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विशेष लेख : अमरीका और ईरान एक जैसे दो देश

ईरानी कमांडर सुलेमानी बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर एक अमेरिकी ड्रोन हमले में मारे गये. उनके साथ ईरान से सहानुभूति रखने वाली एक फ़ौज के लीडर एल मुहानादी भी इस हमले में मारे गये. इस घटना से अमरीका ने लकीर को पार कर लिया है. पूरी दुनिया में इस बात को लेकर चिंता है. एक विवेचना.

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हसन रुहानी, डोनाल्ड ट्रंप
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Published : Jan 8, 2020, 8:46 PM IST

अमरीका की पिछली ओबामा सरकार के कार्यकाल में हुए, ज्वाइंट कॉम्प्रिहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) को, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा था. लेकिन ओबामा के बाद, राष्ट्रपति बने ट्रंप ने इसे ख़त्म करने की क़सम खाई थी. यह जैसे एक अंत की शुरुआत थी. जब से ट्रंप ने इस समझौते से अपने हाथ खीचे हैं, तभी से वो ईरान पर दबाव बना रहे हैं और तमाम तरह के आर्थिक और अन्य प्रतिबंध लगा दिये हैं.

अमरीका ने पहले से ही शिया और सुन्नियों में बैर का फ़ायदा उठाया और सऊदी अरब और इज़रायल से ईरान के ख़राब रिश्तों को भी भुनाया. ट्रंप के सलाहकार जैरड कुश्नर के नेतृत्व में इज़रायल के साथ रिश्तों में बेहतर दौर दिख रहा था, लेकिन ईरान को लेकर पहले से ही ख़राब माहौल में और मुश्किलें खड़ी होती गई. लिबिया, यमन, सीरिया, इराक़, गाजा और लेबनान, अमरीका के हितों के लिये परेशानियां खड़ी करने लगे थे. हिज़्बुल्लाह, हमास, होयथिस और कई शिया आतंकी गुटों से ईरान के अच्छे संबंध रहे हैं और इन्होंने समय समय पर ईरान को अपना वर्चस्व फैलाने में मदद की है.

अमरीका के जीसीपीओए से बाहर हो जाने के कारण पर्शियन खाड़ी में तलवारें खींच गई, जिसका सीधा असर व्यापार और तेल की सप्लाई के लिहाज़ से अति महत्वपूर्ण होमरूज की खाड़ी पर हुआ. अमरीकी ड्रोन विमानों और कई जहाजों को मार गिराने के साथ ही सऊदी तेल ठिकानों पर ड्रोन हमलों की कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई. लेकिन इन सब के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के 'अल कुद' फोर्स के जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या का आदेश जारी कर दिया. सुलेमानी बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर एक अमरीकी ड्रोन के हमले में मारे गये. उनके साथ, ईरान से सहानुभूति रखने वाली एक फ़ौज के लीडर एल मुहानादी भी इस हमले में मारे गये. इस घटना से एक अमरीका ने लकीर को पार कर दिया है,

क्योंकि इससे पहले किसी भी देश की सेना के जनरल को, किसी अन्य देश द्वारा इस तरह नहीं मारा गया है. साथ ही यह वाक़या एक ऐसे समय में हुआ, जब दोनों ही पक्ष जंग से बचने और मध्यस्थता के लिये कोशिशें करते दिख रहे थे. इस हमले और सुलेमानी की मौत से ईरान में शोक और ग़ुस्सा स्वाभाविक था. सुलेमानी की शव यात्रा में लाखों की तादाद में लोग जमा हुए, और सारा आसमान अमरीका विरोधी नारों से गूंज रहा था. सोशल मीडिया पर ख़ासतौर पर ट्विटर पर, नेताओं और दोनों पक्षों के लगो के बीच भी जंग के हालात जैसे बने रहे. यही कारण था कि, ईरान के सर्वोच्च नेता, आयातुल्लाह खुमेनी और अन्य नेताओं ने भी अमरीका के इस हमले का बदला लेने की क़सम खाई.

अब तक अमरीका के साये में रहे इराक़ ने भी, अमरीका द्वारा इस एकतरफ़ा एक्शन को अपनी संप्रभुता पर प्रहार की तरह देखा और नतीजतन अमरीका को बगदाद में अपने दूतावास को खाली करना पड़ा और अपने नागरिकों को इराक़ से निकालना पड़ा. इराकी संसद द्वारा अपने यहां से सभी अमरीकियों को जाने को कहना, अमरीका के लिये बड़ा नुकसान रहा. अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से लेकर सीरिया तक से अपनी सेनाओं को हटाने की प्रक्रिया में है और इस क्षेत्र में सैन्य उपस्थिति को लेकर अभी फ़ैसला नहीं कर पा रहा था. लेकिन इस घटना ने अमरीका को इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिये अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने के लिये मजबूर कर दिया है.

अपने पक्ष को साफ़ करते हुए, अमरीका के विदेश सचिव, पोंपियो ने कहा कि, 'यह साफ़ है कि विश्व अब एक ज्यादा सुरक्षित जगह है. क़ासिम सुलेमानी अब धरती पर नहीं हैं. राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अमरीका के ख़िलाफ़ सुलेमानी द्वारा चलाये जा रहे अभियान को रोकने का फ़ैसला सही था.' अमरीका से इस हमले का बदला लेने के ईरान के बयान पर ट्रंप ने, ईरान के 52 ठिकानों की लिस्ट जारी कर के कहा कि अगर ईरान ने ऐसी कोई हिमाक़त की, तो अमरीका इन ठिकानों को निशाना बनाने से नहीं चूकेगा.

हर एक्शन का एक रियेक्शन होता है. हालांकि, अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा प्रॉक्सी करार दी गई मिलिशिया के अपने अलग मंसूबे हो सकते हैं. अमरीका के सभी सहयोगियों ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है. यह सभी अमरीका द्वारा इस तरह के एकतरफ़ा एक्शन से नाखुश दिख रहे हैं. इन देशों की नाखुशी जायज़ भी है, क्योंकि इस तरह की घटनाएं ऐसे हालातों की जनक हो सकती हैं, जिनका सामना कोई भी देश नहीं करना चाहेगा.

फ़िलहाल जंग की आवाज़ें सभी तरफ़ से आ रही हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि नुक़सान हो चुका है. ईरान ने अमरीका से अमने परमाणु करार के टूटने के बाद, अपने परमाणु कार्यक्रम पर दोबारा काम करना शुरू कर दिया है. आने वाले दिनों में इस क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर इसका बहुत असर पड़ने वाला है और इन नये समीकरणों में विश्व की सप्लाई चेन में दखल देने का पूरा दम है. तेल की बढ़ती क़ीमतों से अमरीका जैसे देशों को फ़ायदा हो सकता है, लेकिन इससे ज्यादतर अर्थव्यवस्थाओं को पेशानी से गुजरना पड़ेगा. उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार शांति को मौक़ा मिलेगा और विश्व के अन्य देश, इन दोनों पक्षों के बीच की इस तनातनी को युद्द का रूप लेने से रोक सकेंगे.

इस क्षेत्र में भारतीय मूल के लाखों लोगों और उनसे आने वाले पैसे और यहां से तेल की सप्लाई के कारण भारत के लिये भी पेशानियां बढ़ सकती हैं. इसलिये भारतीय विदेश मंत्री ने अमरीका, ईरान और ओमान में अपने समकक्षों से बात की है. ईरान के विदेश मंत्री, जावा जारिफ अगले हफ़्ते दिल्ली में होने वाले राइसीना संवाद में वक्ता के तौर पर आने वाले हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि वो इससे पहले ही दिल्ली आ सकते हैं, ताकि इस मसले पर कूटनीतिक समाधानों पर बातचीत हो सके. फ़िलहाल इस समय, इस मामले में शामिल सभी पक्षों द्वारा अमरीका और ईरान की इस तनातनी को कम करने की तरफ़ कोशिशें जारी हैं, लेकिन ऐसे हालातों में कई बार नॉन स्टेट एक्टर मामला बिगाड़ देते हैं.

(लेखक - अनिल त्रिगुनायात, पूर्व राजदूत, जॉर्डन, लिबिया और माल्टा)

अमरीका की पिछली ओबामा सरकार के कार्यकाल में हुए, ज्वाइंट कॉम्प्रिहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) को, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा था. लेकिन ओबामा के बाद, राष्ट्रपति बने ट्रंप ने इसे ख़त्म करने की क़सम खाई थी. यह जैसे एक अंत की शुरुआत थी. जब से ट्रंप ने इस समझौते से अपने हाथ खीचे हैं, तभी से वो ईरान पर दबाव बना रहे हैं और तमाम तरह के आर्थिक और अन्य प्रतिबंध लगा दिये हैं.

अमरीका ने पहले से ही शिया और सुन्नियों में बैर का फ़ायदा उठाया और सऊदी अरब और इज़रायल से ईरान के ख़राब रिश्तों को भी भुनाया. ट्रंप के सलाहकार जैरड कुश्नर के नेतृत्व में इज़रायल के साथ रिश्तों में बेहतर दौर दिख रहा था, लेकिन ईरान को लेकर पहले से ही ख़राब माहौल में और मुश्किलें खड़ी होती गई. लिबिया, यमन, सीरिया, इराक़, गाजा और लेबनान, अमरीका के हितों के लिये परेशानियां खड़ी करने लगे थे. हिज़्बुल्लाह, हमास, होयथिस और कई शिया आतंकी गुटों से ईरान के अच्छे संबंध रहे हैं और इन्होंने समय समय पर ईरान को अपना वर्चस्व फैलाने में मदद की है.

अमरीका के जीसीपीओए से बाहर हो जाने के कारण पर्शियन खाड़ी में तलवारें खींच गई, जिसका सीधा असर व्यापार और तेल की सप्लाई के लिहाज़ से अति महत्वपूर्ण होमरूज की खाड़ी पर हुआ. अमरीकी ड्रोन विमानों और कई जहाजों को मार गिराने के साथ ही सऊदी तेल ठिकानों पर ड्रोन हमलों की कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई. लेकिन इन सब के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के 'अल कुद' फोर्स के जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या का आदेश जारी कर दिया. सुलेमानी बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर एक अमरीकी ड्रोन के हमले में मारे गये. उनके साथ, ईरान से सहानुभूति रखने वाली एक फ़ौज के लीडर एल मुहानादी भी इस हमले में मारे गये. इस घटना से एक अमरीका ने लकीर को पार कर दिया है,

क्योंकि इससे पहले किसी भी देश की सेना के जनरल को, किसी अन्य देश द्वारा इस तरह नहीं मारा गया है. साथ ही यह वाक़या एक ऐसे समय में हुआ, जब दोनों ही पक्ष जंग से बचने और मध्यस्थता के लिये कोशिशें करते दिख रहे थे. इस हमले और सुलेमानी की मौत से ईरान में शोक और ग़ुस्सा स्वाभाविक था. सुलेमानी की शव यात्रा में लाखों की तादाद में लोग जमा हुए, और सारा आसमान अमरीका विरोधी नारों से गूंज रहा था. सोशल मीडिया पर ख़ासतौर पर ट्विटर पर, नेताओं और दोनों पक्षों के लगो के बीच भी जंग के हालात जैसे बने रहे. यही कारण था कि, ईरान के सर्वोच्च नेता, आयातुल्लाह खुमेनी और अन्य नेताओं ने भी अमरीका के इस हमले का बदला लेने की क़सम खाई.

अब तक अमरीका के साये में रहे इराक़ ने भी, अमरीका द्वारा इस एकतरफ़ा एक्शन को अपनी संप्रभुता पर प्रहार की तरह देखा और नतीजतन अमरीका को बगदाद में अपने दूतावास को खाली करना पड़ा और अपने नागरिकों को इराक़ से निकालना पड़ा. इराकी संसद द्वारा अपने यहां से सभी अमरीकियों को जाने को कहना, अमरीका के लिये बड़ा नुकसान रहा. अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से लेकर सीरिया तक से अपनी सेनाओं को हटाने की प्रक्रिया में है और इस क्षेत्र में सैन्य उपस्थिति को लेकर अभी फ़ैसला नहीं कर पा रहा था. लेकिन इस घटना ने अमरीका को इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिये अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने के लिये मजबूर कर दिया है.

अपने पक्ष को साफ़ करते हुए, अमरीका के विदेश सचिव, पोंपियो ने कहा कि, 'यह साफ़ है कि विश्व अब एक ज्यादा सुरक्षित जगह है. क़ासिम सुलेमानी अब धरती पर नहीं हैं. राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अमरीका के ख़िलाफ़ सुलेमानी द्वारा चलाये जा रहे अभियान को रोकने का फ़ैसला सही था.' अमरीका से इस हमले का बदला लेने के ईरान के बयान पर ट्रंप ने, ईरान के 52 ठिकानों की लिस्ट जारी कर के कहा कि अगर ईरान ने ऐसी कोई हिमाक़त की, तो अमरीका इन ठिकानों को निशाना बनाने से नहीं चूकेगा.

हर एक्शन का एक रियेक्शन होता है. हालांकि, अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा प्रॉक्सी करार दी गई मिलिशिया के अपने अलग मंसूबे हो सकते हैं. अमरीका के सभी सहयोगियों ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है. यह सभी अमरीका द्वारा इस तरह के एकतरफ़ा एक्शन से नाखुश दिख रहे हैं. इन देशों की नाखुशी जायज़ भी है, क्योंकि इस तरह की घटनाएं ऐसे हालातों की जनक हो सकती हैं, जिनका सामना कोई भी देश नहीं करना चाहेगा.

फ़िलहाल जंग की आवाज़ें सभी तरफ़ से आ रही हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि नुक़सान हो चुका है. ईरान ने अमरीका से अमने परमाणु करार के टूटने के बाद, अपने परमाणु कार्यक्रम पर दोबारा काम करना शुरू कर दिया है. आने वाले दिनों में इस क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर इसका बहुत असर पड़ने वाला है और इन नये समीकरणों में विश्व की सप्लाई चेन में दखल देने का पूरा दम है. तेल की बढ़ती क़ीमतों से अमरीका जैसे देशों को फ़ायदा हो सकता है, लेकिन इससे ज्यादतर अर्थव्यवस्थाओं को पेशानी से गुजरना पड़ेगा. उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार शांति को मौक़ा मिलेगा और विश्व के अन्य देश, इन दोनों पक्षों के बीच की इस तनातनी को युद्द का रूप लेने से रोक सकेंगे.

इस क्षेत्र में भारतीय मूल के लाखों लोगों और उनसे आने वाले पैसे और यहां से तेल की सप्लाई के कारण भारत के लिये भी पेशानियां बढ़ सकती हैं. इसलिये भारतीय विदेश मंत्री ने अमरीका, ईरान और ओमान में अपने समकक्षों से बात की है. ईरान के विदेश मंत्री, जावा जारिफ अगले हफ़्ते दिल्ली में होने वाले राइसीना संवाद में वक्ता के तौर पर आने वाले हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि वो इससे पहले ही दिल्ली आ सकते हैं, ताकि इस मसले पर कूटनीतिक समाधानों पर बातचीत हो सके. फ़िलहाल इस समय, इस मामले में शामिल सभी पक्षों द्वारा अमरीका और ईरान की इस तनातनी को कम करने की तरफ़ कोशिशें जारी हैं, लेकिन ऐसे हालातों में कई बार नॉन स्टेट एक्टर मामला बिगाड़ देते हैं.

(लेखक - अनिल त्रिगुनायात, पूर्व राजदूत, जॉर्डन, लिबिया और माल्टा)

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विशेष लेख : अमरीका और ईरान एक जैसे दो देश 

अमरीका की पिछली ओबामा सरकार के कार्यकाल में हुए, ज्वाइंट कॉम्प्रिहेन्सिव प्लान ऑफ एक्शन (जेसीपीओए) को, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने की दिशा में एक बड़ा कदम माना जा रहा था. लेकिन ओबामा के बाद, राष्ट्रपति बने ट्रंप ने इसे ख़त्म करने की क़सम खाई थी. यह जैसे एक अंत की शुरुआत थी. जब से ट्रंप ने इस समझौते से अपने हाथ खीचे हैं, तभी से वो ईरान पर दबाव बना रहे हैं और तमाम तरह के आर्थिक और अन्य प्रतिबंध लगा दिये हैं.  

अमरीका ने पहले से ही शिया और सुन्नियों में बैर का फ़ायदा उठाया और सऊदी अरब और इज़रायल से ईरान के ख़राब रिश्तों को भी भुनाया. ट्रंप के सलाहकार जैरड कुश्नर के नेतृत्व में इज़रायल के साथ रिश्तों में बेहतर दौर दिख रहा था, लेकिन ईरान को लेकर पहले से ही ख़राब माहौल में और मुश्किलें खड़ी होती गई. लिबिया, यमन, सीरिया, इराक़, गाजा और लेबनान, अमरीका के हितों के लिये परेशानियां खड़ी करने लगे थे. हिज़्बुल्लाह, हमास, होयथिस और कई शिया आतंकी गुटों से ईरान के अच्छे संबंध रहे हैं और इन्होंने समय समय पर ईरान को अपना वर्चस्व फैलाने में मदद की है. 



अमरीका के जीसीपीओए से बाहर हो जाने के कारण पर्शियन खाड़ी में तलवारें खींच गई, जिसका सीधा असर व्यापार और तेल की सप्लाई के लिहाज़ से अति महत्वपूर्ण होमरूज की खाड़ी पर हुआ. अमरीकी ड्रोन विमानों और कई जहाजों को मार गिराने के साथ ही सऊदी तेल ठिकानों पर ड्रोन हमलों की कोई बड़ी प्रतिक्रिया नहीं आई. लेकिन इन सब के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने ईरान के 'अल कुद' फोर्स के जनरल क़ासिम सुलेमानी की हत्या का आदेश जारी कर दिया. सुलेमानी बग़दाद हवाई अड्डे के बाहर एक अमरीकी ड्रोन के हमले में मारे गये. उनके साथ, ईरान से सहानुभूति रखने वाली एक फ़ौज के लीडर एल मुहानादी भी इस हमले में मारे गये. इस घटना से एक अमरीका ने लकीर को पार कर दिया है, क्योंकि इससे पहले किसी भी देश की सेना के जनरल को, किसी अन्य देश द्वारा इस तरह नहीं मारा गया है. साथ ही यह वाक़या एक ऐसे समय में हुआ, जब दोनों ही पक्ष जंग से बचने और मध्यस्थता के लिये कोशिशें करते दिख रहे थे. इस हमले और सुलेमानी की मौत से ईरान में शोक और ग़ुस्सा स्वाभाविक था. सुलेमानी की शव यात्रा में लाखों की तादाद में लोग जमा हुए, और सारा आसमान अमरीका विरोधी नारों से गूंज रहा था. सोशल मीडिया पर ख़ासतौर पर ट्विटर पर, नेताओं और दोनों पक्षों के लगो के बीच भी जंग के हालात जैसे बने रहे. यही कारण था कि, ईरान के सर्वोच्च नेता, आयातुल्लाह खुमेनी और अन्य नेताओं ने भी अमरीका के इस हमले का बदला लेने की क़सम खाई. अब तक अमरीका के साये में रहे इराक़ ने भी, अमरीका द्वारा इस एकतरफ़ा एक्शन को अपनी संप्रभुता पर प्रहार की तरह देखा और नतीजतन अमरीका को बगदाद में अपने दूतावास को खाली करना पड़ा और अपने नागरिकों को इराक़ से निकालना पड़ा. इराकी संसद द्वारा अपने यहां से सभी अमरीकियों को जाने को कहना, अमरीका के लिये बड़ा नुकसान रहा. अमरीका अफ़ग़ानिस्तान से लेकर सीरिया तक से अपनी सेनाओं को हटाने की प्रक्रिया में है और इस क्षेत्र में सैन्य उपस्थिति को लेकर अभी फ़ैसला नहीं कर पा रहा था. लेकिन इस घटना ने अमरीका को इस क्षेत्र में अपने हितों की रक्षा के लिये अपनी सैन्य उपस्थिति को बढ़ाने के लिये मजबूर कर दिया है.        



अपने पक्ष को साफ़ करते हुए, अमरीका के विदेश सचिव, पोंपियो ने कहा कि, 'यह साफ़ है कि विश्व अब एक ज्यादा सुरक्षित जगह है. क़ासिम सुलेमानी अब धरती पर नहीं हैं. राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा अमरीका के ख़िलाफ़ सुलेमानी द्वारा चलाये जा रहे अभियान को रोकने का फ़ैसला सही था.' अमरीका से इस हमले का बदला लेने के ईरान के बयान पर ट्रंप ने,  ईरान के 52 ठिकानों की लिस्ट जारी कर के कहा कि अगर ईरान ने ऐसी कोई हिमाक़त की, तो अमरीका इन ठिकानों को निशाना बनाने से नहीं चूकेगा. 

हर एक्शन का एक रियेक्शन होता है. हालांकि, अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा प्रॉक्सी करार दी गई मिलिशिया के अपने अलग मंसूबे हो सकते हैं. अमरीका के सभी सहयोगियों ने दोनों पक्षों से संयम बरतने की अपील की है. यह सभी अमरीका द्वारा इस तरह के एकतरफ़ा एक्शन से नाखुश दिख रहे हैं. इन देशों की नाखुशी जायज़ भी है, क्योंकि इस तरह की घटनाएं ऐसे हालातों की जनक हो सकती हैं, जिनका सामना कोई भी देश नहीं करना चाहेगा.

फ़िलहाल जंग की आवाज़ें सभी तरफ़ से आ रही हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि नुक़सान हो चुका है. ईरान ने अमरीका से अमने परमाणु करार के टूटने के बाद, अपने परमाणु कार्यक्रम पर दोबारा काम करना शुरू कर दिया है. आने वाले दिनों में इस क्षेत्र के राजनीतिक समीकरणों पर इसका बहुत असर पड़ने वाला है और इन नये समीकरणों में विश्व की सप्लाई चेन में दखल देने का पूरा दम है. तेल की बढ़ती क़ीमतों से अमरीका जैसे देशों को फ़ायदा हो सकता है, लेकिन इससे ज्यादतर अर्थव्यवस्थाओं को पेशानी से गुजरना पड़ेगा. उम्मीद की जानी चाहिये कि इस बार शांति को मौक़ा मिलेगा और विश्व के अन्य देश, इन दोनों पक्षों के बीच की इस तनातनी को युद्द का रूप लेने से रोक सकेंगे.       



इस क्षेत्र में भारतीय मूल के लाखों लोगों और उनसे आने वाले पैसे और यहां से तेल की सप्लाई के कारण भारत के लिये भी पेशानियां बढ़ सकती हैं. इसलिये भारतीय विदेश मंत्री ने अमरीका, ईरान और ओमान में अपने समकक्षों से बात की है. ईरान के विदेश मंत्री, जावा जारिफ अगले हफ़्ते  दिल्ली में होने वाले राइसीना संवाद में वक्ता के तौर पर आने वाले हैं. लेकिन अब ऐसा लगता है कि वो इससे पहले ही दिल्ली आ सकते हैं, ताकि इस मसले पर कूटनीतिक समाधानों पर बातचीत हो सके. फ़िलहाल इस समय, इस मामले में शामिल सभी पक्षों द्वारा अमरीका और ईरान की इस तनातनी को कम करने की तरफ़ कोशिशें जारी हैं, लेकिन ऐसे हालातों में कई बार नॉन स्टेट एक्टर मामला बिगाड़ देते हैं.    

(लेखक - अनिल त्रिगुनायात, पूर्व राजदूत, जॉर्डन, लिबिया और माल्टा)

 


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