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विश्व आदिवासी दिवस: 'प्रकृति के रक्षक' आदिवासियों से लेनी चाहिए सीख, दहेज लेने को समझते हैं पाप

दहेज प्रथा जैसे अभिशाप के लिए एक सबक है बगहा का आदिवासी समाज. बगहा के ये आदिवासी दहेज लेना अपनी परम्परा के खिलाफ मानते हैं. दूसरी तरफ वे प्रकृति को अपने जीवन का हिस्सा मानते हैं. पढ़ें पूरी खबर...

विश्व आदिवासी दिवस
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Published : Aug 9, 2019, 1:09 PM IST

पटनाः सूबे का पश्चिम चंपारण जिला, जहां ज्यादा जंगली इलाके हैं. इन जंगली इलाकों में आदिवासी आज भी पुराने तरीकों से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. खास बात यह है कि इन्होंने शादी-विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा से खुद को बचाए रखा है. अपनी अलग रीति रिवाज और परम्पराओं का निर्वहन करते हुए यह समाज दहेज नहीं लेता. दूसरी तरफ यह समाज प्रकृति को अपना देवता मानते हुए पेड़ों के संरक्षण में लगा है.

आदिवासी दिवस पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट

प्रकृति के नजदीक हैं आदिवासी
चम्पारण के जंगली क्षेत्र के आदिवासी मूल रूप से प्रकृति को अपने जीवन का हिस्सा मानते हैं. सूर्य, वायु और वृक्ष की पूजा परम्पराओं और रीति रिवाज के मुताबिक करते हैं.

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आदिवासियों से लेनी चाहिए सीख

जहां एक तरफ देश भर में दहेज से होने वाली प्रताड़नाओं की खबरें आती रहती है. वहीं, आदिवासी इन सब से कोसों दूर हैं. आदिवासी शादी विवाह में दहेज नहीं लेते और न ही देते हैं.

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ईटीवी भारत ने आदिवासियों से की खास बातचीत

दहेज प्रथा पर रोक लगाने के लिए बिहार सरकार सख्त कानून बना कर लोगों को जागरूक कर रही है. वहीं आदिवासी पहले से ही दहेज लेना पाप समझते हैं.

दहेज लेना परंपरा के खिलाफ
ईटीवी भारत से खास बातचीत में आदिवासी समाज के लोगों ने कहा कि हमारे समाज में 'दहेज' नहीं चलता है. इस समाज में दहेज लेना उनके परम्पराओं के खिलाफ है. हमलोग मूल आदिवासी हैं. यही वजह है कि दहेज प्रथा के विधेयक से इनको बाहर रखा गया है.

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आदिवासियों के हैं अपने रीति रिवाज

वो बताते हैं कि हमारी अपनी भाषा, परम्परा और रीति रिवाज है. किसी कर्म कांड में ब्राह्मण का कोई महत्व नहीं है. प्रत्येक शुभ कार्य का आयोजन अंडा काट कर होता है. आदिवासी भाषा में इसे डंडीकाट बोला जाता है.

जंगल से विशेष लगाव
दुख हो या सुख नृत्य के बिना आयोजन अधूरा रहता है. पूजा, शादी और अन्य आयोजनों का अलग-अलग नृत्य होता है. शादी में कर्मा नृत्य, फसल रोपनी के समय दोहड़ा नृत्य. इसके अलावे झूमर, अहयोगेला और ठडिया नृत्य भी अलग-अलग आयोजनों पर किए जाते हैं.

इन आदिवासियों का पेड़-पौधे से भी बेहद लगाव है. ये आदिवासी डीह बाबा की पूजा करते हैं. जिनका सम्बन्ध वृक्ष से है. ये बताते हैं कि जंगल के किनारे रहने की वजह से जड़ी बूटियों की विशेष पहचान है. इसके बिना हमारा जीवन अधूरा है.

बगहा प्रखंड में रह रहे हैं आदिवासी
जिले के बगहा प्रखंड मे कई ऐसे गांव हैं जहां कई जातियों के आदिवासी रहते हैं. ढोलबजवा, हसनापुर सहित कई ऐसे इलाके हैं, जिन इलाकों में उरांव, गोंड और मुंडा आदिवासी रहते हैं.

बता दें मजदूरी और खेती ही इनका मुख्य पेशा है. इन आदिवासियों की मुख्य भाषा कुंड़ुक है. जिसकी कोई लिपि नहीं है.

पटनाः सूबे का पश्चिम चंपारण जिला, जहां ज्यादा जंगली इलाके हैं. इन जंगली इलाकों में आदिवासी आज भी पुराने तरीकों से अपना जीवन यापन कर रहे हैं. खास बात यह है कि इन्होंने शादी-विवाह में दहेज जैसी कुप्रथा से खुद को बचाए रखा है. अपनी अलग रीति रिवाज और परम्पराओं का निर्वहन करते हुए यह समाज दहेज नहीं लेता. दूसरी तरफ यह समाज प्रकृति को अपना देवता मानते हुए पेड़ों के संरक्षण में लगा है.

आदिवासी दिवस पर ईटीवी भारत की रिपोर्ट

प्रकृति के नजदीक हैं आदिवासी
चम्पारण के जंगली क्षेत्र के आदिवासी मूल रूप से प्रकृति को अपने जीवन का हिस्सा मानते हैं. सूर्य, वायु और वृक्ष की पूजा परम्पराओं और रीति रिवाज के मुताबिक करते हैं.

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आदिवासियों से लेनी चाहिए सीख

जहां एक तरफ देश भर में दहेज से होने वाली प्रताड़नाओं की खबरें आती रहती है. वहीं, आदिवासी इन सब से कोसों दूर हैं. आदिवासी शादी विवाह में दहेज नहीं लेते और न ही देते हैं.

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ईटीवी भारत ने आदिवासियों से की खास बातचीत

दहेज प्रथा पर रोक लगाने के लिए बिहार सरकार सख्त कानून बना कर लोगों को जागरूक कर रही है. वहीं आदिवासी पहले से ही दहेज लेना पाप समझते हैं.

दहेज लेना परंपरा के खिलाफ
ईटीवी भारत से खास बातचीत में आदिवासी समाज के लोगों ने कहा कि हमारे समाज में 'दहेज' नहीं चलता है. इस समाज में दहेज लेना उनके परम्पराओं के खिलाफ है. हमलोग मूल आदिवासी हैं. यही वजह है कि दहेज प्रथा के विधेयक से इनको बाहर रखा गया है.

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आदिवासियों के हैं अपने रीति रिवाज

वो बताते हैं कि हमारी अपनी भाषा, परम्परा और रीति रिवाज है. किसी कर्म कांड में ब्राह्मण का कोई महत्व नहीं है. प्रत्येक शुभ कार्य का आयोजन अंडा काट कर होता है. आदिवासी भाषा में इसे डंडीकाट बोला जाता है.

जंगल से विशेष लगाव
दुख हो या सुख नृत्य के बिना आयोजन अधूरा रहता है. पूजा, शादी और अन्य आयोजनों का अलग-अलग नृत्य होता है. शादी में कर्मा नृत्य, फसल रोपनी के समय दोहड़ा नृत्य. इसके अलावे झूमर, अहयोगेला और ठडिया नृत्य भी अलग-अलग आयोजनों पर किए जाते हैं.

इन आदिवासियों का पेड़-पौधे से भी बेहद लगाव है. ये आदिवासी डीह बाबा की पूजा करते हैं. जिनका सम्बन्ध वृक्ष से है. ये बताते हैं कि जंगल के किनारे रहने की वजह से जड़ी बूटियों की विशेष पहचान है. इसके बिना हमारा जीवन अधूरा है.

बगहा प्रखंड में रह रहे हैं आदिवासी
जिले के बगहा प्रखंड मे कई ऐसे गांव हैं जहां कई जातियों के आदिवासी रहते हैं. ढोलबजवा, हसनापुर सहित कई ऐसे इलाके हैं, जिन इलाकों में उरांव, गोंड और मुंडा आदिवासी रहते हैं.

बता दें मजदूरी और खेती ही इनका मुख्य पेशा है. इन आदिवासियों की मुख्य भाषा कुंड़ुक है. जिसकी कोई लिपि नहीं है.

Intro:पश्चिम चंपारण के जंगलों के किनारे बसे आदिवासियों की अलग रीती रिवाज , उनका विश्वास और परम्पराएं उनको बिल्कुल अलग पहचान दिलाती हैं। ये आदिवासी शादी - विवाह में दहेज नही लेते और ना ही इनके किसी कर्म कांडों में ब्राह्मण का महत्व होता है। प्रत्येक शुभ कार्य का आयोजन अंडा काट कर किया जाता है जिसको ये अपनी भाषा मे डंडीकाट बोलते हैं। दुख हो या सुख इन सब आयोजनों का स्वरूप बिना नृत्य के अधूरा होता है।
आज विश्व आदिवासी दिवस पर देखें ईटीवी भारत की यह खास रिपोर्ट...


Body:चम्पारण के जंगली क्षेत्रों के किनारे बसे आदिवासी मूल रूप से प्रकृति की पूजा करते हैं। सूर्य, वायु, तथा वृक्ष की पूजा इनके परम्पराओं और रीति रिवाज का हिस्सा है। पूजा , शादी विवाह और अन्य आयोजनों को अलग अलग नृत्य कर मनाते हैं। शादी के समय कर्मा नृत्य होता है तो फसल रोपने के समय दोहड़ा नृत्य। इसके अलावा झूमर, अहयोगेला और ठडिया नृत्य भी अलग अलग आयोजनों पर किये जाते हैं। डीह बाबा की पूजा करते हैं जिनका सम्बन्ध वृक्ष से है। साथ ही साथ प्रत्येक कर्मकांडों की शुरुवात अंडा काटने से होती है। चाहे वह फसल की रोपनी हो, शादी व्याह हो या मृत्यु भोज। दहेज लेना इनके परम्पराओं के खिलाफ है। यही वजह है कि सरकार द्वारा दहेज प्रथा को लेकर बनाये गए विधेयक से इनको बाहर रखा गया है। जंगल के किनारे रहने के वजह से इनको जड़ी बूटियों की विशेष पहचान है। इनका कहना है कि जड़ी बूटियों के बिना इनका जीवन अधूरा है। इनकी मुख्य भाषा कुँड़ुक है जिसकी कोई लिपि नही है।
बाइट- किताबी उरांव,
बाइट- किशुनी गोंड
बाइट- राम अवतार उराँव।


Conclusion:बगहा प्रखंड के ढोलबजवा, हसनापुर सहित कई ऐसे क्षेत्र हैं जहां उरांव, गोंड और मुंडा आदिवासी रहते हैं। मजदूरी और खेतीबाड़ी इनका मुख्य पेशा है।
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