आज डाक्टर(चिकिस्तक) को पुनः भगवान के सामान माना जाने लगा है. अन्य सेवा भावी पुलिस यानी सामाजिक स्तर पर सेवा भावी को आदर सम्मान दें. सामाजिक सुरक्षा बनाये रखने वालों का आदर करें . नसीहतें और नियमों की बौछार. ऊपर से घर के अंदर बंद रहने की पुकार. बच्चों की पढ़ाई ऑनलाइन. जीविका हेतु वस्तुएँ उपलब्ध. किन्तु साफ सफाई कर कोरोना हटाएँ. सब कुछ यथावत चल रहा है. फिर भी कोरोना अपना साम्राज्य विस्तारित कर रहा है, क्यों? सोचिये जानिए-पहचानिए. क्या क्या बदला है और क्या नहीं बदला है. एक वायरस जो हमारी सारी चेतना, बुद्धि एवं प्रज्ञा से भारी हो गया. हम अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगे. हमें कोई नहीं हरा सकता है. इस घमंड से भर उठे. प्रकृति को विजित करने के झूठे अहं से फूल उठे. अब क्या? झेलिये इसे.
अभी पृथ्वी एक बार फिर करवट बदल रही है. पृथ्वी जब बोझ से बेचैन होती है और करवट बदलना चाहती है तो दुनिया को हिला देती है जहाँ मनुष्य अधिक बलवान दिखने की कोशिश करता है वहाँ यह उसे कँपकपा देती है. अपने दुःख की दीवारें चौड़ाकर (भूकंप) में ढेरों लील जाती है. या सुनामी में सब कुछ बहाती हुई स्वयं को हल्का करती है. कभी कभार मनुष्य की भौतिकता से तंग आकर फ्लू या इन्फ्लुएंजा के भयानक स्वरुप आपके बीच परोस दी है. इतिहास के पन्ने पलटे तो प्लेग के विनाश की कहानी भी हम पढ़ पाते हैं. और न जाने कितने लय और क्षय वहाँ मौजूद है. इस बार आप कोरोना आया चिल्लाते रहिये. चीन लाया रटते रहिये और खोते रहिये अपनों को. हज़ारों लाखों की ओर सरसा सा बढ़ते रहिये . उपाय रुपी हनुमान का अबतक पता नहीं. बंदरों सा उसका कूद और प्रयासरत मानव-समाज.
इस सन्दर्भ में प्राचीन भारतीय संस्कृति कई उदहारण प्रस्तुत कर चुकी है. जब देवगण दानवों के अत्याचार से त्राहि त्राहि करने लगे. अपनी करारी हार का विकल्प ढूंढने लगे. उस समय उनकी प्रज्ञा पूर्ण मस्तिष्क मंथन से युक्ति निकली. सभी देवगण को अपनी शक्ति एकत्रित कर करनी पड़ी. फिर माँ दुर्गा को आकृति देने की प्रक्रिया संपन्न हुई. अकेली माँ दुर्गा राक्षसों का नाश करने लगी. इसी बीच उनका सामना रक्तबीज यानी बीजासुर से हुआ. जिसके खून की जितनी बूंद धरती पर गिरती इसके गिरते ही उतने रक्तबीज पैदा होने लगे. कोई अन्य उपाय न देख माँ दुर्गा ने अपने को विभक्त कर कालिका का निर्माण करते हुए हाथ में खड्ग और खप्पर धारित स्वरूप लिया. यह पूर्ण काली माँ युक्त यानी अन्धकार के प्रतीक सहित आवाहन किया. रक्तबीज संहार हेतु कालिका खड्ग से काटते हुए खप्पर में खून एकत्रित कर पीने लगीं. इस प्रकार रक्तबीज का नाश हुआ. आप सोच कर देखें रक्तबीज भी एक भयानक वायरस ही तो था. मिथक में वह राक्षस था क्योंकि उस काल खंड में वस्तु भविष्य को स्पष्ट करने की यही विधि रही थी.
हमारी भारतीय संस्कृति अति महनीय रही है. जब सारा विश्व आदि जीवन के बीच जी रहा था. हम एक सभ्य एवं सुसंस्कृत जीवन विधि निर्मित कर इसे जी रहे थे. हमारा ज्ञान-विज्ञान अति उन्नत था. हम बिमारियों की पहचान और उसके रोकथाम में सक्षम थे. हमने अपनी संस्कृति के आचरण में कई नियम मानव समुदाय हेतु प्रविष्ट कर रखे थे. स्वच्छता, सफाई, सादा जीवन, संतोष, धन एवं दीर्घायु होना हमारे मनुष्य जीवन के सिद्धांत थे. कहीं जाकर आप वापस आए तो हाथ-पैर धोकर घर में प्रवेश करें. शौच जाएँ तभी स्नान करें. अक्सर ही लोग मुख पर तौलिया/गमछा या साड़ी से ढके रखना भी स्वास्थ्य का ही एक नियम हो सकता है. अपने समय में यात्रा करते हुए लोहों ने हमेशा दूरी भी बनाये रखी है. हम भौतिकता एवं आधुनिकता के शिकार होकर सब कुछ भूल गए.
सूर्योदय से पहले उठना उगते सूर्य की आरोग्य रश्मि का सेवन करना. सूर्य को अर्घ्य देना आदि हमारे जीवन के नियमन रहे. सदा से सूर्य हमारे जाग्रत एवं संचालन के रूप में प्रत्यक्ष देवता रहे हैं. जिससे धरती पर जीवन संचार होता है. बीज से वृक्ष बनने की क्रिया भी तो सूर्य की रश्मि से ही फलित होता है पानी से बादल बनना भी तपते सूर्य पूरा करते हैं. इस प्रकार हम भारतवासी स्वास्थ्यवर्द्धक एवं संतुलित जीवन नियमों के अधिष्ठाता एवं समाहारी रहे हैं. सायंकाल तक कार्य व्यवहार से निवृत हो अंधकार में ईश्वर की वंदना प्रार्थना के साथ नींद को प्रक्षय देकर अपनी थकान और श्रमक्लांत जीवन में विश्राम के माध्यम से पुनर्शक्ति संचयन की प्रथा भी अपना रहे हैं. इस प्रकार प्रतिदिन सूर्य के साथ उल्लास, उमंग एवं आरोग्य का हम बंटवारा करते हैं. आज कहां गयी वह जीवन शैली. हमारे तुलसी, सूर, कबीर, गीता, रामायण सभी इसी बात के पोषक हैं. भारतीय जीवन शैली एवं मान्यताएं हीं हमें विश्व में शिरस्थ करते रहे हैं. आज हमें यह सब कितना याद हैं? सोचें.
यह सब धीरे धीरे पीछे छूटता जा रहा है. पाश्चात्य का विकराल मोह हमें आच्छन्न कर चुका है. ज्ञान विज्ञान की नयी चकाचौंध में हम नए अविष्कारों एवं प्राप्ति सुख की प्रतियोगिता और पाने की होड़ में अपना सब कुछ खोकर अंधत्व की दौड़ में शामिल हो गए हैं. स्वाभाविक हैं उनके दृष्टिकोण सा हम भी सोचने लगे हैं कि मानव सबसे अधिक शक्तिशाली है. उसे कोई नहीं हरा सकता. नदी, पहाड़, समुद्र, हवा सभी पर अंतरावश्य मनुष्य का बर्चस्व स्थापित हो गया है. शीघ्र ही जीवन मरण भी इसकी मुट्ठी में बंद होगा. नहीं यह अर्ध सत्य है.
देखिए ईश्वर का करिश्मा. एक पाठ-कोरोना. मनुष्य कितना विवश है. लाखों लीलता जा रहा है. आप अवश बैठे हैं. हाँ एक बार और आप खाली हाथ और खाली पेट हैं. सहयोग हेतु सक्षमता को पुकारें हल्ला मत मचाइए. इससे विनाश को निमंत्रण देना होगा. भागा भागी से कोरोना को मत दें. भूख सबसे बड़ी है किन्तु जीवन के आगे वह न्यून है. इसे याद करते हुए निदान ढूंढे. छुपाने की वृत्ति आपके साथ औरों को परेशानी में डालेगी. सहयोग करने वालों का सम्मान करें. आपको चुपचाप बैठनी ही है. भीड़ से स्वयं एवं समुदाय को बचानी है. तो मानिये उस परम सत्ता को. अपनाइये अपनी क्षमता के अनुसार इससे बचने के उपाय. रहिये संभल कर घरों के अंदर. मत लगाइये भीड़. मत बढ़ाइए देश के दिल दिमाग का बुखार. सहयोग, श्रद्धा और संयम बरतिए और दूसरों को भी प्रेरित कीजिए. सही जानकारी दीजिये और लीजिये. बस अब कर्त्तव्य करने की बारी है. इसे निभाएं. मानवता बचाएं.
(लेखिका- डॉ. अहिल्या मिश्र)