हैदराबाद : किसानों को देश की राजधानी की घेराबंदी करते एक माह पूरा हो गया है. ये घेराबंदी तीन ऐसे केंद्रीय कृषि कानूनों के विरोध में की जा रही है, जिनके बारे में किसानों का आरोप है कि ये उनके हितों के खिलाफ हैं. उम्मीद की जा रही थी कि प्रधानमंत्री क्रिसमस के दिन अपने भाषण में ऐसे प्रस्ताव पेश करेंगे, जिनसे किसानों का आंदोलन खत्म हो जाएगा, पर ऐसी सारी उम्मीदें धराशायी हो गईं. प्रधानमंत्री ने इस अवसर को यह आरोप लगाने के लिए चुना कि उनकी सरकार की ओर से पेश किए गए नए कृषि कानूनों के बारे में अफवाहें फैलाई जा रही हैं.
केंद्र सरकार कह रही है कि वह इन कानूनों में संशोधन करने के लिए तैयार है, जबकि किसान इन कानूकों को रद्द करने से कम कोई बात मानने को तैयार नहीं हैं. केंद्र सरकार यह कह रही है कि इस बातचीत में समर्थन मूल्य के मुद्दे को घुसाना उचित नहीं होगा.
देश जब कोविड महामारी के चंगुल में फंसा था, तब केंद्र सरकार ने आत्मनिर्भार भारत पैकेज के हिस्से के रूप में इन कानूनों का प्रस्ताव रखा. राज्यों या किसान संगठनों से परामर्श किए बगैर सरकार ने पहले अध्यादेश जारी किए और फिर सदन में बगैर किसी बहस के तीनों विधेयकों की संसद की मंजूरी और राष्ट्रपति की सहमति ले ली.
डॉ. स्वामीनाथन ने अप्रैल माह में सुझाव दिया था कि कोविड महामारी जारी है. इसे देखते हुए सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए बाजार में हस्तक्षेप करना चाहिए कि किसानों को उनकी उपज का लाभकारी मूल्य मिले. पीएम किसान सम्मान निधि के तहत किसानों की सहायता राशि बढ़ाकर 15 हजार रुपये करने के अलावा उन्होंने फसल की कटाई की गतिविधियों को ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना के तहत लाने की मांग भी की थी.
किसान इस बात पर अफसोस कर रहे हैं कि केंद्र सरकार डॉ. स्वामीनाथन की सिफारिशों को लागू करके किसानों की सहायता करने के बजाय ऐसे कानून लाई, जो उनके जीवन और भविष्य को कॉरपोरेट निकायों के पास गिरवी रख देंगे. एनडीए सरकार को गतिरोध को जारी रखने और कानूनों को निरस्त करने की घोषणा को व्यक्तिगत प्रतिष्ठा के रूप में लेने के बजाय इस मुद्दे का समाधान निकालने के लिए विवेक से काम करना चाहिए.
देश साढ़े पांच दशक पहले जब भुखमरी की चपेट में था, तब न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था, कृषि मंडी प्रणाली और एफसीआई की खरीद ने हरित क्रांति को मजबूत करने में मदद की. न्यूनतम समर्थन मूल्य जब एक क्रूर मजाक बन गया, तब भी किसानों ने कभी विरोध या आंदोलन का रास्ता नहीं अपनाया. क्रूर मजाक इसलिए, क्योंकि पिछले 25 वर्षों में जिन तीन लाख किसानों ने आत्महत्या की, उसे यह न्यूनतम समर्थन मूल्य रोक नहीं सका.
किसानों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य क्यों जरूरी
यह समझने की बात है कि किसान समर्थन मूल्य के लिए कानून बनाने की मांग क्यों कर रहे हैं. आंदोलनकारी किसानों की ओर से यह आशंका जताई जा रही है कि कॉरपोरेट खेती का मार्ग प्रशस्त करने वाले नए कानून मंडी प्रणाली को पूरी तरह से खत्म कर देंगे और एफसीआई अनाज की खरीद से पीछे हट जाएगा. आशंका यह है कि इससे न्यूनतम समर्थन मूल्य की व्यवस्था पूरी तरह से समाप्त हो जाएगी.
नए कानूनों के प्रावधानों की वजह से यह आशंका और बढ़ गई है, क्योंकि ठेके पर खेती में जब भी कोई विवाद उत्पन्न होगा तो किसानों के पास अदालत में जाने का लोकतांत्रिक अधिकार देने से इनकार कर दिया गया है. कानून ने अनुबंध वाली खेती के मामलों ऐसे विवादों के निपटारे की शक्ति सरकार के अधिकारी वर्ग को दे दी है. न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए किसान समुदाय के कर्णभेदी क्रंदन के पीछे यही कारण है.
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मूल्य निर्धारण समिति ने यह भी सिफारिश की है कि यदि किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर अपनी उपज बेचने का अधिकार दिया जाता है तो वह आत्मविश्वास से भरा महसूस करेगा. वर्ष 2006 में डॉ. स्वामीनाथन आयोग ने समर्थन मूल्य किस तरह से तय किया जाए, इसका एक नियम तय किया था. वर्ष 2014 के चुनावों के दौरान भाजपा ने भरोसा दिया था कि वह आयोग की सिफारिशें लागू करने के लिए प्रतिबद्ध है, मगर इसने बाद में इस मामले को दबा दिया.
स्वामीनाथन आयोग ने कहा था कि किसी उत्पाद का निर्माता अपने पूंजी निवेश, उत्पादन लागत, कर्मचारियों के वेतन और अन्य लागत पर ब्याज को ध्यान में रखते हुए अपने उत्पाद की कीमत तय करता है. आयोग ने सुझाव दिया था कि इसी तरह से कृषि उत्पादन में जो औसत खर्च होता है, उसका 50 फीसदी कृषि उत्पाद के वास्तविक उत्पादन लागत में जोड़ा जाना चाहिए.
ऐसे समय में जब कृषि क्षेत्र संकट की स्थिति का सामना कर रहा है, किसानों को उचित समर्थन मूल्य और न्यूनतम समर्थन मूल्य की वैधता से वंचित कर दिया जाएगा तो वे खुद को कैसे बनाए रख सकते हैं? केंद्र को समझदारी से काम लेना चाहिए और प्रदर्शनकारी किसानों की तर्कसंगत मांगों पर उचित फैसला लेना चाहिए.