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वाराणसी : विलुप्त होने की कगार पर है बांसुरी वादन - संगीत परंपरा गायन एवं वादन

बनारस अपनी संगीत परंपरा गायन एवं वादन और ख्यातिलब्ध संगीतकारों के लिए मशहूर रहा है. यहां की अपनी अलग पहचान रही है. ऐसे में आज बांसुरी बजाने की कला लुप्त होने की कगार पर है.

बांसुरी बजाने की कला
बांसुरी बजाने की कला
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Published : Jan 18, 2021, 10:58 PM IST

वाराणसी : वाराणसी को बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि यहां कंकर-कंकर में शंकर बसते हैं. यहां के 84 घाट सात समंदर पार से भी सैलानियों को आकर्षित करते हैं. काशी को सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है. यहां कला और संस्कृति का समागम देखने को मिलता है.

यहां का हर इंसान किसी न किसी हुनर में माहिर है. ऐसे ही एक शख्स हैं बांसुरी बेचने वाले मोहम्मद चुन्ने. काशी के घाटों पर इन्हें गंगा आरती के दौरान बजने वाले धुन को बजाते हुए सुना जा सकता है. बांसुरी भले ही सुंदर और मधुर संगीत के निर्माण का सबसे पुराना तरीका है, लेकिन यह समय के साथ धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है.

कहा जाता है कि बांसुरी भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय है और वह इसे हमेशा अपनी कमर पर बांधे रखते थे. आज के समय में इसका महत्व लुप्त होता दिख रहा है. फिर भी वाराणसी के मोहम्मद चुन्ने उसी उत्पाद को बेचने के साथ-साथ वाद्य यंत्र बजाकर पिछले 40 वर्षों से जीवन यापन कर रहे हैं.

ईटीवी भारत से बात करते हुए वह कहते हैं कि बचपन से ही उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था. उनके पिता भी बांसुरी बेचने का व्यवस्या करते थे. आज भी चुन्ने उसी उत्साह के साथ बांसुरी बजाते हैं.

पढ़ें- पीएम मोदी बने सोमनाथ मंदिर ट्रस्ट के अध्यक्ष

उनके दो बेटे उन्हें इस व्यवसाय को बंद करके घर पर आराम करने के लिए कहते हैं, लेकिन उनका यह प्यार है कि वह अपना दुकान रोज खोलते हैं और शाम को बांसुरी की धुन बजाते हैं. चुन्ने न सिर्फ बांसुरी बेचते हैं, बल्कि वह लोगों को इसे बजाना भी सिखाते हैं.

कोरोना से पहले वह इससे अपना जीवन यापन करने में सक्षम थे, लेकिन अब वह जीवन यापन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मोहम्मद चुन्ने ने कहा कि उनके लिए घर का किराया देना और अन्य खर्चों करना मुश्किल हो गया है. उन्होंने सरकार से मदद की अपील की, ताकि वह वाराणसी के घाटों पर लोगों को इसे सिखाते रहें.

वाराणसी : वाराणसी को बनारस और काशी के नाम से भी जाना जाता है. मान्यता है कि यहां कंकर-कंकर में शंकर बसते हैं. यहां के 84 घाट सात समंदर पार से भी सैलानियों को आकर्षित करते हैं. काशी को सांस्कृतिक राजधानी कहा जाता है. यहां कला और संस्कृति का समागम देखने को मिलता है.

यहां का हर इंसान किसी न किसी हुनर में माहिर है. ऐसे ही एक शख्स हैं बांसुरी बेचने वाले मोहम्मद चुन्ने. काशी के घाटों पर इन्हें गंगा आरती के दौरान बजने वाले धुन को बजाते हुए सुना जा सकता है. बांसुरी भले ही सुंदर और मधुर संगीत के निर्माण का सबसे पुराना तरीका है, लेकिन यह समय के साथ धीरे-धीरे विलुप्त होने के कगार पर है.

कहा जाता है कि बांसुरी भगवान कृष्ण की सबसे प्रिय है और वह इसे हमेशा अपनी कमर पर बांधे रखते थे. आज के समय में इसका महत्व लुप्त होता दिख रहा है. फिर भी वाराणसी के मोहम्मद चुन्ने उसी उत्पाद को बेचने के साथ-साथ वाद्य यंत्र बजाकर पिछले 40 वर्षों से जीवन यापन कर रहे हैं.

ईटीवी भारत से बात करते हुए वह कहते हैं कि बचपन से ही उन्हें बांसुरी बजाने का शौक था. उनके पिता भी बांसुरी बेचने का व्यवस्या करते थे. आज भी चुन्ने उसी उत्साह के साथ बांसुरी बजाते हैं.

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उनके दो बेटे उन्हें इस व्यवसाय को बंद करके घर पर आराम करने के लिए कहते हैं, लेकिन उनका यह प्यार है कि वह अपना दुकान रोज खोलते हैं और शाम को बांसुरी की धुन बजाते हैं. चुन्ने न सिर्फ बांसुरी बेचते हैं, बल्कि वह लोगों को इसे बजाना भी सिखाते हैं.

कोरोना से पहले वह इससे अपना जीवन यापन करने में सक्षम थे, लेकिन अब वह जीवन यापन करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. मोहम्मद चुन्ने ने कहा कि उनके लिए घर का किराया देना और अन्य खर्चों करना मुश्किल हो गया है. उन्होंने सरकार से मदद की अपील की, ताकि वह वाराणसी के घाटों पर लोगों को इसे सिखाते रहें.

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