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राज्य सभा– संघीय भावना से पुनः प्रज्वलित हो उठी

राज्यसभा के सदस्य, एक बार निर्वाचित / मनोनीत किए जाते हैं जो अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए निरंतर पूरे कार्यकाल के लिए बिना किसी बाधा के बने रहते हैं. विश्व की सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान रचाते समय यही देश के महान दूरदर्शी डॉ बीआर आम्बेडकर ने कल्पना की थी. 1952 में राज्यसभा की पहली बैठक के दौरान, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने कहा था कि 'संसद केवल बिल और कानून पारित करने की जगह नहीं है, बल्कि देश के सभी नेताओं और प्रतिनिधियों के लिए एक आम और व्यवहार्य आधार पर चर्चा करने और एक सौहार्दपूर्ण स्थिति तक पहुँचने के लिए है.' पढे़ं इतिहास को संजोता एक आलेख...

राज्यसभा का 250वां सत्र
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Published : Nov 24, 2019, 1:38 PM IST

18 नवंबर, 2019 को संसद के ऊपरी सदन के इस वर्ष के शीतकालीन सत्र की शुरुआत हुई. इस साल की जो विशेषता है वो यह है कि यह राज्य सभा के सात दशकों में, जब से भारतीय गणराज्य की स्थापना हुई है, आयोजित होने वाला 250वां सत्र है.

भारत दुनिया की कुल आबादी का लगभग 1/7वां हिस्सा है और यहाँ के नागरिकों को राज्य सभा द्वारा लिए गए निर्णयों द्वारा निर्देशित और शासित किया जाता है. इस प्रकार देश में जीवन के सुचारू रूप से संचालन करने के लिए विभिन्न कानूनी दिशानिर्देशों को तैयार करने में यह भवन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

इस तथ्य के कारण कि संसद में लिया गया कोई भी निर्णय पूरे राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक स्थिति और उसकी प्रक्रियाओं का खाका तय करने वाला है, संविधान के निर्माताओं द्वारा दोनों सदनों के संचालन का बहुत स्पष्ट रूप से सीमांकन किया गया है - निचला और ऊपरी, अर्थात , लोक सभा और राज्यसभा. लोकसभा के सदस्य हर 5 साल में नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं और उन्हें कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही भंग होने का भी खतरा रहता है.

दूसरी ओर राज्यसभा के सदस्य, एक बार निर्वाचित / मनोनीत किए जाते हैं जो अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए निरंतर पूरे कार्यकाल के लिए बिना किसी बाधा के बने रहते हैं. विश्व की सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान रचाते समय यही देश के महान दूरदर्शी डॉ बीआर आम्बेडकर ने कल्पना की थी.

जब हम राज्यसभा के इतिहास में एक नज़र डालते हैं, तो मई, 1952 में राज्यसभा की पहली बैठक के दौरान, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने कहा था कि 'संसद केवल बिल और कानून पारित करने की जगह नहीं है, बल्कि देश के सभी नेताओं और प्रतिनिधियों के लिए एक आम और व्यवहार्य आधार पर चर्चा करने और एक सौहार्दपूर्ण स्थिति तक पहुँचने के लिए है.'

डॉ राधाकृष्णन ने आगे कहा कि भारत के नागरिकों के बीच एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण सहास्तित्व बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी है कि राज्यसभा के सभी सदस्य, चाहे वे सत्ता पक्ष से आते हो या या विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हों, को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए.

संसद के ऊपरी और निचली सदन राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, राज्य सभा को अपने नाम को लेकर काफ़ी आलोचना और प्रतिकूल टिप्पणी का सामना करना पड़ा था वर्ष 1954 में, इसे स्थापित करने के सिर्फ 2 साल और वर्ष 1973 में भी. दोनों घटनाओं में और कई अन्य वर्षों में 1971, 1972, 1975 और 1981 में भी, नाम पर आपत्ति प्रस्तावित की गई है, लेकिन हर बार लोकसभा द्वारा इनको स्थगित कर दिया गया.

इसे भी पढे़ं- ODF मिशन : क्या है सरकारी दावों की हकीकत, जानें विशेषज्ञ की राय

हालांकि अक्सर राज्यसभा और लोक सभा में आपसी मतभेद होते रहे हैं, बावजूद इसके दोनों सदनों ने सामंजस्य बनाए रखा और राष्ट्रीय विकास के चक्र को आगे बढ़ने के लिए एकजुट रहें हैं, इस प्रकार से राष्ट्र के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखा है. यह वह समय और स्थिति है जिसमें बिल / कानून पर कोई भी निर्णय, लोक सभा में पारित होने के बाद, राज्यसभा के सदस्यों के बीच सामंजस्यपूर्ण रूप से चर्चा करनी होगी, जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व करते हैं और देश के हित में एक सामान्य निर्णय लिया जायेगा.

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि यदि संसद की प्रतिष्ठा और सम्मान बरकरार नहीं रखी जाएगी, अंतिम परिणाम के तौर पर राष्ट्र के सर्वोच्च लोकतंत्र का पतन होगा. हालांकि, इन दिनों जिस तरह से संसद का संचालन किया जा रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि जिन सिद्धांतों पर संसद की स्थापना की गई थी, वे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिए गए हैं और अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं!

ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने उपरोक्त कथन को स्पष्ट किया, जैसे कि, एक सत्र के दौरान, चर्चा पूरी तरह हाथ से निकल गई थी और तत्कालीन राज्यसभा के अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा एक चर्चा के दौरान संसद के सदस्यों द्वारा किये गये हंगामें को नियंत्रित करने में असमर्थ हो गए थे और तमाशा देख उनकी आँखे भर आयीं थीं.

प्रणब मुखर्जी, पिछले साल ही भारत के राष्ट्रपति के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उन्होंने कहा है कि 1969 से, जब उन्होंने संसद में पहली बार कदम रखा था, तो वे भाग्यशाली रहे कि उन्हें प्रत्येक संसदीय सदस्यों से बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला, अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के लिए मशहूर पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी जी से वक्तृत्व कौशल, मधु लिमये और डॉ नथपाई से उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं, पीलूमोदी के हास्य गुण और इंद्रजीत गुप्ता से उनकी उल्लेखनीय प्रतिक्रियाएं और कई अन्य लोग जिनका भी उल्लेख किया जाना चाहिए.

वह संसद जो ऐसी महान और श्रद्धेय व्यक्तित्व की गवाह रही है उसे आज बेकार की होने वाली चर्चाओं के कारण बहुत आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. अधिकांश चर्चाएं गहरे राजनीतिक इरादों के साथ की जा रही हैं, जो हमेशा वास्तव में लक्षित सकारात्मक परिणाम नहीं देती हैं.

संसद को 3-डी फार्मूले पर चलने के लिए तैयार किया गया है जो डिबेट यानि बहस, डिसेंट यानि सभ्यता और डिसिशन यानि निर्णय लेने के लिए. मगर, वर्तमान में, एक चौथा डी भी खुदबखुद संलग्न हो गया है और परिणामस्वरूप घर की कार्यवाही में डिसरप्शन यानि व्यवधान उत्पन्न होता नज़र आने लगा है. इससे इन दिनों दोनों सदनों के संचालन में भारी असंतुलन पैदा हो रहा है.

पिछले सत्र में ऊपरी सदन 35 दिनों के लिए आयोजित किया गया था और सत्रों के दौरान 32 विधेयक पारित किए गए. पिछले अगस्त में वेंकैया नायडू के बयान के अनुसार, यह संसद के पिछले 17 वर्षों और 52 सत्रों का सबसे अच्छा प्रदर्शन था. राज्यसभा के सभापति, केआर नारायणन द्वारा दिए गए बयान पर यहां श्रद्धापूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए जो कहते हैं कि राज्यसभा नागरिकों के सर्वोच्च क्रम का प्रतिनिधित्व करती है और इस बात को बहुत एहमियत दी जानी चाहिये कि सदस्यों के बीच आत्म-अनुशासन स्थापित रहे और बिना किसी बाधा के इसका पालन किया जाए.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, देश की सरकार केवल लोकसभा के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह है, न कि राज्यसभा की कार्यवाही के लिए. हालांकि ऐसे उदाहरणों भी मौजूद हैं जहां सरकार राज्यसभा के लिए उत्तरदायी रही है, कार्यवाही जरूरी नहीं कि सरकार के अस्तित्व को प्रभावित करे.

इससे कभी-कभी दोनों सदनों के बीच मतभेद हो सकते हैं. ऐसे समय में, सदन में व्यवधान पैदा करने वाले सदस्य किसी भी विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं होने देते हैं और अड़चने पैदा करते हैं, जिससे राष्ट्र की नजर में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. किसी भी राजनैतिक दल के लिए जनता का सम्मान और विश्वास हासिल करना अत्यंत आवश्यक है तथा यह ज़रूरी है कि उसके सदस्य संसद के अंदर और बाहर हमेशा अपने पद की शोभा बनाए रखें.

दलों को हर कड़े तरीके अपनाकर इसे सुनिश्चित करने की जरूरत है. इसे अक्सर उपराष्ट्रपति द्वारा कई अवसरों पर दोहराया गया है. आचार संहिता जिसका पालन संसद के सदस्यों द्वारा किया जाता है, वह राज्यसभा द्वारा ही स्थापित की गयी है. यद्यपि सरकार का अस्तित्व लोक सभा में प्राप्त भरोसे पर आधारित है, लेकिन इंदिरा, देवेगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे कई दूरदर्शी नेताओं को राज्यसभा से ही चुना गया है, जिन्होंने देश को प्रधान मंत्री बनाकर नए आयाम तक पहुंचाया.

2005 के दौरान एक समय था जब संसद के कुछ सदस्यों ने भ्रष्टाचार का सहारा लेकर ये सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि इस तरह से एक सवाल उठाये जायें, जिससे संसद की कार्यवाही बाधित हो, ताकि प्रस्तावित बिल/कानून ये ध्यान हट जाये. लेकिन, दोनों सदनों ने इस पर बहुत शालीनता से कदम उठाया और उन सदस्यों को सदन की कार्यवाही से सफलतापूर्वक निलंबित कर दिया गया था. इसके अलावा, ऐसे मामलों में यह महत्वपूर्ण है कि हम भी ब्रिटेन में प्रचलित कार्यप्रणाली को अपनायें जिसमें अनुशासन प्रणाली को और मजबूती दी जा सके.

यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक दल केवल उन्हीं प्रतिनिधियों को उच्च सदन में नामांकित करें, जो राष्ट्रीय विकास के प्रस्ताव के साथ-साथ सदन में शांति और सद्भाव के मशाल वाहक के रूप में कार्य कर सकें. इसके अलावा, यह भी ज़रूरी है कि हर व्यक्ति आत्म-अनुशासन को बेहतर बनाये जिससे राज्यसभा का गौरव बढ़े जिसकी वह हक़दार है!!

जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने सदन के 250वें सत्र में कहा था -

'राज्यसभा शाश्वत है! वो तो सांसद हैं जो हमेशा अंदर और बाहर आते जाते रहेंगे!'

18 नवंबर, 2019 को संसद के ऊपरी सदन के इस वर्ष के शीतकालीन सत्र की शुरुआत हुई. इस साल की जो विशेषता है वो यह है कि यह राज्य सभा के सात दशकों में, जब से भारतीय गणराज्य की स्थापना हुई है, आयोजित होने वाला 250वां सत्र है.

भारत दुनिया की कुल आबादी का लगभग 1/7वां हिस्सा है और यहाँ के नागरिकों को राज्य सभा द्वारा लिए गए निर्णयों द्वारा निर्देशित और शासित किया जाता है. इस प्रकार देश में जीवन के सुचारू रूप से संचालन करने के लिए विभिन्न कानूनी दिशानिर्देशों को तैयार करने में यह भवन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

इस तथ्य के कारण कि संसद में लिया गया कोई भी निर्णय पूरे राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक स्थिति और उसकी प्रक्रियाओं का खाका तय करने वाला है, संविधान के निर्माताओं द्वारा दोनों सदनों के संचालन का बहुत स्पष्ट रूप से सीमांकन किया गया है - निचला और ऊपरी, अर्थात , लोक सभा और राज्यसभा. लोकसभा के सदस्य हर 5 साल में नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं और उन्हें कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही भंग होने का भी खतरा रहता है.

दूसरी ओर राज्यसभा के सदस्य, एक बार निर्वाचित / मनोनीत किए जाते हैं जो अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए निरंतर पूरे कार्यकाल के लिए बिना किसी बाधा के बने रहते हैं. विश्व की सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान रचाते समय यही देश के महान दूरदर्शी डॉ बीआर आम्बेडकर ने कल्पना की थी.

जब हम राज्यसभा के इतिहास में एक नज़र डालते हैं, तो मई, 1952 में राज्यसभा की पहली बैठक के दौरान, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने कहा था कि 'संसद केवल बिल और कानून पारित करने की जगह नहीं है, बल्कि देश के सभी नेताओं और प्रतिनिधियों के लिए एक आम और व्यवहार्य आधार पर चर्चा करने और एक सौहार्दपूर्ण स्थिति तक पहुँचने के लिए है.'

डॉ राधाकृष्णन ने आगे कहा कि भारत के नागरिकों के बीच एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण सहास्तित्व बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी है कि राज्यसभा के सभी सदस्य, चाहे वे सत्ता पक्ष से आते हो या या विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हों, को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए.

संसद के ऊपरी और निचली सदन राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, राज्य सभा को अपने नाम को लेकर काफ़ी आलोचना और प्रतिकूल टिप्पणी का सामना करना पड़ा था वर्ष 1954 में, इसे स्थापित करने के सिर्फ 2 साल और वर्ष 1973 में भी. दोनों घटनाओं में और कई अन्य वर्षों में 1971, 1972, 1975 और 1981 में भी, नाम पर आपत्ति प्रस्तावित की गई है, लेकिन हर बार लोकसभा द्वारा इनको स्थगित कर दिया गया.

इसे भी पढे़ं- ODF मिशन : क्या है सरकारी दावों की हकीकत, जानें विशेषज्ञ की राय

हालांकि अक्सर राज्यसभा और लोक सभा में आपसी मतभेद होते रहे हैं, बावजूद इसके दोनों सदनों ने सामंजस्य बनाए रखा और राष्ट्रीय विकास के चक्र को आगे बढ़ने के लिए एकजुट रहें हैं, इस प्रकार से राष्ट्र के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखा है. यह वह समय और स्थिति है जिसमें बिल / कानून पर कोई भी निर्णय, लोक सभा में पारित होने के बाद, राज्यसभा के सदस्यों के बीच सामंजस्यपूर्ण रूप से चर्चा करनी होगी, जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व करते हैं और देश के हित में एक सामान्य निर्णय लिया जायेगा.

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पं जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि यदि संसद की प्रतिष्ठा और सम्मान बरकरार नहीं रखी जाएगी, अंतिम परिणाम के तौर पर राष्ट्र के सर्वोच्च लोकतंत्र का पतन होगा. हालांकि, इन दिनों जिस तरह से संसद का संचालन किया जा रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि जिन सिद्धांतों पर संसद की स्थापना की गई थी, वे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिए गए हैं और अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं!

ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने उपरोक्त कथन को स्पष्ट किया, जैसे कि, एक सत्र के दौरान, चर्चा पूरी तरह हाथ से निकल गई थी और तत्कालीन राज्यसभा के अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा एक चर्चा के दौरान संसद के सदस्यों द्वारा किये गये हंगामें को नियंत्रित करने में असमर्थ हो गए थे और तमाशा देख उनकी आँखे भर आयीं थीं.

प्रणब मुखर्जी, पिछले साल ही भारत के राष्ट्रपति के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उन्होंने कहा है कि 1969 से, जब उन्होंने संसद में पहली बार कदम रखा था, तो वे भाग्यशाली रहे कि उन्हें प्रत्येक संसदीय सदस्यों से बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला, अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के लिए मशहूर पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी जी से वक्तृत्व कौशल, मधु लिमये और डॉ नथपाई से उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं, पीलूमोदी के हास्य गुण और इंद्रजीत गुप्ता से उनकी उल्लेखनीय प्रतिक्रियाएं और कई अन्य लोग जिनका भी उल्लेख किया जाना चाहिए.

वह संसद जो ऐसी महान और श्रद्धेय व्यक्तित्व की गवाह रही है उसे आज बेकार की होने वाली चर्चाओं के कारण बहुत आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. अधिकांश चर्चाएं गहरे राजनीतिक इरादों के साथ की जा रही हैं, जो हमेशा वास्तव में लक्षित सकारात्मक परिणाम नहीं देती हैं.

संसद को 3-डी फार्मूले पर चलने के लिए तैयार किया गया है जो डिबेट यानि बहस, डिसेंट यानि सभ्यता और डिसिशन यानि निर्णय लेने के लिए. मगर, वर्तमान में, एक चौथा डी भी खुदबखुद संलग्न हो गया है और परिणामस्वरूप घर की कार्यवाही में डिसरप्शन यानि व्यवधान उत्पन्न होता नज़र आने लगा है. इससे इन दिनों दोनों सदनों के संचालन में भारी असंतुलन पैदा हो रहा है.

पिछले सत्र में ऊपरी सदन 35 दिनों के लिए आयोजित किया गया था और सत्रों के दौरान 32 विधेयक पारित किए गए. पिछले अगस्त में वेंकैया नायडू के बयान के अनुसार, यह संसद के पिछले 17 वर्षों और 52 सत्रों का सबसे अच्छा प्रदर्शन था. राज्यसभा के सभापति, केआर नारायणन द्वारा दिए गए बयान पर यहां श्रद्धापूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए जो कहते हैं कि राज्यसभा नागरिकों के सर्वोच्च क्रम का प्रतिनिधित्व करती है और इस बात को बहुत एहमियत दी जानी चाहिये कि सदस्यों के बीच आत्म-अनुशासन स्थापित रहे और बिना किसी बाधा के इसका पालन किया जाए.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, देश की सरकार केवल लोकसभा के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह है, न कि राज्यसभा की कार्यवाही के लिए. हालांकि ऐसे उदाहरणों भी मौजूद हैं जहां सरकार राज्यसभा के लिए उत्तरदायी रही है, कार्यवाही जरूरी नहीं कि सरकार के अस्तित्व को प्रभावित करे.

इससे कभी-कभी दोनों सदनों के बीच मतभेद हो सकते हैं. ऐसे समय में, सदन में व्यवधान पैदा करने वाले सदस्य किसी भी विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं होने देते हैं और अड़चने पैदा करते हैं, जिससे राष्ट्र की नजर में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. किसी भी राजनैतिक दल के लिए जनता का सम्मान और विश्वास हासिल करना अत्यंत आवश्यक है तथा यह ज़रूरी है कि उसके सदस्य संसद के अंदर और बाहर हमेशा अपने पद की शोभा बनाए रखें.

दलों को हर कड़े तरीके अपनाकर इसे सुनिश्चित करने की जरूरत है. इसे अक्सर उपराष्ट्रपति द्वारा कई अवसरों पर दोहराया गया है. आचार संहिता जिसका पालन संसद के सदस्यों द्वारा किया जाता है, वह राज्यसभा द्वारा ही स्थापित की गयी है. यद्यपि सरकार का अस्तित्व लोक सभा में प्राप्त भरोसे पर आधारित है, लेकिन इंदिरा, देवेगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे कई दूरदर्शी नेताओं को राज्यसभा से ही चुना गया है, जिन्होंने देश को प्रधान मंत्री बनाकर नए आयाम तक पहुंचाया.

2005 के दौरान एक समय था जब संसद के कुछ सदस्यों ने भ्रष्टाचार का सहारा लेकर ये सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि इस तरह से एक सवाल उठाये जायें, जिससे संसद की कार्यवाही बाधित हो, ताकि प्रस्तावित बिल/कानून ये ध्यान हट जाये. लेकिन, दोनों सदनों ने इस पर बहुत शालीनता से कदम उठाया और उन सदस्यों को सदन की कार्यवाही से सफलतापूर्वक निलंबित कर दिया गया था. इसके अलावा, ऐसे मामलों में यह महत्वपूर्ण है कि हम भी ब्रिटेन में प्रचलित कार्यप्रणाली को अपनायें जिसमें अनुशासन प्रणाली को और मजबूती दी जा सके.

यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक दल केवल उन्हीं प्रतिनिधियों को उच्च सदन में नामांकित करें, जो राष्ट्रीय विकास के प्रस्ताव के साथ-साथ सदन में शांति और सद्भाव के मशाल वाहक के रूप में कार्य कर सकें. इसके अलावा, यह भी ज़रूरी है कि हर व्यक्ति आत्म-अनुशासन को बेहतर बनाये जिससे राज्यसभा का गौरव बढ़े जिसकी वह हक़दार है!!

जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने सदन के 250वें सत्र में कहा था -

'राज्यसभा शाश्वत है! वो तो सांसद हैं जो हमेशा अंदर और बाहर आते जाते रहेंगे!'

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राज्य सभा – संघीय भावना से पुनः प्रज्वलित हो उठी!!!!



18 नवंबर, 2019 को, संसद के ऊपरी सदन के इस वर्ष के शीतकालीन सत्र की शुरुआत हुई. इस साल की जो ख़ासियत है वो यह है कि यह राज्य सभा के 7 दशकों में, जब से भारतीय गणराज्य की स्थापना हुई है, आयोजित होने वाला 250वां सत्र है. 

भारत दुनिया की कुल आबादी का लगभग 1/7वां हिस्सा है और यहाँ के नागरिकों को राज्य सभा द्वारा लिए गए निर्णयों द्वारा निर्देशित और शासित किया जाता है. इस प्रकार देश में जीवन के सुचारू रूप से संचालन करने के लिए विभिन्न कानूनी दिशानिर्देशों को तैयार करने में यह भवन एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है.

इस तथ्य के कारण कि संसद में लिया गया कोई भी निर्णय पूरे राष्ट्र की सामाजिक, आर्थिक स्थिति और उसकी प्रक्रियाओं का खाका तय करने वाला है, संविधान के निर्माताओं द्वारा दोनों सदनों के संचालन का बहुत स्पष्ट रूप से सीमांकन किया गया है - निचला और ऊपरी, अर्थात , लोक सभा और राज्यसभा. लोकसभा के सदस्य हर 5 साल में नागरिकों द्वारा चुने जाते हैं और उन्हें कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही भंग होने का भी खतरा रहता है.

दूसरी ओर राज्यसभा के सदस्य, एक बार निर्वाचित / मनोनीत किए जाते हैं जो अपने राज्य का प्रतिनिधित्व करने के लिए निरंतर पूरे कार्यकाल के लिए बिना किसी बाधा के बने रहते हैं. विश्व की सबसे बड़े लोकतंत्र के संविधान रचाते समय यही देश के महान दूरदर्शी डॉ बीआर आम्बेडकर ने कल्पना की थी.

जब हम राज्यसभा के इतिहास में एक नज़र डालते हैं, तो मई, 1952 में राज्यसभा की पहली बैठक के दौरान, भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधा कृष्णन ने कहा था कि 'संसद केवल बिल और कानून पारित करने की जगह नहीं है, बल्कि देश के सभी नेताओं और प्रतिनिधियों के लिए एक आम और व्यवहार्य आधार पर चर्चा करने और एक सौहार्दपूर्ण स्थिति तक पहुँचने के लिए है.'

डॉ राधाकृष्णन ने आगे कहा कि भारत के नागरिकों के बीच एक शांतिपूर्ण और सौहार्दपूर्ण सहास्तित्व बनाये रखने के लिए यह ज़रूरी है कि राज्यसभा के सभी सदस्य, चाहे वे सत्ता पक्ष से आते हो या या विपक्ष का प्रतिनिधित्व करते हों, को कंधे से कंधा मिलाकर काम करना चाहिए. 

संसद के ऊपरी और निचली सदन राष्ट्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. हालांकि, राज्य सभा को अपने नाम को लेकर काफ़ी आलोचना और प्रतिकूल टिप्पणी का सामना करना पड़ा था वर्ष 1954 में, इसे स्थापित करने के सिर्फ 2 साल और वर्ष 1973 में भी. दोनों घटनाओं में और कई अन्य वर्षों में 1971, 1972, 1975 और 1981 में भी, नाम पर आपत्ति प्रस्तावित की गई है, लेकिन हर बार लोक सभा द्वारा इनको स्थगित कर दिया गया.



हालांकि अक्सर राज्यसभा और लोक सभा में आपसी मतभेद होते रहे हैं,  बावजूद इसके दोनों सदनों ने सामंजस्य बनाए रखा और राष्ट्रीय विकास के चक्र को आगे बढ़ने के लिए एकजुट रहें हैं, इस प्रकार से राष्ट्र के लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखा है. यह वह समय और स्थिति है जिसमें बिल / कानून पर कोई भी निर्णय, लोक सभा में पारित होने के बाद, राज्यसभा के सदस्यों के बीच सामंजस्यपूर्ण रूप से चर्चा करनी होगी, जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व करते हैं और देश के हित में एक सामान्य निर्णय लिया जायेगा.

भारत के पूर्व प्रधानमंत्री, पं जवाहरलाल नेहरू ने एक बार कहा था कि यदि संसद की प्रतिष्ठा और सम्मान बरकरार नहीं रखी जाएगी, अंतिम परिणाम के तौर पर राष्ट्र के सर्वोच्च लोकतंत्र का पतन होगा. हालांकि, इन दिनों जिस तरह से संसद का संचालन किया जा रहा है, उससे यह स्पष्ट है कि जिन सिद्धांतों पर संसद की स्थापना की गई थी, वे पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिए गए हैं और अपने हाल पर छोड़ दिए गए हैं!!! 

ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्होंने उपरोक्त कथन को स्पष्ट किया, जैसे कि, एक सत्र के दौरान, चर्चा पूरी तरह हाथ से निकल गई थी और तत्कालीन राज्यसभा के अध्यक्ष शंकर दयाल शर्मा एक चर्चा के दौरान संसद के सदस्यों द्वारा किये गये हंगामें को नियंत्रित करने में असमर्थ हो गए थे और तमाशा देख उनकी आँखे भर आयीं थीं.

प्रणब मुखर्जी, पिछले साल ही भारत के राष्ट्रपति के पद से सेवानिवृत्त हुए हैं. उन्होंने कहा है कि 1969 से, जब उन्होंने संसद में पहली बार कदम रखा था, तो वे भाग्यशाली रहे कि उन्हें प्रत्येक संसदीय सदस्यों से बहुत कुछ सीखने का मौक़ा मिला, अपने ज्ञान और बुद्धिमत्ता के लिए मशहूर पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी जी से वक्तृत्व कौशल, मधु लिमये और डॉ नथपाई से उनके व्यक्तित्व की विशेषताएं, पीलूमोदी के हास्य गुण और इंद्रजीत गुप्ता से उनकी उल्लेखनीय प्रतिक्रियाएं और कई अन्य लोग जिनका भी उल्लेख किया जाना चाहिए. 

वह संसद जो ऐसी महान और श्रद्धेय व्यक्तित्व की गवाह रही है उसे आज बेकार की होने वाली चर्चाओं के कारण बहुत आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है. अधिकांश चर्चाएं गहरे राजनीतिक इरादों के साथ की जा रही हैं, जो हमेशा वास्तव में लक्षित सकारात्मक परिणाम नहीं देती हैं. 

संसद को 3-डी फार्मूले पर चलने के लिए तैयार किया गया है जो डिबेट यानि बहस, डिसेंट यानि सभ्यता और डिसिशन यानि निर्णय लेने के लिए. मगर, वर्तमान में, एक चौथा डी भी खुदबखुद संलग्न हो गया है और परिणामस्वरूप घर की कार्यवाही में डिसरप्शन यानि व्यवधान उत्पन्न होता नज़र आने लगा है. इससे इन दिनों दोनों सदनों के संचालन में भारी असंतुलन पैदा हो रहा है.



पिछले सत्र में ऊपरी सदन 35 दिनों के लिए आयोजित किया गया था और सत्रों के दौरान 32 विधेयक पारित किए गए. पिछले अगस्त में वेंकैया नायडू के बयान के अनुसार, यह संसद के पिछले 17 वर्षों और 52 सत्रों का सबसे अच्छा प्रदर्शन था. राज्यसभा के सभापति, केआर नारायणन द्वारा दिए गए बयान पर यहां श्रद्धापूर्वक ध्यान दिया जाना चाहिए जो कहते हैं कि राज्यसभा नागरिकों के सर्वोच्च क्रम का प्रतिनिधित्व करती है और इस बात को बहुत एह्मीयत दी जानी चाहिये कि सदस्यों के बीच आत्म-अनुशासन स्थापित रहे और बिना किसी बाधा के इसका पालन किया जाए.

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 75 (3) के अनुसार, देश की सरकार केवल लोक सभा के प्रति जिम्मेदार और जवाबदेह है, न कि राज्यसभा की कार्यवाही के लिए. हालांकि ऐसे उदाहरणों भी मौजूद हैं जहां सरकार राज्यसभा के लिए उत्तरदायी रही है, कार्यवाही जरूरी नहीं कि सरकार के अस्तित्व को प्रभावित करे. 

इससे कभी-कभी दोनों सदनों के बीच मतभेद हो सकते हैं. ऐसे समय में, सदन में व्यवधान पैदा करने वाले सदस्य किसी भी विधेयक पर कोई कार्रवाई नहीं होने देते हैं और अड़चने पैदा करते हैं, जिससे राष्ट्र की नजर में नकारात्मक प्रभाव पड़ता है. किसी भी राजनैतिक दल के लिए जनता का सम्मान और विश्वास हासिल करना अत्यंत आवश्यक है तथा यह ज़रूरी है कि उसके सदस्य संसद के अंदर और बाहर हमेशा अपने पद की शोभा बनाए रखें. 

दलों को हर कड़े तरीके अपनाकर इसे सुनिश्चित करने की जरूरत है. इसे अक्सर उपराष्ट्रपति द्वारा कई अवसरों पर दोहराया गया है. आचार संहिता जिसका पालन संसद के सदस्यों द्वारा किया जाता है, वह राज्यसभा द्वारा ही स्थापित की गयी है. यद्यपि सरकार का अस्तित्व लोक सभा में प्राप्त भरोसे पर आधारित है, लेकिन इंदिरा, देवेगौड़ा, गुजराल और मनमोहन सिंह जैसे कई दूरदर्शी नेताओं को राज्यसभा से ही चुना गया है, जिन्होंने देश को प्रधान मंत्री बनाकर नए आयाम तक पहुंचाया.

2005 के दौरान एक समय था जब संसद के कुछ सदस्यों ने भ्रष्टाचार का सहारा लेकर ये सुनिश्चित करने की कोशिश की थी कि इस तरह से एक सवाल उठाये जायें, जिससे संसद की कार्यवाही बाधित हो, ताकि प्रस्तावित बिल / कानून ये ध्यान हट जाये. लेकिन, दोनों सदनों ने इस पर बहुत शालीनता से क़दम उठाया और उन सदस्यों को सदन की कार्यवाही से सफलतापूर्वक निलंबित कर दिया गया था. इसके अलावा, ऐसे मामलों में यह महत्वपूर्ण है कि हम भी ब्रिटेन में प्रचलित कार्यप्रणाली को अपनायें जिसमें अनुशासन प्रणाली को और मजबूती दी जा सके.

यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि राजनैतिक दल केवल उन्हीं प्रतिनिधियों को उच्च सदन में नामांकित करें, जो राष्ट्रीय विकास के प्रस्ताव के साथ-साथ सदन में शांति और सद्भाव के मशाल वाहक के रूप में कार्य कर सकें. इसके अलावा, यह भी ज़रूरी है कि हर व्यक्ति आत्म-अनुशासन को बेहतर बनाये जिससे राज्यसभा का गौरव बढ़े जिसकी वह हक़दार है!!

जैसा कि प्रधानमंत्री मोदी ने सदन के 250वें सत्र में कहा था -

'राज्यसभा शाश्वत है! वो तो सांसद हैं जो हमेशा अंदर और बाहर आते जाते रहेंगे!'


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