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विशेष लेख : सीएए के खिलाफ महिलाओं ने उठाई आवाज, क्या हैं इसके मायने - reasoning behind women protest

11 दिसंबर, 2019 को संसद से पारित होने के बाद से ही देशभर में नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) का विरोध हो रहा है. सीएए तीन देशों के गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता हासिल करना आसान बनाता है. हमारी आबादी के एक खास वर्ग के द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है. जानें महिलाओं द्वारा सीएए के खिलाफ आवाज उठाए जाने के क्या हैं मायने...

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सीएए के खिलाफ महिलाओं ने उठाई आवाज
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Published : Jan 20, 2020, 10:28 PM IST

Updated : Feb 17, 2020, 7:20 PM IST

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध जारी है. 11 दिसंबर 2019 को संसद ने इसे पारित किया था. हमारी आबादी के एक खास वर्ग के द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है. दरअसल, सीएए में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी (अल्पसंख्यक) समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है. वैसे लोग जो धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं और वे 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ चुके हैं, उन्हें ही इस कानून के तहत नागरिकता दी जाएगी.

सीएए इन तीन देशों के गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता हासिल करना आसान बनाता है. इसने मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने पर चुप्पी बनाए रखी है. चूंकि मुस्लिम अप्रवासी सीएए के भीतर जगह नहीं पाते, इसलिए कई लोग अधिनियम की संवैधानिक वैधता और अधिनियम पारित करने में सत्तारूढ़ शासन की मंशा पर सवाल उठाते हुए विरोध कर रहे हैं.

अधिनियम के खिलाफ विरोध ज्यादातर अनुमानित भय के आधार पर हैं. वे लोग एनआरसी का भी विरोध कर रहे हैं. उनकी दलील है कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) अंततः मुस्लिम समुदाय को उनकी नागरिकता से वंचित करेगा. हालांकि, भारतीय नागरिकों पर सीएए की कोई भूमिका नहीं है.

एक महीने से अधिक समय से (अधिनियम संसद द्वारा पारित किए जाने के बाद से) अधिनियम के खिलाफ विभिन्न रूपों और तीव्रता में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. विरोध के अंतिम उद्देश्य पर कोई एक राय कायम नहीं है. असम से नई दिल्ली और छात्रों से कुछ सामाजिक वर्गों तक उनकी सोच अलग-अलग है. इस बीच दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के विरोध ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है.

कुछ लोगों ने इसे सत्याग्रह का नाम दे दिया है. पिछले एक महीने से विरोध जारी है. विरोध प्रदर्शन में महिलाएं बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं. शाहीन बाग मजबूत विरोध का संदर्भ बिंदु बन गया है. संभवतः इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाकर ही यहां नेताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया. कांग्रेस के शशि थरूर भी यहां आए. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने विरोध प्रदर्शन को संबोधित किया. मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता भी पहुंचे.

रिपोर्टों से पता चलता है कि दिल्ली पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को शांत करने के प्रयास विफल हो गए हैं क्योंकि महिलाओं ने यहां से हटने से इनकार कर दिया है जबकि विपक्ष प्रदर्शनकारियों के साथ अपनी एकजुटता दिखा रहा है. सत्तारूढ़ भाजपा इसे राजनीतिक विरोधियों द्वारा एक संगठित कदम की तरह मानती है और प्रदर्शनकारियों पर भुगतान करने का आरोप लगाती है. इसके ठीक विपरीत प्रतिभागियों द्वारा इसे एक सहज आंदोलन के रूप में दावा किया गया है.

महिलाओं के बीच एक महीने से अधिक लंबे संघर्ष का अविश्वसनीय समन्वय कुछ प्रासंगिक सवाल उठाता है. यह सवाल इस बात से है कि क्या यह स्वतःस्फूर्त है या विरोध में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी का कारण है. पहले सवाल का जवाब सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का तर्क है.

सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का पहला कारण भावनात्मक हो सकता है. महिलाओं और बच्चों के साथ अन्य लोग एक महीने से अधिक समय तक विरोध करते दिखाई देते हैं, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. और यह एक बड़ी वजह है कि विरोध को सामाजिक वैधता का कवच भी मिल गया है.

अतीत में दुनिया ने कई मुद्दों पर महिलाओं के नेतृत्व में विरोध भी देखा है. अमेरिका में 1970 -80 के दशक में द इक्वल राइट्स अमेंडमेंट मार्चेज का आयोजन किया गया था. उन्होंने समान अधिकारों की मांग को लेकर विरोध किया था. वाशिंगटन में ही मिलियन मॉम मार्च का आयोजन 2000 में किया गया था. उनकी मुख्य मांग बंदूक नियंत्रण नियम को कड़ा बनाने को लेकर था.

भारत में मणिपुरी महिलाओं के विरोध का राज्य और समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ा है. चूंकि महिलाएं शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे हैं, इसलिए एजेंसियों के लिए उन्हें हटाना मुश्किल हो गया है.

शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी के पीछे एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ बड़ा राजनीतिक इंजीनियरिंग भी हो सकता है. लोकप्रिय धारणा के अनुसार, भाजपा और भारत के मुसलमान एक-दूसरे के विरोधी हैं. ऐसे परिदृश्य में जहां राजनीति को चुनावी लाभ और हानि के साथ जोड़कर देखा जाता है, भाजपा के लिए मुसलमानों का समर्थन महत्वपूर्ण है.

माना जाता है कि ट्रिपल तलाक बिल और फिर उसके कानून बनने के बाद से भाजपा ने मुस्लिम समुदाय में पैठ बनानी शुरू कर दी. भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए काम करने वाली पार्टी के रूप में अपने को चित्रित करना शुरू कर दिया. हो सकता है विपक्षी दल इसे ध्यान में रखते हुए राजनीति कर रहे हों. प्रयागराज में भी महिलाओं ने इस तरह का विरोध प्रदर्शन किया. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो विरोध आयोजित दिखता है, स्वतः स्फूर्त नहीं.

हालांकि, संगठित या अन्यथा महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी नीति निर्माताओं और समाज के लिए महत्वपूर्ण संदेश भी भेजती है. यह आवश्यक रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने वाली महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है. खासकर वैसे कारण, जो उन्हें अपने जीवन के लिए महत्वपूर्ण लगते हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे सरकार इस अधिनियम को लेकर आगे बढ़ रही है, लगातार विरोध की वजह से नीतियों के प्रतिरोध और सामाजिक संबंधों पर गहरा प्रभाव जरूर पड़ेगा.

(लेखक - डॉ अंशुमन बहेरा, प्रोफेसर, एनआईएएस, बेंगलुरु)

नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध जारी है. 11 दिसंबर 2019 को संसद ने इसे पारित किया था. हमारी आबादी के एक खास वर्ग के द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है. दरअसल, सीएए में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिन्दू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी (अल्पसंख्यक) समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है. वैसे लोग जो धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं और वे 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ चुके हैं, उन्हें ही इस कानून के तहत नागरिकता दी जाएगी.

सीएए इन तीन देशों के गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता हासिल करना आसान बनाता है. इसने मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने पर चुप्पी बनाए रखी है. चूंकि मुस्लिम अप्रवासी सीएए के भीतर जगह नहीं पाते, इसलिए कई लोग अधिनियम की संवैधानिक वैधता और अधिनियम पारित करने में सत्तारूढ़ शासन की मंशा पर सवाल उठाते हुए विरोध कर रहे हैं.

अधिनियम के खिलाफ विरोध ज्यादातर अनुमानित भय के आधार पर हैं. वे लोग एनआरसी का भी विरोध कर रहे हैं. उनकी दलील है कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) अंततः मुस्लिम समुदाय को उनकी नागरिकता से वंचित करेगा. हालांकि, भारतीय नागरिकों पर सीएए की कोई भूमिका नहीं है.

एक महीने से अधिक समय से (अधिनियम संसद द्वारा पारित किए जाने के बाद से) अधिनियम के खिलाफ विभिन्न रूपों और तीव्रता में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. विरोध के अंतिम उद्देश्य पर कोई एक राय कायम नहीं है. असम से नई दिल्ली और छात्रों से कुछ सामाजिक वर्गों तक उनकी सोच अलग-अलग है. इस बीच दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के विरोध ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है.

कुछ लोगों ने इसे सत्याग्रह का नाम दे दिया है. पिछले एक महीने से विरोध जारी है. विरोध प्रदर्शन में महिलाएं बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं. शाहीन बाग मजबूत विरोध का संदर्भ बिंदु बन गया है. संभवतः इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाकर ही यहां नेताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया. कांग्रेस के शशि थरूर भी यहां आए. आम आदमी पार्टी के कई नेताओं ने विरोध प्रदर्शन को संबोधित किया. मेधा पाटकर जैसे सामाजिक कार्यकर्ता भी पहुंचे.

रिपोर्टों से पता चलता है कि दिल्ली पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को शांत करने के प्रयास विफल हो गए हैं क्योंकि महिलाओं ने यहां से हटने से इनकार कर दिया है जबकि विपक्ष प्रदर्शनकारियों के साथ अपनी एकजुटता दिखा रहा है. सत्तारूढ़ भाजपा इसे राजनीतिक विरोधियों द्वारा एक संगठित कदम की तरह मानती है और प्रदर्शनकारियों पर भुगतान करने का आरोप लगाती है. इसके ठीक विपरीत प्रतिभागियों द्वारा इसे एक सहज आंदोलन के रूप में दावा किया गया है.

महिलाओं के बीच एक महीने से अधिक लंबे संघर्ष का अविश्वसनीय समन्वय कुछ प्रासंगिक सवाल उठाता है. यह सवाल इस बात से है कि क्या यह स्वतःस्फूर्त है या विरोध में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी का कारण है. पहले सवाल का जवाब सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का तर्क है.

सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का पहला कारण भावनात्मक हो सकता है. महिलाओं और बच्चों के साथ अन्य लोग एक महीने से अधिक समय तक विरोध करते दिखाई देते हैं, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता. और यह एक बड़ी वजह है कि विरोध को सामाजिक वैधता का कवच भी मिल गया है.

अतीत में दुनिया ने कई मुद्दों पर महिलाओं के नेतृत्व में विरोध भी देखा है. अमेरिका में 1970 -80 के दशक में द इक्वल राइट्स अमेंडमेंट मार्चेज का आयोजन किया गया था. उन्होंने समान अधिकारों की मांग को लेकर विरोध किया था. वाशिंगटन में ही मिलियन मॉम मार्च का आयोजन 2000 में किया गया था. उनकी मुख्य मांग बंदूक नियंत्रण नियम को कड़ा बनाने को लेकर था.

भारत में मणिपुरी महिलाओं के विरोध का राज्य और समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ा है. चूंकि महिलाएं शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे हैं, इसलिए एजेंसियों के लिए उन्हें हटाना मुश्किल हो गया है.

शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी के पीछे एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ बड़ा राजनीतिक इंजीनियरिंग भी हो सकता है. लोकप्रिय धारणा के अनुसार, भाजपा और भारत के मुसलमान एक-दूसरे के विरोधी हैं. ऐसे परिदृश्य में जहां राजनीति को चुनावी लाभ और हानि के साथ जोड़कर देखा जाता है, भाजपा के लिए मुसलमानों का समर्थन महत्वपूर्ण है.

माना जाता है कि ट्रिपल तलाक बिल और फिर उसके कानून बनने के बाद से भाजपा ने मुस्लिम समुदाय में पैठ बनानी शुरू कर दी. भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए काम करने वाली पार्टी के रूप में अपने को चित्रित करना शुरू कर दिया. हो सकता है विपक्षी दल इसे ध्यान में रखते हुए राजनीति कर रहे हों. प्रयागराज में भी महिलाओं ने इस तरह का विरोध प्रदर्शन किया. इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो विरोध आयोजित दिखता है, स्वतः स्फूर्त नहीं.

हालांकि, संगठित या अन्यथा महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी नीति निर्माताओं और समाज के लिए महत्वपूर्ण संदेश भी भेजती है. यह आवश्यक रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने वाली महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है. खासकर वैसे कारण, जो उन्हें अपने जीवन के लिए महत्वपूर्ण लगते हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे सरकार इस अधिनियम को लेकर आगे बढ़ रही है, लगातार विरोध की वजह से नीतियों के प्रतिरोध और सामाजिक संबंधों पर गहरा प्रभाव जरूर पड़ेगा.

(लेखक - डॉ अंशुमन बहेरा, प्रोफेसर, एनआईएएस, बेंगलुरु)

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विशेष लेख : सीएए के खिलाफ महिलाओं ने उठाई आवाज, क्या हैं इसके मायने 





नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ विरोध जारी है. 11 दिसंबर 2019 को संसद ने इसे पारित किया था. हमारी आबादी के एक खास वर्ग के द्वारा इसका विरोध किया जा रहा है. दरअसल, सीएए में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, ईसाई और पारसी (अल्पसंख्यक) समुदाय के लोगों को नागरिकता देने का प्रावधान है. वैसे लोग जो धार्मिक रूप से प्रताड़ित हैं और वे 31 दिसंबर 2014 तक भारत आ चुके हैं, उन्हें ही इस कानून के तहत नागरिकता दी जाएगी. 

सीएए इन तीन देशों के गैर-मुस्लिम प्रवासियों के लिए नागरिकता हासिल करना आसान बनाता है. इसने मुस्लिम प्रवासियों को नागरिकता देने पर चुप्पी बनाए रखी है. चूंकि मुस्लिम अप्रवासी सीएए के भीतर एक जगह नहीं पाते हैं, कई लोग अधिनियम को संवैधानिक वैधता और अधिनियम पारित करने में सत्तारूढ़ शासन की मंशा पर सवाल उठाते हुए विरोध कर रहे हैं.

अधिनियम के खिलाफ विरोध ज्यादातर अनुमानित भय के आधार पर हैं. वे एनआरसी का भी विरोध कर रहे हैं. उनकी दलील है कि नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटिजन्स (एनआरसी) अंततः मुस्लिम समुदाय को उनकी नागरिकता से वंचित करेगा. हालांकि, भारतीय नागरिकों पर सीएए की कोई भूमिका नहीं है. 

एक महीने से अधिक समय से, अधिनियम संसद द्वारा पारित किए जाने के बाद से, अधिनियम के खिलाफ विभिन्न रूपों और तीव्रता में विरोध प्रदर्शन हो रहे हैं. विरोध के अंतिम उद्देश्य पर कोई एक राय कायम नहीं है. असम से नई दिल्ली और छात्रों से कुछ सामाजिक वर्गों तक उनकी सोच अलग-अलग है. इस बीच दिल्ली के शाहीन बाग में महिलाओं के विरोध ने सभी का ध्यान आकर्षित किया है.

कुछ लोगों ने इसे सत्याग्रह का नाम दे दिया है. पिछले एक महीने से विरोध जारी है. विरोध प्रदर्शन में महिलाएं बढ़-चढ़ कर भाग ले रही हैं. शाहीन बाग विरोध मजबूत विरोध का संदर्भ बिंदु बन गया है. संभवतः इसकी लोकप्रियता का अंदाजा लगाकर ही यहां नेताओं के आने का सिलसिला शुरू हो गया. कांग्रेस के शशि थरूर भी यहां आए. आप के कई नेताओं ने विरोध प्रदर्शन को संबोधित किया. मेधा पाटकर जैसी सामाजिक कार्यकर्ता भी पहुंचे. 

रिपोर्टों से पता चलता है कि दिल्ली पुलिस द्वारा प्रदर्शनकारियों को शांत करने के प्रयास विफल हो गए हैं, क्योंकि महिलाओं ने यहां से हटने से इनकार कर दिया है. जबकि विपक्ष प्रदर्शनकारियों के साथ अपनी एकजुटता दिखा रहा है. सत्तारूढ़ भाजपा इसे राजनीतिक विरोधियों द्वारा एक संगठित कदम की तरह मानती है और प्रदर्शनकारियों पर भुगतान करने का आरोप लगाती है. इसके ठीक विपरीत प्रतिभागियों द्वारा इसे एक सहज आंदोलन के रूप में दावा किया गया है. 

महिलाओं के बीच एक महीने से अधिक की लंबी संघर्ष की अविश्वसनीय समन्वय कुछ प्रासंगिक सवाल उठाती है. ये सवाल इस बात से हैं कि क्या यह स्वतःस्फूर्त है या विरोध में बड़े पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी का कारण है. पहले सवाल का जवाब सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का तर्क है.

सीएए के खिलाफ महिलाओं की भागीदारी का पहला कारण भावनात्मक हो सकता है. महिलाओं और बच्चों के साथ अन्य लोग एक महीने से अधिक समय तक विरोध करते दिखाई देते हैं, तो इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है. और यह एक बड़ी वजह है कि विरोध को सामाजिक वैधता  का कवच भी मिल गया है. 

अतीत में दुनिया ने कई मुद्दों पर महिलाओं के नेतृत्व में विरोध भी देखा है. अमेरिका में 1970 -80 के दशक में द इक्वल राइट्स अमेंडमेंट मार्चेज का आयोजन किया गया था. उन्होंने समान अधिकारों की मांग को लेकर विरोध किया था. वाशिंगटन में ही मिलियन मॉम मार्च का आयोजन 2000 में किया गया था. उनकी मुख्य मांग बंदूक नियंत्रण नियम को कड़ा बनाने को लेकर था. 

भारत में मणिपुरी महिलाओं के विरोध का राज्य और समाज पर गंभीर प्रभाव पड़ा है. चूंकि महिलाएं शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में सबसे आगे हैं, इसलिए एजेंसियों के लिए उन्हें हटाना मुश्किल हो गया है. 

शाहीन बाग में विरोध प्रदर्शन में महिलाओं की भागीदारी के पीछे एक दूसरा महत्वपूर्ण कारण सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के खिलाफ बड़ा राजनीतिक इंजीनियरिंग भी हो सकता है. लोकप्रिय धारणा के अनुसार, भाजपा और भारत के मुसलमान एक-दूसरे के विरोधी हैं. ऐसे परिदृश्य में जहां राजनीति को चुनावी लाभ और हानि के साथ जोड़कर देखा जाता है, भाजपा के लिए मुसलमानों का समर्थन महत्वपूर्ण है. 

माना जाता है कि ट्रिपल तलाक बिल और फिर उसके कानून बनने के बाद से भाजपा ने मुस्लिम समुदाय में पैठ बनानी शुरू कर दी. भाजपा ने मुस्लिम महिलाओं की भलाई के लिए काम करने वाली पार्टी के रूप में अपने को चित्रित करना शुरू कर दिया. हो सकता है विपक्षी दल इसे ध्यान में रखते हुए राजनीति कर रहा हो. प्रयागराज में भी महिलाओं ने इस तरह का विरोध प्रदर्शन किया. इस परिप्रेक्ष्य में देखें, तो विरोध आयोजित दिखता है, स्वतः स्फूर्त नहीं. 

हालांकि, संगठित या अन्यथा महिलाओं की बड़े पैमाने पर भागीदारी नीति निर्माताओं और समाज के लिए महत्वपूर्ण संदेश भी भेजती है. यह आवश्यक रूप से निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय रूप से भाग लेने वाली महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका को उजागर करता है. खासकर वैसे कारण जो उन्हें अपने जीवन के लिए महत्वपूर्ण लगता है. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जैसे-जैसे सरकार इस अधिनियम को लेकर आगे बढ़ रही है, लगातार विरोध की वजह से नीतियों के प्रतिरोध और सामाजिक संबंधों पर गहरा प्रभाव जरूर पड़ेगा. 

(लेखक - डॉ अंशुमन बहेरा (प्रोफेसर, एनआईएएस, बेंगलुरु)


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Last Updated : Feb 17, 2020, 7:20 PM IST
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