नई दिल्ली : एक महीने से ज्यादा वक्त हो गया है, जब जीवन की रफ्तार थम सी गई है और लोग जीवन में अच्छे-बुरे अनुभवों का सामना कर रहे हैं. परिवार, दोस्तों और सहयोगियों के साथ रिश्तों में फिर से सामंजस्य बैठाया जा रहा है और रोज जब उनकी आंखें खुलती हैं तो भारतीय समाज की जड़ों में व्याप्त समानता और असमानताओं से सामना होता है तथा अपने और दूसरों का फर्क करीब से महसूस होता है.
कोरोना वायरस के प्रसार को रोकने के प्रयास में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ओर से 24 मार्च शाम को देशव्यापी बंद की घोषणा के एक दिन बाद से भारत में लॉकडाउन लागू है. उसके बाद से अब तक गुजरे दिनों में 1.3 अरब भारतीय, केंद्रीय स्थानों और दूरस्थ कोनों में बसे अमीर और गरीब, सभी ने दुनियाभर में फैली महामारी के डर का सामना किया है.
तीन मई तक बढ़ाए गए बंद की बेचैनी से कोई भी अछूता नहीं है, न तो शानदार कोठियों में रह रहे रईस कारोबारी, न घरों में बंद मध्यम वर्ग और न ही किराये के छोटे-छोटे घरों में दिहाड़ी मजदूर.
भय की यह स्थिति भले ही सबके लिए सामान्य हो, लेकिन इनके बीच की असमानताओं का फर्क भी तुरंत देखने को मिला. बंद लागू होते ही जहां लाखों लोग अपने घरों में कैद होने पर मजबूर हो गए वहीं प्रवासी और दिहाड़ी मजदूरों का, जो अपने घरों से मीलों दूर फंसे हुए थे, भविष्य अनिश्चितताओं मे घिर गया, जहां उनके पास पैसा है, न खाना और न ही नौकरी. अब सवाल है कि आगे क्या होगा. क्योंकि लॉकडाउन लागू हुए एक महीने से ज्यादा वक्त हो गया है.
ज्यादातर मध्यम एवं ऊपरी वर्ग के परिवार अपने करीबियों के साथ इतना समय बिताने को एक चुनौती की तरह देख रहे हैं और कई उनके बिना अलग-थलग पड़ अवसाद झेल रहे हैं.
पढ़ें : लॉकडाउन ने लोगों की आर्थिक 'तालाबंदी' कर दी है- कपिल सिब्बल
जीवन के नए तरीके के अनुकूल ढलना - घरेलू सहायक-सहायिकाओं की मदद के बिना घर का सारा काम करना, घर से बाहर निकलने के लिए तैयार होने की जरूरत से मिली मुक्ति और दिनभर घर के अंदर रहना, आम-खास सभी की जिंदगी का हिस्सा बन गया है.
गुड़गांव के पारस अस्पताल की क्लिनिकल मनोवैज्ञानिक प्रीति सिंह के मुताबिक, इस लॉकडाउन ने लोगों को जरूरत और इच्छाओं के बीच फर्क करना सिखाया है और उन्हें अपनी जरूरतों को प्राथमिकता देने में मदद की है.
प्रीति ने कहा, इसने लोगों को एहसास कराया है कि कोई भी व्यक्ति अल्पतम जरूरतों के साथ और दुनिया में व्याप्त वस्तुवाद के बिना भी गुजारा कर सकता है.
बंद के इन दिनों को लोग जीवनभर याद रखेंगे और इसने सामजिक दूरी बनाए रखने की जरूरत के मद्देनजक सामाजिक संवाद, त्योहारों का जश्न और यहां तक कि शोक मनाने के नए तरीके भी सीखे हैं.
कई लोगों ने माना कि यह उनकी ताकतों को फिर से आंकने और कई बार छिपी हुए प्रतिभाओं को सामने लाने का भी अवसर है.