हम इसी मुद्दे पर अटके हुए हैं.