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'प्रजातंत्र का नगीना है देश का संविधान'

संविधान किसी भी देश के लिये उसके बुनियादी ढांचे जैसा है. किसी भी जनतंत्र में, लोगों की भागीदारी, राज करने वाले नोताओं, अधिकारियों आदि की लोगों के प्रति जवाबदेही बहुत जरूरी हो जाती है. संविधान इन्हीं सब पहलुओं को ठहराव देने का काम करता है. संवैधानिक अखंडता किसी भी जनतंत्र के लिये सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. पढ़ें संविधान दिवस पर विशेष लेख....

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Published : Nov 27, 2019, 1:37 PM IST

आम धारणा है कि मनुष्य धरती के और जीवों की तुलना में ज्यादा समझदारी और समन्वय से रहता है, जहां तक मुमकिन हो, वह अपने सह-जीवों को नुकसान नही पहुंचाता है, लेकिन मौजूदा समय में खत्म होते संसाधनों, जनसंख्या विस्फोट और जरूरतों ने इंसान को ज्यादा स्वार्थी बना दिया है. नतीजा है झगड़े और फसाद. इस तरह की अराजकता को खत्म करने और सामाजिक क्षेत्र में समन्वय लाने के लिये नियम कायदों का एक दायरा रचा जाता है, और इसे हम संविधान के नाम से जानते हैं.

आज के युग का इंसान न केवल एक सामाजिक जीव है, बल्कि वो राजनीति से भी बहुत प्रभावित रहता है. एक निश्चित इलाके में समाज की तरह रहने के लिये मनुष्य ने एक सिस्टम बनाया और उसे स्टेट का नाम दिया गया है.

इस स्टेट को सही तरह से चलाने के लिये सरकार बनाई गई. संवैधानिक, आधिकारिक, न्यायिक, नागरिकों के अधिकार और जिम्मेदारियां आदि, ये सभी बातें संविधान में साफतौर पर अंकित हैं. ये किसी भी देश के लिये सबसे बड़ा कानून है. संविधान, राज करने वालों और जिनपर राज किया जा रहै है, उनके बीच पुल का काम करता है.

संविधान किसी भी देश के लिये उसके बुनियादी ढांचे जैसा है. किसी भी जनतंत्र में, लोगों की भागीदारी, राज करने वाले नोताओं, अधिकारियों आदि की लोगों के प्रति जवाबदेही बहुत जरूरी हो जाती है. संविधान इन्हीं सब पहलुओं को ठहराव देने का काम करता है. संवैधानिक अखंडता किसी भी जनतंत्र के लिये सबसे महत्वपूर्ण पहलू है.

मुख्य बिंदु
जनतंत्र में, नागरिक ही राजा और प्रजा होते हैं. ऐसे में संविधान सरकार को दायरे में रखने के लिये जरूरी हो जाता है. संविधान निम्नलिखित पांच मकसदों को पूरा करने के लिये कारगर हो जाता है.
सरकार की ताकतों को सीमित करना

  • आम नागरिकों को सत्ता के दुरुपयोग से बचाना
  • आने वाली पीढ़ियों में बदलावों को काबू में करना
  • समाज के कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण करना
  • समाज से भेदभाव हटाकर बराबरी के समाज का निर्माण करना

संविधान में इन मकसदों को हासिल करने के लिये कुछ बचाव के तरीकों को पहले से ही रखा गया है, ये हैं:

भारत का संविधान नागरिकों के मौलिक अधिकार और नागिरक आजादी की रक्षा करता है और सरकार की ताकतों पर नजर रखता है. डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट (डीपीएसपी) सरकार को सामाजिक और आर्थिक समन्वय बनाने के लिये निर्देश देते हैं. संविधान में दिये गये धार्मिक आजादी से अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा प्रदान की गई है. धर्मनिर्पेक्षता सरकार को धार्मिक मामलों में दखल देने से रोकती है. संविधान का अनुच्छेद 17, सदियों से चली आ रही छुआछूत की प्रथा पर रोक लगाता है. इन सब प्रावधानों के साथ संविधान में आजाद न्यायपालिका के गठन का भी प्रावधान है.

अर्द्ध संघीय ढांचा
भारत के संविधान को कई बातों में अमेरिका के संविधान ने प्रेरित किया है, लेकिन हमारे संविधान के निर्माताओं ने अर्द्ध संघीय ढांचे का पक्ष लिया. इसके पीछे भारतीय उपमहाद्वीप में अपागम का कई तरह की धार्मिक लकीरों पर होना और पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ गुटों में अलगाव की प्रवृत्ति कारण रहा. अर्द्ध संघीय सरकार के ढांचे में केंद्र में मजबूत सरकार सभी राज्यों की सरकारों के साथ मिलकर संघीय वातावरण में काम करती हैं.

संसदीय सरकार
हमारे संविधान निर्माताओं ने बारीकी से राष्ट्रपति और संसदीय सरकार के ढांचे का अध्ययन करने के बाद भारत के लिये संसदीय ढांचे को चुना. देश के अलग अलग हिस्सों में ताकतों और जिम्मदेरियों का बंटवारे होने से संसदीय ढांचा सत्ता के केंद्रीयकरण के खतरे से बचता है. राष्ट्रपति प्रधान ढांचे में खड़ा रहता है. संसदीय सरकार का ढांचा अधिनायकवादी प्रणाली का बेहतर विकल्प है और जरूरत पड़ने पर कानूनी तरह से सरकारों के बदलाव का भी रास्ता साफ करता है.
क्या महत्वाकांक्षाऐं पूरी हुई हैं

क्या संविधान ने पिछले 70 सालों में भारत के आम नागरिक की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफलता पाई है? इसका जवाब हां और ना, दोनों है. द्वितीय विश्व युद्द के बाद आजाद होने वाले कई देश गणतंत्र से अधिनायकवाद के ढांचे में बदल गये हैं. युगोस्लाविया, सोवियत रूस और सूडान जैसे देशो में बंटवारा हो गया है. इतने सालों से भारत के जनतंत्र की स्थिरता और इसके प्रादेशिक अखंडता के बने रहने के पीछे संविधान में मौजूद नियम कायदे हैं. भारत ने दुनिया के देशों के बीच अपने लिये एक सम्मानजनक स्थान बनाया है, लेकिन ये भी सच्चाई है कि अभी भी देश के आम नागरिक का जीवन आरामदायक नहीं है. प्रादेशिक, भाषा आधारित फर्क का बढ़ना, राजनीति का अपराधिकरण, नैतिक मूल्यों का पतन, ये सभी कारण इस बात को सोचने पर मजबूर करते हैं कि, क्या ये महात्मा गांधी के सपनों का भारत है? इन हालातों के लिये हम सभी जिम्मदार हैं. हम सब अपनी-अपनी जिम्मेदारियां निभाने में कामयाब नहीं हुए हैं. हम सब पर राष्ट्रीय एकता, समानता और विकास बरकरार रखने की जिम्मेदारी है.

आम धारणा है कि मनुष्य धरती के और जीवों की तुलना में ज्यादा समझदारी और समन्वय से रहता है, जहां तक मुमकिन हो, वह अपने सह-जीवों को नुकसान नही पहुंचाता है, लेकिन मौजूदा समय में खत्म होते संसाधनों, जनसंख्या विस्फोट और जरूरतों ने इंसान को ज्यादा स्वार्थी बना दिया है. नतीजा है झगड़े और फसाद. इस तरह की अराजकता को खत्म करने और सामाजिक क्षेत्र में समन्वय लाने के लिये नियम कायदों का एक दायरा रचा जाता है, और इसे हम संविधान के नाम से जानते हैं.

आज के युग का इंसान न केवल एक सामाजिक जीव है, बल्कि वो राजनीति से भी बहुत प्रभावित रहता है. एक निश्चित इलाके में समाज की तरह रहने के लिये मनुष्य ने एक सिस्टम बनाया और उसे स्टेट का नाम दिया गया है.

इस स्टेट को सही तरह से चलाने के लिये सरकार बनाई गई. संवैधानिक, आधिकारिक, न्यायिक, नागरिकों के अधिकार और जिम्मेदारियां आदि, ये सभी बातें संविधान में साफतौर पर अंकित हैं. ये किसी भी देश के लिये सबसे बड़ा कानून है. संविधान, राज करने वालों और जिनपर राज किया जा रहै है, उनके बीच पुल का काम करता है.

संविधान किसी भी देश के लिये उसके बुनियादी ढांचे जैसा है. किसी भी जनतंत्र में, लोगों की भागीदारी, राज करने वाले नोताओं, अधिकारियों आदि की लोगों के प्रति जवाबदेही बहुत जरूरी हो जाती है. संविधान इन्हीं सब पहलुओं को ठहराव देने का काम करता है. संवैधानिक अखंडता किसी भी जनतंत्र के लिये सबसे महत्वपूर्ण पहलू है.

मुख्य बिंदु
जनतंत्र में, नागरिक ही राजा और प्रजा होते हैं. ऐसे में संविधान सरकार को दायरे में रखने के लिये जरूरी हो जाता है. संविधान निम्नलिखित पांच मकसदों को पूरा करने के लिये कारगर हो जाता है.
सरकार की ताकतों को सीमित करना

  • आम नागरिकों को सत्ता के दुरुपयोग से बचाना
  • आने वाली पीढ़ियों में बदलावों को काबू में करना
  • समाज के कमजोर वर्गों का सशक्तिकरण करना
  • समाज से भेदभाव हटाकर बराबरी के समाज का निर्माण करना

संविधान में इन मकसदों को हासिल करने के लिये कुछ बचाव के तरीकों को पहले से ही रखा गया है, ये हैं:

भारत का संविधान नागरिकों के मौलिक अधिकार और नागिरक आजादी की रक्षा करता है और सरकार की ताकतों पर नजर रखता है. डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट (डीपीएसपी) सरकार को सामाजिक और आर्थिक समन्वय बनाने के लिये निर्देश देते हैं. संविधान में दिये गये धार्मिक आजादी से अल्पसंख्यक समुदायों को सुरक्षा प्रदान की गई है. धर्मनिर्पेक्षता सरकार को धार्मिक मामलों में दखल देने से रोकती है. संविधान का अनुच्छेद 17, सदियों से चली आ रही छुआछूत की प्रथा पर रोक लगाता है. इन सब प्रावधानों के साथ संविधान में आजाद न्यायपालिका के गठन का भी प्रावधान है.

अर्द्ध संघीय ढांचा
भारत के संविधान को कई बातों में अमेरिका के संविधान ने प्रेरित किया है, लेकिन हमारे संविधान के निर्माताओं ने अर्द्ध संघीय ढांचे का पक्ष लिया. इसके पीछे भारतीय उपमहाद्वीप में अपागम का कई तरह की धार्मिक लकीरों पर होना और पूर्वोत्तर के राज्यों में कुछ गुटों में अलगाव की प्रवृत्ति कारण रहा. अर्द्ध संघीय सरकार के ढांचे में केंद्र में मजबूत सरकार सभी राज्यों की सरकारों के साथ मिलकर संघीय वातावरण में काम करती हैं.

संसदीय सरकार
हमारे संविधान निर्माताओं ने बारीकी से राष्ट्रपति और संसदीय सरकार के ढांचे का अध्ययन करने के बाद भारत के लिये संसदीय ढांचे को चुना. देश के अलग अलग हिस्सों में ताकतों और जिम्मदेरियों का बंटवारे होने से संसदीय ढांचा सत्ता के केंद्रीयकरण के खतरे से बचता है. राष्ट्रपति प्रधान ढांचे में खड़ा रहता है. संसदीय सरकार का ढांचा अधिनायकवादी प्रणाली का बेहतर विकल्प है और जरूरत पड़ने पर कानूनी तरह से सरकारों के बदलाव का भी रास्ता साफ करता है.
क्या महत्वाकांक्षाऐं पूरी हुई हैं

क्या संविधान ने पिछले 70 सालों में भारत के आम नागरिक की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने में सफलता पाई है? इसका जवाब हां और ना, दोनों है. द्वितीय विश्व युद्द के बाद आजाद होने वाले कई देश गणतंत्र से अधिनायकवाद के ढांचे में बदल गये हैं. युगोस्लाविया, सोवियत रूस और सूडान जैसे देशो में बंटवारा हो गया है. इतने सालों से भारत के जनतंत्र की स्थिरता और इसके प्रादेशिक अखंडता के बने रहने के पीछे संविधान में मौजूद नियम कायदे हैं. भारत ने दुनिया के देशों के बीच अपने लिये एक सम्मानजनक स्थान बनाया है, लेकिन ये भी सच्चाई है कि अभी भी देश के आम नागरिक का जीवन आरामदायक नहीं है. प्रादेशिक, भाषा आधारित फर्क का बढ़ना, राजनीति का अपराधिकरण, नैतिक मूल्यों का पतन, ये सभी कारण इस बात को सोचने पर मजबूर करते हैं कि, क्या ये महात्मा गांधी के सपनों का भारत है? इन हालातों के लिये हम सभी जिम्मदार हैं. हम सब अपनी-अपनी जिम्मेदारियां निभाने में कामयाब नहीं हुए हैं. हम सब पर राष्ट्रीय एकता, समानता और विकास बरकरार रखने की जिम्मेदारी है.

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