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विशेष लेख : गांधी के अनुसार हाशिए पर लोगों से संवाद कायम करना होगा - महात्मा गांधी का विचार

उन्नत शिक्षा के हमारे सभी संस्थान देश की अधिकतर जनता को उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर साथ लाने में नाकामयाब हुए हैं. इन मुद्दों में पर्यावरण में बदलाव से लेकर स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और जीएम बीज जैसे विषय शामिल हैं. यह किसने तय किया है कि हाशिए पर मौजूद लोगों के पास विदेश नीति या रक्षा मसलों या अर्थशास्त्र पर अधिक जानकारी नहीं होनी चाहिए? यह आश्चर्यचकित करता है कि देश के संभ्रांत लोग अपने को कितना महत्व देते हैं और हाशिए पर मौजूद लोगों को कितना नजर से दूर रखते हैं. उदय बालाकृष्णन का विशेष आलेख...

communicate with the marginalized people of society
महात्मा गांधी
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Published : Jan 29, 2020, 11:52 PM IST

Updated : Feb 28, 2020, 11:27 AM IST

1927 में महात्मा गांधी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएस) में भाषण देते हुए कहा था कि, संस्थान के अध्यापकों को उन लोगों का ध्यान रखना चाहिए, जिनके कारण वो सभी हैं. गांधी जी ने कहा कि अगर हम उन्हें मिलते हैं और बताते हैं कि हम उनके पैसों से ऐसी सड़कों और इमारतों का निर्माण कर रहे हैं, जो उनके किसी काम नहीं आएगी, बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के काम आयेगी तो वो इस बात को समझ नहीं सकेंगे. वो इसे नहीं मानेंगे. लेकिन हम उन्हें कभी भरोसे में नहीं लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि 'बिना नुमाइंदगी के, कर न देने' का सिद्धांत उन पर भी लागू होता है.'

दशकों पहले गांधी जी द्वारा बोली गई इस बात के इतने समय बाद भी हम ऐसे संस्थान बनाने में नाकामयाब रहे हैं, जो अमीरों, गरीबों और हाशिए पर मौजूद समाज के वर्गों को साथ लेकर ऐसी नीतियां बनाने पर काम करें, जो सभी के लिये फायदेमंद हो. इस बारे में समाज के संभ्रांत तबके द्वारा हमेशा निर्णय सुनाए जाते हैं, कभी भी संवाद को जगह नहीं मिलती है.

हाल के सालों में देश के अलग-अलग शहरों में, दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय केंद्रों की स्थापना हो रही है. शहरों के बीचों-बीच बने यह केंद्र, एक विशेष वर्ग के लोगों के लिए बनाया जाता है. इनमें से कोई भी अमरीका के स्मिथस्नोनियन संग्रहालय के 'अमरीकी लोगों के हितों और हिस्सेदारी के लिये काम करने' जैसे सिद्धांत पर काम नहीं करता है.

उन्नत शिक्षा के हमारे सभी संस्थान देश की अधिकतर जनता को उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर साथ लाने में नाकामयाब हुए हैं. इन मुद्दों में, पर्यावरण में बदलाव से लेकर स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और जीएम बीज जैसे विषय शामिल हैं. यह किसने तय किया है कि हाशिए पर मौजूद लोगों के पास विदेश नीति या रक्षा मसलों या अर्थशास्त्र पर अधिक जानकारी नहीं होनी चाहिए? यह आश्चर्यचकित करता है कि देश के संभ्रांत लोग अपने को कितना महत्व देते हैं और हाशिए पर मौजूद लोगों को कितना नजर से दूर रखते हैं.

यह अधिक है कि देश के सभी वर्ग के लोग, खासतौर पर हाशिए पर मौजूद लोगों को नीतिकार, अधिकारी और बौद्धिक वर्ग बिना किसी रोक-टोक के सुने और फैसलों में शामिल करें. इसके लिए महात्मा गांधी के सेवाग्राम और साबरमती आश्रमों ने अपने समय में जो समतावाद को बढ़ाने के बारे में काम किया था. उसी तर्ज पर आज के संस्थानों का पुनर्निर्माण करने की जरूरत है.

संभ्रांत वर्ग द्वारा आपस में ही बातचीत कर लेना, उनके पक्ष पर घमंड को दर्शाता है. महात्मा गांधी ने भी 1927 में आईआईएस में अपने भाषण में कहा था, 'मैं सड़क पर चल रहे आम आदमी से कहीं अधिक उम्मीद आप लोगों से रखता हूँ. अब तक आपने जो कुछ किया है उस से संतुष्ट न हों और यह न कहें कि हम जो कर सकते थे कर लिया, अब टेनिस या बिल्यर्ड खेलते हैं.'

(विशेष लेख- उदय बालाकृष्णन)

1927 में महात्मा गांधी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएस) में भाषण देते हुए कहा था कि, संस्थान के अध्यापकों को उन लोगों का ध्यान रखना चाहिए, जिनके कारण वो सभी हैं. गांधी जी ने कहा कि अगर हम उन्हें मिलते हैं और बताते हैं कि हम उनके पैसों से ऐसी सड़कों और इमारतों का निर्माण कर रहे हैं, जो उनके किसी काम नहीं आएगी, बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के काम आयेगी तो वो इस बात को समझ नहीं सकेंगे. वो इसे नहीं मानेंगे. लेकिन हम उन्हें कभी भरोसे में नहीं लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि 'बिना नुमाइंदगी के, कर न देने' का सिद्धांत उन पर भी लागू होता है.'

दशकों पहले गांधी जी द्वारा बोली गई इस बात के इतने समय बाद भी हम ऐसे संस्थान बनाने में नाकामयाब रहे हैं, जो अमीरों, गरीबों और हाशिए पर मौजूद समाज के वर्गों को साथ लेकर ऐसी नीतियां बनाने पर काम करें, जो सभी के लिये फायदेमंद हो. इस बारे में समाज के संभ्रांत तबके द्वारा हमेशा निर्णय सुनाए जाते हैं, कभी भी संवाद को जगह नहीं मिलती है.

हाल के सालों में देश के अलग-अलग शहरों में, दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की तर्ज पर अंतरराष्ट्रीय केंद्रों की स्थापना हो रही है. शहरों के बीचों-बीच बने यह केंद्र, एक विशेष वर्ग के लोगों के लिए बनाया जाता है. इनमें से कोई भी अमरीका के स्मिथस्नोनियन संग्रहालय के 'अमरीकी लोगों के हितों और हिस्सेदारी के लिये काम करने' जैसे सिद्धांत पर काम नहीं करता है.

उन्नत शिक्षा के हमारे सभी संस्थान देश की अधिकतर जनता को उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर साथ लाने में नाकामयाब हुए हैं. इन मुद्दों में, पर्यावरण में बदलाव से लेकर स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा और जीएम बीज जैसे विषय शामिल हैं. यह किसने तय किया है कि हाशिए पर मौजूद लोगों के पास विदेश नीति या रक्षा मसलों या अर्थशास्त्र पर अधिक जानकारी नहीं होनी चाहिए? यह आश्चर्यचकित करता है कि देश के संभ्रांत लोग अपने को कितना महत्व देते हैं और हाशिए पर मौजूद लोगों को कितना नजर से दूर रखते हैं.

यह अधिक है कि देश के सभी वर्ग के लोग, खासतौर पर हाशिए पर मौजूद लोगों को नीतिकार, अधिकारी और बौद्धिक वर्ग बिना किसी रोक-टोक के सुने और फैसलों में शामिल करें. इसके लिए महात्मा गांधी के सेवाग्राम और साबरमती आश्रमों ने अपने समय में जो समतावाद को बढ़ाने के बारे में काम किया था. उसी तर्ज पर आज के संस्थानों का पुनर्निर्माण करने की जरूरत है.

संभ्रांत वर्ग द्वारा आपस में ही बातचीत कर लेना, उनके पक्ष पर घमंड को दर्शाता है. महात्मा गांधी ने भी 1927 में आईआईएस में अपने भाषण में कहा था, 'मैं सड़क पर चल रहे आम आदमी से कहीं अधिक उम्मीद आप लोगों से रखता हूँ. अब तक आपने जो कुछ किया है उस से संतुष्ट न हों और यह न कहें कि हम जो कर सकते थे कर लिया, अब टेनिस या बिल्यर्ड खेलते हैं.'

(विशेष लेख- उदय बालाकृष्णन)

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हाशिये पर मौजूद लोगों से संवाद करना



                             उदय बालाकृष्णन             



1927 में महात्मा गांधी ने इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस (आईआईएस) में भाषण देते हुए कहा था कि, संस्थान के अध्यापकों को उन लोगों का ध्यान रखना चाहिये जिनके कारण वो सभी हैं। गांधी जी ने कहा कि, “अगर हम उन्हें मिलते हैं और बताते हैं कि हम उनके पैसों से ऐसी सड़कों और इमारतों का निर्माण कर रहे हैं जो उनके किसी काम नहीं आयेगी बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों के काम आयेगी तो वो इस बात को समझ नहीं सकेंगे। वो इसे नहीं मानेंगे। लेकिन, हम उन्हें कभी भरोसे में नहीं लेते हैं और यह भूल जाते हैं कि “बिना नुमाइंदिगी के, कर न देने” का सिद्धांत उन पर भी लागू होता है।" 



दशकों पहले गांधी जी द्वारा बोली गई इस बात के इतने समय बाद भी हम ऐसे संस्थान बनाने में नाकामयाब रहे हैं जो अमीरों, ग़रीबों और हाशिये पर मौजूद समाज के वर्गों को साथ लेकर ऐसी नीतियाँ बनाने पर काम करें जो सभी के लिये फ़ायदेमंद हो। इस बारे में समाज के संभ्रांत तपके द्वारा हमेशा फ़ैसले सुनाये जाते हैं, कभी भी संवाद को जगह नहीं मिलती है।   



 हाल के सालो में, देश के अलग अलग शहरों में, दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की तर्ज़ पर अंतर्राष्ट्रीय केंद्रों की स्थापना हो रही है। शहरों के बीचोंबीच बीच बने यह केंद्र,  एक ख़ास वर्ग के लोगों के लिए बनाये जाते हैं। इनमें से कोई भी अमरीका के स्मिथस्नोनियन  के 'अमरीकी लोगों के हितों और हिस्सेदारी के लिये काम करने ’ जैसे सिद्धांत पर काम नहीं करता है।    



उन्नत शिक्षा के हमारे सभी संस्थान देश की ज़्यादातर जनता को उन्हें प्रभावित करने वाले मुद्दों पर साथ लाने में नाकामयाब हुए हैं। इन मुद्दों में, पर्यावरण में बदलाव से लेकर स्वास्थ्य सेवाएँ, शिक्षा और जीएम बीज जैसे विषय शामिल हैं। यह किसने तय किया है कि हाशिये पर मौजूद लोगों के पास विदेश नीति या रक्षा मसलों या अर्थशास्त्र पर ज़्यादा जानकारी नहीं होनी चाहिये? यह आश्चर्यचकित करता है कि देश के संभ्रांत लोग अपने को कितना महत्व देते हैं और हाशिये पर मौजूद लोगों को कितना नज़र से दूर रखते हैं।   



यह ज़रूरी है कि देश के सभी वर्ग के लोग, ख़ासतौर पर हाशिये पर मौजूद लोगों को नीतिकार, अधिकारी और बौद्धिक वर्ग बिना किसी रोक टोक के सुने और फ़ैसलों में शामिल करे। इसके लिये, महात्मा गांधी के सेवाग्राम और साबरमती आश्रमों ने अपने समय में जो समतावाद को बढ़ाने के बारे में काम किया था, उसी तर्ज़ पर आज के संस्थानों का पुनर्निर्माण करने की ज़रूरत है। 

संभ्रांत वर्ग द्वारा आपस में ही बातचीत कर लेना, उनके पक्ष पर घमंड को दर्शाता है।  महात्मा गांधी ने भी 1927 में आईआईएस में अपने भाषण में कहा ता कि, “मैं सड़क पर चल रहे आम आदमी से कहीं ज़्यादा उम्मीद आप लोगों से रखता हूँ। अब तक आपने जो कुछ किया है उस से संतुष्ट न हों और यह न कहें कि, “हम जो कर सकते थे कर लिया, अब टेनिस या बिल्यर्ड खेलते हैं।" 

 


Conclusion:
Last Updated : Feb 28, 2020, 11:27 AM IST
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