बस्तर: अपनी अनोखी और रोचक परंपराओं के लिए बस्तर का दशहरा दुनियाभर में मशहूर है. 12 से अधिक रस्में बस्तर दशहरे को अनूठा बना देती हैं और ये कहना गलत नहीं होगा कि ये रस्में ही बस्तर में मनाए जाने वाले दशहरे को अलग रंग देती हैं. हर साल 75 दिन मनाया जाने वाला बस्तर दशहरा दुनिया का सबसे बड़ा लोकपर्व माना जाता है.
देश-विदेश से हजारों लोग इस लोकपर्व का साक्षी बनने आते हैं. ETV भारत आपको इस त्योहार से जुड़े इतिहास और हर रस्म से रूबरू कराएगा. हर रिवाज के बारे में हम आपको जानकारी देंगे लेकिन इससे पहले आप ये जरूरी बातें जान लीजिए.
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बस्तर दशहरे से जुड़ी रोचक जानकारी-
दशहरे के दौरान पूरा देश जहां रावणदहन कर विजयादशमी का पर्व मनाता है, वहीं इन सबसे अलग कभी रावण की नगरी रहे बस्तर में आज भी रावणदहन नहीं किया जाता है.
पहली रस्म-
- बस्तर में एतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरे पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा होती है, हरियाली के अमावस्या के दिन यह रस्म अदायगी के साथ बस्तर में दशहरा पर्व की शुरुआत होती है.
- परंपरा के मुताबिक इस रस्म में बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व के रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाई जाती है, जिससे रथ का चक्के का निर्माण किया जाता है.
- हरियाली के दिन विधि विधान से पूजा के बाद इसी लकड़ी से विशाल रथ का निर्माण किया जाता है.
दूसरी रस्म-
- बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेरी गड़ाई होती है. मान्यताओं के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है.
- सैकड़ों सालों से चली आ रही इस परंपरा के मुताबिक बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है.
- विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर इस रस्म कि अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली जाती है.
तीसरी रस्म-
- 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरे की तीसरा प्रमुख पंरपरा है रथ परिक्रमा. रथ परिक्रमा के लिए रथ का निर्माण किया जाता है, इसी रथ पर दंतेश्वरी देवी की सवारी को बैठकार शहर की परिक्रमा कराई जाती है.
- लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासी ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है.
- रथ निर्माण में प्रयुक्त सरई की लकड़ियों को एक विशेष वर्ग के लोगों द्वारा लाया जाता है. बेडाउमर और झाडउमर गांव के ग्रामीण आदिवासियो द्वारा 14 दिनों में इन लकड़ियों से रथ का निर्माण किया जाता है.
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काछन गादी की रस्म-
- बस्तर दशहरा का आरंभ देवी की अनुमति के बाद होता है. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परंपरा भी अपने आप में अनूठी है, काछन गादी नामक इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेटकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है.
- इस परंपरा की मान्यता अनुसार कांटो के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात् देवी आकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती हैं. अनुसूचित जाति के एक विशेष परिवार की कुंआरी कन्या विशाखा बस्तर राजपरिवार को दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है, 15 वर्षीय विशाखा पिछले 7 सालों से काछनदेवी के रूप में कांटो के झूले पर लेटकर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाती आ रही है.
- नवरात्र के पहले दिन बस्तर के अराध्य देवी मांई दंतेश्वरी के दर्शन के लिए हजारों की संख्या मंदिर पहुंचते हैं और मनोकामना दीप जलाते हैं.
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जोगी बिठाई की रस्म
बस्तर दशहरा की एक और अनूठी और महत्वपूर्ण रस्म जोगी बिठाई है, जिसे शहर के सिरहासार भवन में पूर्ण विधी विधान के साथ संपन्न किया जाता है. इस रस्म में एक विशेष जाति का युवक प्रति वर्ष 9 दिनों तक निर्जल उपवास रख सिरहासारभवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या के लिए बैठता है.
रथ परिक्रमा
इसके बाद होती है बस्तर दशहरे की अनूठी रस्म रथ परिक्रमा. इस रस्म में बस्तर के आदिवासियों द्वारा पारंपरिक तरीके से लकड़ियों से बनाए लगभग 40 फीट ऊंचे रख पर माई दंतेश्वरी के छत्र को बिठाकर शहर में घुमाया जाता है. 40 फीट ऊंचे और 30 टन वजनी इस रथ को सैंकड़ों ग्रामीण मिलकर खींचते हैं.
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निशा जात्रा की रस्म
- बस्तर दशहरे की सबसे अद्भुत रस्म निशा जात्रा होती है. इस रस्म को काले जादू की रस्म भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इस रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे. निशा जात्रा कि यह रस्म बहुत मायने रखती है.
- दशहरा में विजयदशमी के दिन जहां तरफ पूरे देश में रावण का पुतला दहन किया जाता है, वहीं बस्तर में विजयदशमी के दिन दशहरे की प्रमुख रस्म भीतर रैनी मनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी और यही वजह है कि शांति, अंहिसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता है.
- बस्तर दशहरा का समापन दंतेवाड़ा से पधारी माई जी विदाई की परंपरा के साथ होता है. पूरी गरिमा के साथ जिया डेरा से दंतेवाड़ा के लिए विदाई देकर की जाती है. माई दंतेश्वरी की विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.
- विदाई से पहले माई जी की डोली और छत्र को दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सशस्त्र सलामी बल देवी दंतेश्वरी को सलामी देता है और भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. विदाई के साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.