भले ही हमारे संविधान ने भारत को राज्यों का संघ करार दिया, यह पूरी तरह से एक संघीय ढांचा नहीं है. एक वास्तविक संघीय ढांचे में, राज्यों का अस्तित्व संघ सरकार के दया पर निर्भर नहीं करता. यह केवल तब होता है, जब राज्य की सीमाओं का चिन्हीकरण या विलय करना होता है, क्यूंकि यह सम्बंधित राज्य की सहमति के बिना नहीं हो सकता. परन्तु हमारे संविधान में अनुच्छेद दो एवं तीन के माध्यम से संसद के पास नए राज्यों का निर्माण करना, उनका नाम बदलने और सीमाओं को परिवर्तित करने का अधिकार है. हाल ही में, एक या दो अवसरों के अतिरिक्त, नए राज्यों का गठन सम्बंधित राज्यों की सहमति और देश में आम सहमति के माध्यम से किया गया था. इसी प्रकार से, लोगों की इच्छा के अनुसार भाषाई राज्यों का निर्माण शांतिपूर्वक किया गया था. इसलिए, विश्व के किसी अन्य देश के विपरीत, हम विभिन्न भाषाओं के, संविधान द्वारा स्वीकृत अधिक से अधिक 22 भाषाएं, होने के बाद भी अखंडता और सहयोग प्राप्त करने में सक्षम रहे.
हालांकि, अखिल भारतीय सेवाएं संघीय भावना के विपरीत हैं, फिर भी हमने देश के हित में उनको जारी रखा. विश्व के किसी अन्य संविधान के विपरीत, हमारे संविधान में राज्यों और स्थानीय निकाय के प्रशासन में राजनीतिक प्रतिमानों के लिए प्रावधान किया गया था. केंद्र सरकार द्वारा राज्यपालों की नियुक्ति संघीय भावना के विरुद्ध है क्यूंकि उनको निर्वाचित नहीं किया जाता है. इसके अतिरिक्त, लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी सरकार और विधायी निकायों को भंग करने के लिए अनुच्छेद 356 का उपयोग करने के लिए केंद्र को सशक्त करना औपनिवेशिक शासन का एक प्रतीक है और संघीय भावना के विपरीत है.
राज्यों को अधिक शक्तियां
अनुसूची सात के अंतर्गत, प्रदत्त शक्तियों के वितरण के अनुसार, संघ सरकार को अधिक शक्तियां प्रदान की गयी है. इसके अतिरिक्त, सामान्य सूची के नाम पर केंद्र सरकार को उन विषयों में निर्णय लेने के लिए सशक्त किया गया है, जिनको राज्यों द्वारा संभाला नहीं जा सकता. इसके साथ ही, राज्यों के कुछ विषयों को केंद्र को स्थानांतरित करने के लिए राज्य सभा को सशक्त किया गया है. यदि कोई आपातकाल घोषित किया जाता है तो संसद को सभी विषयों पर अधिनियम बनाने का अधिकार होगा. ऐसे किसी प्रकरण में हमारा देश संघीय समाज के स्थान पर एकल निकाय बन सकता है. यदि दो या अधिक राज्य ऐसा चाहते हैं तो संविधान राज्यों से सम्बंधित विषयों पर अधिनियम बना सकता है. एक बार जैसे ही कोई राज्य ऐसे किसी अधिनियम को लागू करने के लिए सहमत हो जाता है, तो भविष्य में उसके पास उस विषय पर कुछ कहने के लिए नहीं होगा या कोई अधिकार नहीं होगा. संसद के पास अंतर्राष्ट्रीय अनुबंधों से सम्बंधित किसी विषय पर कोई अधिनियम बनाने का अधिकार होगा. इसी तरह से, संविधान राज्यों को स्वायत्ता देने के स्थान पर विभिन्न स्वरूपों में अधिनियम बनाने के लिए संसद को शक्ति प्रदान करता है जो अंतहीन केन्द्रीयकरण का मार्ग प्रशस्त करता है.
भारतीय गणराज्य के निर्माण के पश्चात, राज्यों से सम्बन्धित कई विषयों को सामान्य सूची में समाविष्ट किया गया है, जिसके फलस्वरूप संसद और केंद्र को अधिकार प्रदान किए गए थे. कई क्षेत्रों में स्थानीय स्थितियों के साथ बिना किसी सम्बन्ध के उसी ढांचे में अधिनियम एक समान रूप से बनाये जा रहे हैं. ऐसे अधिनियम राज्यों के आर्थिक विकास के लिए रुकावट बन रहे हैं. न्यायालयों को स्थापित करने जैसे विषयों में और यहां तक कि वर्तमान के निचले स्तर के न्यायिक प्रणाली में परिवर्तन लाने के लिए या फिर शीघ्र न्याय प्रदान करने के लिए केंद्र की सहमति आवश्यक है. सामान्य सूची में स्कूली शिक्षा को सम्मिलित करके, शिक्षा के मापदंडों में वृद्धि करने के अवसर से वांछित किया गया है. संसद ने 'शिक्षा के अधिकार' को एक कानून बना दिया है. भले ही हजारों करोड़ रुपए खर्च किये जा रहे हैं. कई राज्यों में तेलुगु राज्य सहित, शिक्षा का मापदंड दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है. हालांकि भूमि से सम्बंधित सभी विषय राज्यों के क्षेत्र में हैं, तथापि भूमि अधिग्रहण को सामान्य सूची में सम्मिलित किया गया है. इसके नतीजतन, परियोजनाओं पर खर्च असीमित रूप से बढ़ गया है. पशुओं पर क्रूरता रोकने के बहाने दूध उत्पन्न करने वाले पशुओं के व्यापार को पूर्ण रूप से केंद्र के नियंत्रण में रखा गया है. फलस्वरुप, ये विनियम राज्यों के ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पर्याप्त रूप से विकलांग बना रहे हैं.
भले ही केंद्र के पास कई विभागों की शक्तियां हैं. फिर भी राज्यों का यह दायित्व है कि वे लोगों को दिन-प्रतिदिन अवस्थापना सम्बन्धी सुविधाएँ प्रदान करें. न्यूनतम सुविधाएं प्रदान करें, शिक्षा एवं स्वास्थ्य प्रदान करें. इसका अर्थ है, राज्यों का दायित्व कानून एवं व्यवस्था को बनाये रखना और शीघ्र न्याय दिलाना है. अन्य अर्थ में, केंद्र के पास शक्तियां हैं और इसके लिए उत्तरदायित्व कम हैं. परन्तु संसाधनों का सबसे बड़ा हिस्सा केंद्र के पास जाता है. संसाधनों की समस्या के अतिरिक्त, सामान्य सूची में सामाजिक एवं आर्थिक योजनाओं के समावेशन के कारण निर्णय लेने का अधिकार केंद्र के पास सुरक्षित है. राज्यों को केंद्र के निर्णय के लिए धैर्यपूर्वक और असहाय रूप से प्रतीक्षा करना पड़ती है और उनका चक्कर लगाना पड़ता है. हालांकि योजना आयोग की समाप्ति के साथ स्थिति में थोड़ा बहुत परिवर्तन आया है. इसके बाद मुख्य निर्णय लेने में केंद्र का प्रभुत्व और केन्द्रीकरण जारी है. केंद्र द्वारा प्रायोजित कई परियोजनाओं को राज्यों के माथे पर मढ़ दिया जाता है. यदि उन्हें केवल केंद्र द्वारा दिए गए निर्देश के अनुसार लागू किया जाता है तो उनको धनराशि प्राप्त होगी. इसलिए संविधान में कायम किये गए ऐसे मिसाल के कारण, राज्यों के अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले संशोधनों के कारण, वित्तीय केन्द्रीकरण के कारण और अंत में केंद्र द्वारा प्रायोजित योजनाओं के कारण केन्द्रीकरण ने देश के संघीय ढांचे को प्रभावित किया है.
कुछ आशावादी संकेत
यह सत्य है कि संधीय ढांचे को कुछ सीमा तक सुदृढ़ किया गया है. मुख्य रूप से दो कारणों सेः- पहली बात स्वभाषा आधारित राज्यों का द्विभाजन सम्बंधित राज्यों की सहमति से आरंभ किया गया था, जो एक स्वस्थ संकेत था. दूसरी बात, राष्ट्रीय स्तर पर ठीक आरंभ से वित्त आयोगों का गठन केंद्र-राज्य संबंधों की परीक्षा लेने के लिए किया गया था और उन आयोगों की संस्तुतियों को सत्यनिष्ठा से लागू किया गया था. इसके साथ वित्तीय लेन-देन तर्कसंगत रूप से किये गए थे, जिससे संघीय ढांचा सुदृढ़ हुआ. इसके अतिरिक्त कुछ कार्यक्रम जिनका आयोजन 1991 के पश्चात हुआ, संघीय ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए उत्तरदायी थे. जैसे ही कांग्रेस का वर्चस्व मंद पड़ गया और क्षेत्रीय दलों ने राज्यों में शक्ति प्राप्त कर ली, राष्ट्रीय स्तर के दलों को राज्यों की भलाई और उनके अधिकारों पर ध्यान देने के लिए विवश किया गया. 1994 के बोम्मई प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद, निर्वाचित सरकारों को भंग करने के लिए अनुच्छेद 365 का दुरुपयोग लगभग बंद हो गया है. 1991 में वित्तीय संकट के कारण, सरकार को आर्थिक सुधार आरंभ करना पड़ा. उन सुधारों के एक भाग के रूप में, 'लाइसेंस-परमिट-कोटा राज' लगभग समाप्त हो गया. उसके साथ, राज्य सरकारों और उद्योगपतियों द्वारा दिल्ली के थकाऊ चक्कर लगाना भी कम हो गया है. अपनी नीतियों और निवेशों के साथ प्रगति का मार्ग प्रशस्त करना राज्यों के लिए संभव हो गया है. पहले की तुलना में, सरकारी उपक्रमों की भूमिका कम हो गयी है. मुक्त व्यापार और प्रतिस्पर्धा अधिक हो गयी है. योजना आयोग को हाल ही में समाप्त किये जाने से वित्तीय निर्णयों में केन्द्रीकरण कम हो गया है. ये सभी संघीय ढाँचे के लिए अच्छे संकेत हैं.
जैसा कि सभी ने यह अनुभव करना आरंभ कर दिया था कि अनुच्छेद 365 का दुरुपयोग नहीं किया जायेगा, अरुणांचल प्रदेश, उत्तराखंड और हाल ही में महाराष्ट्र और जम्मू कश्मीर के घटनाक्रमों और उस पर की गयी कार्रवाई के कारण केन्द्रीकरण और क्षतिग्रस्त संघीय भावना की दिशा में अग्रसर होता लग रहा है. विमुद्रीकरण योजना जिसे राज्यों के साथ परामर्श किये बिना लाया गया. राज्यों के वित्तीय ढांचे को असमंजस की स्थिति में डाल दिया है. 15वें वित्त आयोग को दिए गए कुछ दिशानिर्देश संघीय ढांचे को निर्बल करने की दिशा में प्रेरित है. ये आरोप भी लग रहे हैं कि केंद्र सरकार मुख्य विभाग जैसे कि आयकर, ईडी, राजस्व गोपनीयता का दुरुपयोग कर रहा है जो उनके अंतर्गत आते हैं. ताकि अपने राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा किया जा सके. ये सभी संघीय ढांचे को निस्संदेह रूप से कमजोर करने की दिशा में की गयी कार्रवाई हैं. 70 वर्ष पुराने संविधान के क्रियान्वन के संदर्भ में संघीय ढांचे को सुदृढ़ करने की दिशा में राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा किये जाने की आवश्यकता है. देश की अखंडता, शक्तियों का विकेंद्रीकरण, स्थानीय निर्णय लेने की स्वायत्ता, उत्तरदायित्व और लोकतंत्र का विकास देश के भविष्य के लिए इन सभी का परस्पर समन्वय जरूरी है. चीन जैसे तानाशाही देश में, विकेंद्रीकरण को सफलतापूर्वक लागू किया जा सका है. प्रगति की नींव जिसे चीन ने पिछले 40 वर्षों के दौरान प्राप्त किया, शक्ति के विकेंद्रीकरण, स्थानीय सरकारों और निर्णय लेने में लचीलेपन के कारण पड़ सकी. लोकतान्त्रिक भारत को इनसे सबक लेना चाहिए. ये किसी देश के भविष्य, अर्थात आर्थिक प्रगति के लिए उत्तरदायित्व बढ़ाने, विकेंद्रीकरण करने और प्रशासनिक दक्षता बढ़ाने के लिए बहुत आवश्यक है.