हैदराबाद : यह सच है कि युद्ध में सबसे पहले हताहत होने वाले लोगों के बाद महिला प्रभावित होती है. इराक , सीरिया, यमन और अफगानिस्तान की महिलाएं इस बात की प्रतीक हैं. इन महिलाओं की दुर्दशा की कहानियां राजनीति के कारण दबी दुई हैं, फिर भी कुछ महिलाएं धार्मिक और राजनीतिक प्रवचनों के प्रति अपनी आलोचना का एहसास करते हुए सुरक्षा और स्वतंत्रता के लिए अपना रास्ता बनाती हैं. इसका एक उदाहरण अफगानिस्तान है. जहां तालिबान का कब्जा है.
कुछ प्रांतों को छोड़कर, पूरे अफगानिस्तान, विशेष रूप से पाकिस्तान के साथ सीमावर्ती प्रांत महिलाओं को अपनी इच्छा के खिलाफ आदिम जीवन शैली अपनाने की गवाही देते हैं. ऐसा ही कुछ मध्य पूर्वी देशों की महिलाओं का हाल है. इन क्षेत्रों की महिलाओं को स्वतंत्रता के समान अवसरों के साथ एक उस स्वतंत्र संस्कृति को अपनाने की मंजूरी नहीं दी गई, जो पुरुषों को है.
यहां की अधिकतर महिलाओं को ज्ञान से दूर रखा गया. उनका मानना था कि वो जो कुछ भी करती हैं, वह उनके धर्म का एक हिस्सा था, यहां तक कि उनके लिए उनके अधिकार भी, इस्लामी न्यायशास्त्र के अनुसार और असमान थे.
लंबे समय तक इन मान्यताओं को स्वीकार करना उनके लिए उनका मजहब बन गया था और महिलाएं दशकों और सदियों तक इसी के मुताबिक अपनी जिंदगी गुजारती रहीं. जहां एक ओर पुरुषों को अपने साथी को चुनने की अनुमति दी गई थी वहीं, महिलाओं को पुरुष प्रधान परिवार होने के कारण केवल आदेश सुना दिया गया.
पाप-पुण्य की एक ऐसी परिभाषा गढ़ी गई, जिसके तहत पुरुष अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकता है और महिलाएं उन भावनाओं को अपने भीतर समा लें. पाप और पुण्य की इस परिभाषा के तहत महिलाओं और पुरुषों के लिए अलग-अलग दृष्टिकोण बनाए गए हैं. इसके तहत अगर कोई पुरुष कोई कार्य करता है तो उसके मापदंड अलग जबकि महिलाओं के लिए कुछ और हैं.
पिछले दो दशकों में इसका सबसे बड़ा उदारहण अफगानिस्तान में देखने को मिला, जहां महिलाएं सबसे अधिक प्रभावित हैं. तालिबान के शासन के दौरान महिलाओं को अपने परिवारों का समर्थन करने के लिए शायद ही कोई जगह मिली हो.
वे सह-शिक्षा वाले स्कूलों में भी नहीं जा सकतीं. हर वह प्लेटफॉर्म, जहां वह अपने विचारों को व्यक्त तक सकती थीं, उनके लिए प्रतिबंधित था. चेहरे के साथ साथ गैर महरम (अनजान व्यक्तियों) के सामने एक महिला को बोलने तक इजाजत नहीं थी.
ऐसा ही हाल अरब देशों की महिलाओं का भी था, जहां आपात स्थिति के मामले में भी, महिलाओं को अपने परिवार के बिना कुछ करने की इजाजत नहीं थी. इसके परिणामस्वरूप वहां क्रांति आई और फिर परिवर्तन आया. व्यक्तिवाद के विचार साहित्य के माध्यम से की गई आधुनिक इस्लाम की व्याख्या ने इन क्षेत्रों में दशकों तक बेड़ियों में बंधी महिलाओं को स्वतंत्र कराने में मदद की.
वैसे इन महिलाओं की यह दुर्दशा पुरुष प्रधान समाज के जबरन बनाए गए तरीकों और कुछ हद तक उनके अप्रतिरोध दृष्टिकोण के कारण थी.
इसके अलावा दो दशक तक चले युद्ध से आबादी का प्रवासन हुआ, जिसके परिणामस्वरूप इन क्षेत्रों की महिलाएं अन्य क्षेत्रों में गईं और वहां की नई जीवन शैली में रूढ़िवादी प्रथाओं में एक बड़ा बदलाव आया. हालांकि कुछ लोग दूसरे इलाकों में नहीं गए, लेकिन परिवर्तन का विरोध करने वाली सभी ताकतों से टकराते हुए वहां एक बदलाव आया.
मैना हबीबी उन महिलाओं में एक हैं, जिन्होंने तालिबान शासन के दौरान, काबुल छोड़ने की बजाए नई जीवन शैली को चुना था. मैना, एक ताजिक महिला हैं, जो काबुल के सुदूर, पिछड़े और धूल भरे गांवों से आती है. उन्होंने जुल्म की बेड़ियों से मुक्त होने का फैसला किया. वह एक ऐसे क्षेत्र से आती हैं, जहां उनके पास गरीब लोग रहते हैं.
तालिबान शासन के दौरान पुरुषों के साथ काम करना, वह भी सार्वजनिक क्षेत्र में, मौत को खुला निमंत्रण था. ऐसे समय में उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी की और उसके बाद वह एक समाचार पत्रिका से जुड़ गईं और टेलीविजन पर एक कार्यक्रम प्रस्तुत करना शुरू किया.
एक देश में, जहां अधिकतर महिलाएं जीवनभर बुर्के में लिपटी रहती हैं, हबीबी ने मेकअप लगाकर, जींस-टॉप पहन लिया और एक बोल्ड पैगाम दिया. इसके अलावा उन्होंने अपने बाल भी रंगे थे. यह अफगानिस्तान जैसे देश में, जहां तालिबान का वर्चस्व था, काफी साहसी कार्य था.
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हबीबी ने अफगानिस्तान के राजनीतिक भाग्य को मुजाहिदीनों से तालिबान और फिर वर्तमान अमेरिकी समर्थित अशरफ गनी शासन के बीच बदलते देखा. वह वर्तमान सरकार के साथ सहज हैं, लेकिन वह शायद ही किसी नेता से प्रभावित हैं. उन्हें अपनी मां के अलावा परिवार से कभी कोई समर्थन नहीं मिला, वह भी चुपके से. उनके पिता को उनका काम करना पसंद नहीं था और न ही वह पुरुष साथियों के साथ मेलजोल पसंद करते थे. इस कारण उन्होंने अपना घर छोड़ दिया और परिवार से दूर काबुल के एक अपार्टमेंट में रहने लगीं.
जब वह छात्रा थीं तो न चाहते हुए भी बुर्का पहना था, ताकि समाज के प्रकोप से बच सकें. अब हबीबी की तरह, कई पुख्तून लड़कियां काबुल के कुछ हिस्सों में नई-नई आजादी का आनंद लेती दिखती हैं.
काबुल विश्वविद्यालय में मनोविज्ञान की तीसरे वर्ष की छात्रा ने अलग-अलग शासन में जीवन गुजारा है, लेकिन महिलाओं के लिए अब जो बदलाव देखा है, उससे देशभर में रहने वाली महिलाओं का जीवन काफी बहतर हो जाएगा. वह चाहती हैं कि इस तरह का बदलाव देश के अन्य क्षेत्रों में भी हो.
तथ्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य के दिल में कुछ करने की लगन होती है. इसलिए समुदायों के लिए यह जरूरी है कि वे बिना भेदभाव के भावनाओं की वास्तविकता को महसूस करें और एक ऐसी प्रणाली स्थापित करें, जो दूसरे की इच्छाओं को स्वीकृति दे और उन्हें पूरा करे. लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं होना चाहिए, न ही लिंग के आधार पर जीवन और जीवन शैली का निर्णय किया जाना चाहिए.
- बिलाल भट्ट (न्यूज एडिटर, ईटीवी भारत)