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कृषि कानून ने अन्नदाताओं को संकट में डाला!

जाने माने कृषि अर्थशास्त्री प्रो. (निवृत्त) डी नरसिम्हा रेड्डी कहते हैं कि केंद्र सरकार द्वारा पारित किए गए कृषि कानून किसानों को गहरे संकट की ओर धकलते दिख रहे हैं. सरकार से अपेक्षा थी कि वह संकटग्रस्त किसानों को बचाने के लिए कृषि क्षेत्र में ज्यादा निवेश करेगी, लेकिन उसने नए कानून ला कर किसानों को बड़े व्यापारी और कॉर्पोरेट घरानों की दया पर छोड़ दिया है.

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कृषि कानून
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Published : Dec 23, 2020, 9:00 AM IST

Updated : Dec 23, 2020, 1:32 PM IST

हैदराबाद: केंद्र के नए कृषि कानूनों को लेकर किसान कई हफ्तों से आंदोलनरत हैं. इसको लेकर कई अर्थशास्त्री अपनी-अपनी राय रख रहे हैं. तेलंगाना स्थित हैदराबाद यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान संकाय के डीन रह चुके अर्थशास्त्री प्रोफेसर डी नरसिम्हा रेड्डी हाल दिल्ली स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ यूमन डेवलपमेंट में अतिथि प्रोफेसर के रूप मे काम कर रहे हैं. वे 2005 और 2016 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा गठित कृषि आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं और उन्होंने कई शोध निबंध लिखे हैं. उन्होंने अपने विचार ईनाडु/ई टीवी भारत के साथ साझा किए, जिन्हें हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.

अहम बिंदुओं पर एक नजर

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ये हैं कुछ अहम बिंदु-

सवाल- केंद्र द्वारा लाए गए नए कानूनों से किसानों को कैसी समस्याएं झेलनी होगी?

जवाब- नए कानून किसानों के हितों पर बहुत बड़ा कुठाराघात करेंगे. सरकार से अपेक्षा थी कि वह कृषि बाजार समितियों में सुधार ला कर किसानों के हित में उनका विकास करेगी. इसके बजाय उसने नियंत्रित कृषि बाजार को ही निजी व्यवसायों के मुनाफे के लिए खुला कर दिया. यह वाकई चिंता का विषय है. ये कानून ज्यादातर किसानों का भला नहीं करेंगे. आज तक हमारे यहां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित नियंत्रित बाजार व्यवस्था थी. नए कानून में कृषि उपज के भाव मांग और आपूर्ति तय करेंगे.

एक और महत्वपूर्ण पहलू है आवश्यक वस्तु अधिनियम को अप्रासांगिक कर दिया गया है. आवश्यक वस्तु अधिनियम जमाखोरी पर नकेल का काम करता था. यह अधिनियम किसान और आम ग्राहक को मुनाफाखोर और जमाखोरों से सुरक्षा देता था, जो कम कीमत पर किसानों से भारी मात्रा में उपज खरीद कर जमाखोरी करते हैं. अधिनियम को खुले बाजार के हक में कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया. इन नए कानूनों की वजह से कृषि क्षेत्र मे सरकार का निवेश कम हो जाएगा. सभी प्रकार के नियंत्रण उठा लिए जाएंगे.

फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (खाद्य निगम) की भूमिका गौण हो जाएगी. कृषि उपज की खरीदी अब पूरी तरह से निजी हाथों में चली जाएगी. कृषि उत्पादन की खरीदी से लेकर प्रोसेसिंग संबंधी सभी गतिविधियों पर बड़े व्यापारियों का कहा चलेगा. वे केवल इन कृषि उत्पादनों पर अपना ब्रांड का ठप्पा लगा कर उन्हें ऊंची कीमत पर बेचेंगे.

बुनियादी कृषि संरचना पर निवेश कम होता जाएगा. यह सभी भली भांति जानते हैं कि कृषि उपज के मूल्य वे ही तय करते हैं जिनके पास गोदाम, कोल्ड स्टॉरिज और प्रोसेसिंग सुविधा हैं. नए कानून निजी गोदामों के मालिकों को गोदामों मे माल रखने के मनचाहे दर रखने की छूट देते हैं. यदि किसान इन गोदामों मे अपनी उपज यह सोच कर रखे कि जब उसे बाजार में अच्छा दाम मिलेगा, तब वह उसे बेचेगा तो उसे फसल उगाने में लगी लागत भी वापस नहीं मिल पाएगी. यदि ये गोदाम सरकार के नियंत्रण में हों तो किसान इनमें अपनी फसल कम किराए दे कर रख सकता है. उसे गोदाम में रखे माल पर ऋण भी मिल सकता है. नए कानून उन्हें इस सुविधा से वंचित करता है.

नए कानून किसानों को जहां कहीं भी उसे अपनी फसल की अच्छी कीमत मिलती हो वहां बेचने की छूट देते हैं ऐसे में आप यह कैसे कह सकते हैं कि ये कानून किसानों का घाटा करेंगे?

जवाब- देश के 85 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत किसान हैं. यदि कृषि मंडी दूर है तो वह अपनी फसल अपने ही गांव में व्यापारी को बेच देगा. ऐसे लोग अच्छे दाम मिलने की आशा में इतना दूर भला कैसे जा पाएंगे? दस क्विंटल धान या दस बोरी कपास को एक किराये के ट्रैक्टर पर लाद कर अच्छे दाम पाने की लालसा में भला ऐसा छोटा किसान कैसे किसी दूर बाजार तक जा पाएगा? अपनी फसल की अच्छी कीमत की आशा में भला वह कितना इंतजार कर पाएगा? आज भी तेलंगाना के किसान अपनी उपज अच्छी कीमत पाने के लिए दूर तक जाने की स्थिति में नहीं है. कृषि मंडियां अगर खत्म कर दी जाती हैं तो किसानों की दुर्दशा हो जाएगी.

केंद्र सरकार का कहना है कि पंजाब और हरियाणा के दलालों के अलावा एक भी किसान को इन कानूनों से कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. आपका क्या कहना है?

यह सच नहीं है. इन कानून का बुरा असर पूरे देश में महसूस होगा. पंजाब की समस्या थोड़ी अलग है. पंजाब की कृषि उपज का लगभग 84 प्रतिशत धान और गेहूं है. उनकी उपज के 95 प्रतिशत पर उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता है. पंजाब में धान के बाद गेहूं उगाया जाता है, क्योंकि उन्हें इनके न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता है. विडंबना यह है कि पंजाब धान उगाता तो है मगर उसका उपभोग नहीं करता. वह अपने खाने के लिए कुछ भी नहीं रखता और धान की सारी की सारी फसल बेच देता है. ऐसा दूसरे राज्यों में नहीं है. किसान अपनी जरूरत के लिए रख कर बाकी धान बेचता है. आंध्र प्रदेश में कृषि क्षेत्र के 40 प्रतिशत हिस्से में धान की फसल होती है. तेलंगाना में कपास की व्यापक खेती होती है. हालांकि, पिछले एक साल और इस साल धान की खेती भी काफी बढ़ी है.

समस्या केवल धान और गेंहू के किसानों की नहीं है. आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले का उदाहरण लें, जहां मूंगफली मुख्य फसल है. पिछले कई दशक से हम मूंगफली का विकल्प विकसित करने की बात सुन रहे हैं. विकल्प के रूप में वहां के किसान पपीता और अन्य फल उगा रहे हैं, लेकिन उगाने वाले को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है. वहां उपज को गोदाम में रखने और उसके विक्रय और मार्केटिंग की कोई व्यवस्था नहीं है. तेलंगाना में कपास के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है. फिर भी हर साल कपास उगाने वाले किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इस परिस्थिती को सुधारने के बदले सरकार ऐसे कानून लाई हैं, जो बाजार पर नियंत्रण हटाकर निजी व्यापारियों के हाथ में करने का रास्ता प्रशस्त करते हैं. इन कानूनों की असर हर राज्यों को महसूस होगा.

हमें बताया जा रहा है कि नए कानूनों की वजह दो प्रकार के बाजार विकसित होंगे. यह भी कहा जा रहा है अलग-अलग प्रकार के नियम बनाए जाएंगे. यह कैसे संभव है?

हां, कृषि बाजार समितियां होंगी, लेकिन निजी व्यापारी और व्यक्तियों को इस बात की छूट होगी कि वह इन कृषि बाजार समिति के बाहर से माल खरीद सकेंगे.

इसका मतलब है दो प्रकार के बाजार होंगे. ऐसे में व्यापारियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे लागू किया जा सकेगा?

केंद्र सरकार ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है, जो व्यापारी को कृषि उपज एक निश्चित मूल्य पर खरीदने को बाध्य कर सके. बल्कि नए कानून इस लिए लाए गए हैं कि खुले बाजार को छूट मिले. कृषि बाजार समिति के भीतर नियंत्रित और बाहर अनियंत्रित बाजार होगा. दोनों बाजारों में अलग-अलग शुल्क और नियम लागू होंगे. नतीजा यह होगा कि व्यापारी नियंत्रित बाजार छोड़कर अपना व्यवसाय अनियंत्रित बाजार में करेंगे. पहले ही यह आरोप हैं कि कृषि बाजार समिति के बाजार में भी व्यापारी आपस में मिलकर किसानों को उनकी तय कीमत पर अपनी उपज बेचने को मजबूर कर रहे हैं.

यही तरीका वे कानून बनने के बाद बाहर भी अख्तियार करेंगे. कृषि बाजार समिति की मंडी में अगर ये व्यापारी आपस में साठ-गांठ करते पाए जाते हैं तो हम इसकी शिकायत प्रशासन से कर सकते हैं, लेकीन अगर वे ऐसा मंडी से बाहर करते हैं तो इसकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं होगा.

कृषि बाजार समिति मंडी के बाहर किसानों को अपनी उपज की कीमत, वजन गीलापन, गुणवत्ता और ग्रेड को लेकर समस्याओं का सामना करना होगा. आदिवासी इलाके में और दूर-दराज के क्षेत्रों में इस प्रकार का शोषण चलता ही रहता है. नए कानून किसानों को इस प्रकार की समस्याओं का सामना करने पर मजबूर कर देंगे. नए कानूनों से यह स्पष्ट है कि सरकार कृषि उपज मंडियों को बिना खत्म किए न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था खत्म करना चाहती है.

पंजाब, हरियाणा और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिवा कृषि बाजार समितियां कुल उपज का केवल 20 प्रतिशत ही माल किसानों से खरीदती हैं. फिर भी इस सीमित दायरे में किसान न्यूनतम मूल्य की मांग कर सकते हैं. नए कानूनों के लागू होने के बाद सरकार तो यह दावा करेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य हैं, लेकिन इन्हें वह अनियंत्रित बाजार में लागू नहीं कर सकती.

केंद्र का यह दावा है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू कर दिया है और यह कि पूर्व की यू पी ए सरकार ने उन्हें खारिज कर दिया था?

यह पूरी तरह से झूठा प्रचार है. आज जो हो रहा है वह स्वामीनाथन रिपोर्ट के सुझाव से बिल्कुल उलट हो रहा है. स्वामीनाथन आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य का आकलन कैसे किया जाए इसका स्पष्ट विवरण दिया था और इस पर 50 प्रतिशत अधिक लगा कर किसानों को देने की सिफारिश की थी. वे मूल्य गणना की पद्धति पर आयोग के सुझाव को विकृत कर रहे हैं. आयोग की सिफारिश को लागू करने के लिए वह राशि कैसे हो सकती है? मूल्य तय करते समय, आयोग ने निवेश और भूमि के किराए पर ब्याज सहित सभी पहलुओं को ध्यान में रखने को कहा है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य तक ही सीमित नहीं हैं. आयोग ने गोदामों और अन्य बुनियादी सुविधाओं पर भी कई सिफारिशें कीं हैं. केंद्र जो कर रहा है वह आयोग द्वारा अनुशंसित किए का खुला उल्लंघन है.

जब कानून किसानों के पक्ष में नहीं है तो क्या राज्य सरकारें उन्हें लागू नहीं करने के कदम उठा सकती हैं ?

इसमें राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं है. वैसे कृषि राज्यों का विषय है. बीज की आपूर्ति से लेकर उपज की खरीद तक राज्य के कार्य क्षेत्र में है, लेकिन केंद्र ने ये नए कानून उसके पक्ष में जो नियम है उसका फायदा उठा कर लाए हैं. पूर्व में सरकार एक मोडेल कानून बनाकर उसे राज्य सरकारों को यह कह कर भेजती थी कि इसी के आधार पर वह अपने राज्य में कानून बनाए. राज्यों को इसका पालन करना होता है. किसान अपनी जरूरतों के लिए राज्य सरकार की ओर देखता है जैसे कि बीज, उर्वरक, कृषि ऋण, उपज की खरीद आदि के लिए, लेकिन केंद्र राज्य की सत्ता के ऊपर जा कर काम कर रहा है. अगर नियंत्रित बाजार ही नहीं रहा तो राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा.

केंद्र के लिए यह बिल्कुल अनुचित है कि वह राज्य की भूमिका को नकारते हुए ऐसा करे. केंद्र ने व्यापार के नए नियम बनाए हैं, जो कृषि बाजार मंडियों की परिधि में नहीं आते. इसीलिए कुछ राज्य यह कह रहे हैं कि जहां भी कृषि उपज बिकता है वह कृषि बाजार समिति के नियमों के तहत आता है. नए कानून बनाने से पहले केंद्र ने किसानों से सलाह मशवरा नहीं किया है. उसने राज्य सरकारों की भी सलाह नहीं ली है. कल इसका खामियाजा किसानों को भुगतना होगा और राज्यों को इसका जवाब देना होगा.

उदारीकरण की अपनी नीति के विस्तार के हिस्से के रूप में केंद्र ने इन कानूनों को बड़े व्यापारियों को तस्वीर में लाने के लिए लाया है. इसीलिए इसने राज्यों को पूरी तरह से अलग कर दिया है.

किसानों को संतुष्ट करने के लिए केंद्र को क्या करना चाहिए?

जवाब- सरकार को चाहिए कि वह कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाए. महाकाय कॉर्पोरेट समूहों को एक लाख करोड़ अगले दस साल तक संरचना के नाम पर देने के बदले सरकार को यह काम अपने कंधे पर उठा लेना चाहिए. कृषि से संबंधित अन्य क्षेत्रों को बढ़ावा देना चाहिए. इस क्षेत्र पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ा कर 25 प्रतिशत करनी चाहिए. देश में प्रति व्यक्ति जमीन की मालिकी 2.5 ऐकर है. इतनी छोटी जमीन से किसान अपनी जरूरत की कमाई नहीं कर सकता. प्रति किसान परिवार की सालाना आमदनी 1.25 लाख रुपये हैं. पंजाब में यह 3.4 लाख रुपये हैं.

2004-05 और 2017-18 के बीच पांच करोड़ लोगों ने खेती किसानी छोड़ दी है. हाल में लाखों लोग तालाबंदी की घोषणा के बाद लंबी दूरी तय कर अपने अपने गांव वापस लौटे. इनमें से ज्यादातर किसान थे. देश में कृषि आधारित आय में केवल एक प्रतिशत वृद्धि हुई है जबकि कृषि क्षेत्र मे 15 प्रतिशत वृद्धि हुई है.

अमेरिका में केवल दो प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित हैं. फिर भी वह देश अपने उपभोग से डेढ़ गुना ज्यादा पैदा करता है. छोटे और सीमांत किसान जापान में बहुसंख्यक हैं. वहां आबादी के 15 प्रतिशत कृषि पर आधारित हैं.

हमारे देश को भी कृषि आधारित क्षेत्रों पर ध्यान देना चाहिए. कैसे कोई किसान जिसके पास तीन ऐकर से कम जमीन है, अपने परिवार की शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी और अन्य जरूरतों को पूरा कर सकता है?

किसानों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करानी चाहिए. किसानों के दुख दर्द को कम करने के बदले ये नए कानून उन्हें और दरिद्र बनाने की ओर घसीट ले जाएंगे.

हैदराबाद: केंद्र के नए कृषि कानूनों को लेकर किसान कई हफ्तों से आंदोलनरत हैं. इसको लेकर कई अर्थशास्त्री अपनी-अपनी राय रख रहे हैं. तेलंगाना स्थित हैदराबाद यूनिवर्सिटी के समाज विज्ञान संकाय के डीन रह चुके अर्थशास्त्री प्रोफेसर डी नरसिम्हा रेड्डी हाल दिल्ली स्थित इंस्टिट्यूट ऑफ यूमन डेवलपमेंट में अतिथि प्रोफेसर के रूप मे काम कर रहे हैं. वे 2005 और 2016 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा गठित कृषि आयोग के सदस्य भी रह चुके हैं और उन्होंने कई शोध निबंध लिखे हैं. उन्होंने अपने विचार ईनाडु/ई टीवी भारत के साथ साझा किए, जिन्हें हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं.

अहम बिंदुओं पर एक नजर

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ये हैं कुछ अहम बिंदु-

सवाल- केंद्र द्वारा लाए गए नए कानूनों से किसानों को कैसी समस्याएं झेलनी होगी?

जवाब- नए कानून किसानों के हितों पर बहुत बड़ा कुठाराघात करेंगे. सरकार से अपेक्षा थी कि वह कृषि बाजार समितियों में सुधार ला कर किसानों के हित में उनका विकास करेगी. इसके बजाय उसने नियंत्रित कृषि बाजार को ही निजी व्यवसायों के मुनाफे के लिए खुला कर दिया. यह वाकई चिंता का विषय है. ये कानून ज्यादातर किसानों का भला नहीं करेंगे. आज तक हमारे यहां न्यूनतम समर्थन मूल्य पर आधारित नियंत्रित बाजार व्यवस्था थी. नए कानून में कृषि उपज के भाव मांग और आपूर्ति तय करेंगे.

एक और महत्वपूर्ण पहलू है आवश्यक वस्तु अधिनियम को अप्रासांगिक कर दिया गया है. आवश्यक वस्तु अधिनियम जमाखोरी पर नकेल का काम करता था. यह अधिनियम किसान और आम ग्राहक को मुनाफाखोर और जमाखोरों से सुरक्षा देता था, जो कम कीमत पर किसानों से भारी मात्रा में उपज खरीद कर जमाखोरी करते हैं. अधिनियम को खुले बाजार के हक में कचरे की टोकरी में फेंक दिया गया. इन नए कानूनों की वजह से कृषि क्षेत्र मे सरकार का निवेश कम हो जाएगा. सभी प्रकार के नियंत्रण उठा लिए जाएंगे.

फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया (खाद्य निगम) की भूमिका गौण हो जाएगी. कृषि उपज की खरीदी अब पूरी तरह से निजी हाथों में चली जाएगी. कृषि उत्पादन की खरीदी से लेकर प्रोसेसिंग संबंधी सभी गतिविधियों पर बड़े व्यापारियों का कहा चलेगा. वे केवल इन कृषि उत्पादनों पर अपना ब्रांड का ठप्पा लगा कर उन्हें ऊंची कीमत पर बेचेंगे.

बुनियादी कृषि संरचना पर निवेश कम होता जाएगा. यह सभी भली भांति जानते हैं कि कृषि उपज के मूल्य वे ही तय करते हैं जिनके पास गोदाम, कोल्ड स्टॉरिज और प्रोसेसिंग सुविधा हैं. नए कानून निजी गोदामों के मालिकों को गोदामों मे माल रखने के मनचाहे दर रखने की छूट देते हैं. यदि किसान इन गोदामों मे अपनी उपज यह सोच कर रखे कि जब उसे बाजार में अच्छा दाम मिलेगा, तब वह उसे बेचेगा तो उसे फसल उगाने में लगी लागत भी वापस नहीं मिल पाएगी. यदि ये गोदाम सरकार के नियंत्रण में हों तो किसान इनमें अपनी फसल कम किराए दे कर रख सकता है. उसे गोदाम में रखे माल पर ऋण भी मिल सकता है. नए कानून उन्हें इस सुविधा से वंचित करता है.

नए कानून किसानों को जहां कहीं भी उसे अपनी फसल की अच्छी कीमत मिलती हो वहां बेचने की छूट देते हैं ऐसे में आप यह कैसे कह सकते हैं कि ये कानून किसानों का घाटा करेंगे?

जवाब- देश के 85 प्रतिशत किसान छोटे और सीमांत किसान हैं. यदि कृषि मंडी दूर है तो वह अपनी फसल अपने ही गांव में व्यापारी को बेच देगा. ऐसे लोग अच्छे दाम मिलने की आशा में इतना दूर भला कैसे जा पाएंगे? दस क्विंटल धान या दस बोरी कपास को एक किराये के ट्रैक्टर पर लाद कर अच्छे दाम पाने की लालसा में भला ऐसा छोटा किसान कैसे किसी दूर बाजार तक जा पाएगा? अपनी फसल की अच्छी कीमत की आशा में भला वह कितना इंतजार कर पाएगा? आज भी तेलंगाना के किसान अपनी उपज अच्छी कीमत पाने के लिए दूर तक जाने की स्थिति में नहीं है. कृषि मंडियां अगर खत्म कर दी जाती हैं तो किसानों की दुर्दशा हो जाएगी.

केंद्र सरकार का कहना है कि पंजाब और हरियाणा के दलालों के अलावा एक भी किसान को इन कानूनों से कोई नुकसान नहीं पहुंचेगा. आपका क्या कहना है?

यह सच नहीं है. इन कानून का बुरा असर पूरे देश में महसूस होगा. पंजाब की समस्या थोड़ी अलग है. पंजाब की कृषि उपज का लगभग 84 प्रतिशत धान और गेहूं है. उनकी उपज के 95 प्रतिशत पर उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता है. पंजाब में धान के बाद गेहूं उगाया जाता है, क्योंकि उन्हें इनके न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाता है. विडंबना यह है कि पंजाब धान उगाता तो है मगर उसका उपभोग नहीं करता. वह अपने खाने के लिए कुछ भी नहीं रखता और धान की सारी की सारी फसल बेच देता है. ऐसा दूसरे राज्यों में नहीं है. किसान अपनी जरूरत के लिए रख कर बाकी धान बेचता है. आंध्र प्रदेश में कृषि क्षेत्र के 40 प्रतिशत हिस्से में धान की फसल होती है. तेलंगाना में कपास की व्यापक खेती होती है. हालांकि, पिछले एक साल और इस साल धान की खेती भी काफी बढ़ी है.

समस्या केवल धान और गेंहू के किसानों की नहीं है. आंध्र प्रदेश के अनंतपुर जिले का उदाहरण लें, जहां मूंगफली मुख्य फसल है. पिछले कई दशक से हम मूंगफली का विकल्प विकसित करने की बात सुन रहे हैं. विकल्प के रूप में वहां के किसान पपीता और अन्य फल उगा रहे हैं, लेकिन उगाने वाले को उचित मूल्य नहीं मिल रहा है. वहां उपज को गोदाम में रखने और उसके विक्रय और मार्केटिंग की कोई व्यवस्था नहीं है. तेलंगाना में कपास के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य है. फिर भी हर साल कपास उगाने वाले किसानों को समस्याओं का सामना करना पड़ता है. इस परिस्थिती को सुधारने के बदले सरकार ऐसे कानून लाई हैं, जो बाजार पर नियंत्रण हटाकर निजी व्यापारियों के हाथ में करने का रास्ता प्रशस्त करते हैं. इन कानूनों की असर हर राज्यों को महसूस होगा.

हमें बताया जा रहा है कि नए कानूनों की वजह दो प्रकार के बाजार विकसित होंगे. यह भी कहा जा रहा है अलग-अलग प्रकार के नियम बनाए जाएंगे. यह कैसे संभव है?

हां, कृषि बाजार समितियां होंगी, लेकिन निजी व्यापारी और व्यक्तियों को इस बात की छूट होगी कि वह इन कृषि बाजार समिति के बाहर से माल खरीद सकेंगे.

इसका मतलब है दो प्रकार के बाजार होंगे. ऐसे में व्यापारियों पर न्यूनतम समर्थन मूल्य कैसे लागू किया जा सकेगा?

केंद्र सरकार ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है, जो व्यापारी को कृषि उपज एक निश्चित मूल्य पर खरीदने को बाध्य कर सके. बल्कि नए कानून इस लिए लाए गए हैं कि खुले बाजार को छूट मिले. कृषि बाजार समिति के भीतर नियंत्रित और बाहर अनियंत्रित बाजार होगा. दोनों बाजारों में अलग-अलग शुल्क और नियम लागू होंगे. नतीजा यह होगा कि व्यापारी नियंत्रित बाजार छोड़कर अपना व्यवसाय अनियंत्रित बाजार में करेंगे. पहले ही यह आरोप हैं कि कृषि बाजार समिति के बाजार में भी व्यापारी आपस में मिलकर किसानों को उनकी तय कीमत पर अपनी उपज बेचने को मजबूर कर रहे हैं.

यही तरीका वे कानून बनने के बाद बाहर भी अख्तियार करेंगे. कृषि बाजार समिति की मंडी में अगर ये व्यापारी आपस में साठ-गांठ करते पाए जाते हैं तो हम इसकी शिकायत प्रशासन से कर सकते हैं, लेकीन अगर वे ऐसा मंडी से बाहर करते हैं तो इसकी सुनवाई करने वाला कोई नहीं होगा.

कृषि बाजार समिति मंडी के बाहर किसानों को अपनी उपज की कीमत, वजन गीलापन, गुणवत्ता और ग्रेड को लेकर समस्याओं का सामना करना होगा. आदिवासी इलाके में और दूर-दराज के क्षेत्रों में इस प्रकार का शोषण चलता ही रहता है. नए कानून किसानों को इस प्रकार की समस्याओं का सामना करने पर मजबूर कर देंगे. नए कानूनों से यह स्पष्ट है कि सरकार कृषि उपज मंडियों को बिना खत्म किए न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था खत्म करना चाहती है.

पंजाब, हरियाणा और पूर्वी उत्तर प्रदेश के सिवा कृषि बाजार समितियां कुल उपज का केवल 20 प्रतिशत ही माल किसानों से खरीदती हैं. फिर भी इस सीमित दायरे में किसान न्यूनतम मूल्य की मांग कर सकते हैं. नए कानूनों के लागू होने के बाद सरकार तो यह दावा करेगी कि न्यूनतम समर्थन मूल्य हैं, लेकिन इन्हें वह अनियंत्रित बाजार में लागू नहीं कर सकती.

केंद्र का यह दावा है कि स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशों को पूरी तरह से लागू कर दिया है और यह कि पूर्व की यू पी ए सरकार ने उन्हें खारिज कर दिया था?

यह पूरी तरह से झूठा प्रचार है. आज जो हो रहा है वह स्वामीनाथन रिपोर्ट के सुझाव से बिल्कुल उलट हो रहा है. स्वामीनाथन आयोग ने न्यूनतम समर्थन मूल्य का आकलन कैसे किया जाए इसका स्पष्ट विवरण दिया था और इस पर 50 प्रतिशत अधिक लगा कर किसानों को देने की सिफारिश की थी. वे मूल्य गणना की पद्धति पर आयोग के सुझाव को विकृत कर रहे हैं. आयोग की सिफारिश को लागू करने के लिए वह राशि कैसे हो सकती है? मूल्य तय करते समय, आयोग ने निवेश और भूमि के किराए पर ब्याज सहित सभी पहलुओं को ध्यान में रखने को कहा है. स्वामीनाथन आयोग की सिफारिशें केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य तक ही सीमित नहीं हैं. आयोग ने गोदामों और अन्य बुनियादी सुविधाओं पर भी कई सिफारिशें कीं हैं. केंद्र जो कर रहा है वह आयोग द्वारा अनुशंसित किए का खुला उल्लंघन है.

जब कानून किसानों के पक्ष में नहीं है तो क्या राज्य सरकारें उन्हें लागू नहीं करने के कदम उठा सकती हैं ?

इसमें राज्य सरकारों की कोई भूमिका नहीं है. वैसे कृषि राज्यों का विषय है. बीज की आपूर्ति से लेकर उपज की खरीद तक राज्य के कार्य क्षेत्र में है, लेकिन केंद्र ने ये नए कानून उसके पक्ष में जो नियम है उसका फायदा उठा कर लाए हैं. पूर्व में सरकार एक मोडेल कानून बनाकर उसे राज्य सरकारों को यह कह कर भेजती थी कि इसी के आधार पर वह अपने राज्य में कानून बनाए. राज्यों को इसका पालन करना होता है. किसान अपनी जरूरतों के लिए राज्य सरकार की ओर देखता है जैसे कि बीज, उर्वरक, कृषि ऋण, उपज की खरीद आदि के लिए, लेकिन केंद्र राज्य की सत्ता के ऊपर जा कर काम कर रहा है. अगर नियंत्रित बाजार ही नहीं रहा तो राज्य सरकार का कोई नियंत्रण नहीं रहेगा.

केंद्र के लिए यह बिल्कुल अनुचित है कि वह राज्य की भूमिका को नकारते हुए ऐसा करे. केंद्र ने व्यापार के नए नियम बनाए हैं, जो कृषि बाजार मंडियों की परिधि में नहीं आते. इसीलिए कुछ राज्य यह कह रहे हैं कि जहां भी कृषि उपज बिकता है वह कृषि बाजार समिति के नियमों के तहत आता है. नए कानून बनाने से पहले केंद्र ने किसानों से सलाह मशवरा नहीं किया है. उसने राज्य सरकारों की भी सलाह नहीं ली है. कल इसका खामियाजा किसानों को भुगतना होगा और राज्यों को इसका जवाब देना होगा.

उदारीकरण की अपनी नीति के विस्तार के हिस्से के रूप में केंद्र ने इन कानूनों को बड़े व्यापारियों को तस्वीर में लाने के लिए लाया है. इसीलिए इसने राज्यों को पूरी तरह से अलग कर दिया है.

किसानों को संतुष्ट करने के लिए केंद्र को क्या करना चाहिए?

जवाब- सरकार को चाहिए कि वह कृषि क्षेत्र में निवेश बढ़ाए. महाकाय कॉर्पोरेट समूहों को एक लाख करोड़ अगले दस साल तक संरचना के नाम पर देने के बदले सरकार को यह काम अपने कंधे पर उठा लेना चाहिए. कृषि से संबंधित अन्य क्षेत्रों को बढ़ावा देना चाहिए. इस क्षेत्र पर निर्भर लोगों की संख्या बढ़ा कर 25 प्रतिशत करनी चाहिए. देश में प्रति व्यक्ति जमीन की मालिकी 2.5 ऐकर है. इतनी छोटी जमीन से किसान अपनी जरूरत की कमाई नहीं कर सकता. प्रति किसान परिवार की सालाना आमदनी 1.25 लाख रुपये हैं. पंजाब में यह 3.4 लाख रुपये हैं.

2004-05 और 2017-18 के बीच पांच करोड़ लोगों ने खेती किसानी छोड़ दी है. हाल में लाखों लोग तालाबंदी की घोषणा के बाद लंबी दूरी तय कर अपने अपने गांव वापस लौटे. इनमें से ज्यादातर किसान थे. देश में कृषि आधारित आय में केवल एक प्रतिशत वृद्धि हुई है जबकि कृषि क्षेत्र मे 15 प्रतिशत वृद्धि हुई है.

अमेरिका में केवल दो प्रतिशत लोग कृषि पर आधारित हैं. फिर भी वह देश अपने उपभोग से डेढ़ गुना ज्यादा पैदा करता है. छोटे और सीमांत किसान जापान में बहुसंख्यक हैं. वहां आबादी के 15 प्रतिशत कृषि पर आधारित हैं.

हमारे देश को भी कृषि आधारित क्षेत्रों पर ध्यान देना चाहिए. कैसे कोई किसान जिसके पास तीन ऐकर से कम जमीन है, अपने परिवार की शिक्षा, स्वास्थ्य संबंधी और अन्य जरूरतों को पूरा कर सकता है?

किसानों को शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ करानी चाहिए. किसानों के दुख दर्द को कम करने के बदले ये नए कानून उन्हें और दरिद्र बनाने की ओर घसीट ले जाएंगे.

Last Updated : Dec 23, 2020, 1:32 PM IST
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