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इलाहाबाद हाईकोर्ट का महत्वपूर्ण फैसला, बीवी- बच्चों की देखभाल करने में अक्षम मुस्लिम को दूसरी शादी का हक नहीं

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अहम फैसला (allahabad high court judgement) लेते हुए कहा है कि बीवी-बच्चों की देखभाल करने में अक्षम मुस्लिम को दूसरी शादी (Muslim second marriage right) का हक नहीं है.

इलाहाबाद हाईकोर्ट
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Published : Oct 11, 2022, 4:25 PM IST

Updated : Oct 11, 2022, 6:56 PM IST

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश (allahabad high court order) में कहा है कि इस्लामिक कानून एक बीवी के रहते मुस्लिम को दूसरी शादी (Muslim second marriage right) करने का अधिकार देता है. मुस्लिम को बीवी की मर्जी के खिलाफ कोर्ट के माध्यम से उसे साथ रहने के लिए बाध्य करने का आदेश पाने का अधिकार नहीं है. कोर्ट ने कहा की बीवी बच्चों की देखभाल कर पाने में असमर्थ मुस्लिम को दूसरी शादी करने का हक नहीं है.

यह फैसला न्यायमूर्ति एसपी केसरवानी एवं न्यायमूर्ति राजेंद्र कुमार की खंडपीठ ने अजीजुर्रहमान की अपील खारिज करते हुए दिया है. कोर्ट ने कहा बीवी की सहमति के बगैर बिना बताए दूसरी शादी करना पहली बीवी के साथ क्रूरता है. कोर्ट यदि पहली बीवी की मर्जी के खिलाफ पति के साथ रहने को बाध्य करती है तो यह महिला के गरिमामय जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लघंन होगा.

कोर्ट ने कुरान की सूरा-4 आयत-3 के हवाले से कहा कि यदि मुस्लिम अपनी बीवी और बच्चों की सही देखभाल करने में सक्षम नहीं है तो उसे दूसरी शादी करने की इजाजत नहीं होगी. परिवार न्यायालय संत कबीरनगर द्वारा पहली बीवी हमीदुन्निशा उर्फ शफीकुंनिशा को शौहर के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ रहने के लिए आदेश देने से इनकार करने को सही करार दिया है.

कोर्ट ने परिवार न्यायालय के फैसले व डिक्री को इस्लामिक कानून के खिलाफ मानते हुए रद्द करने की मांग में दाखिल प्रथम अपील खारिज कर दी और सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों का हवाला देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है.

अनुच्छेद 14 सभी को समानता का अधिकार देता है. अनुच्छेद 15(2) लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है. कोई भी व्यक्तिगत कानून या चलन संवैधानिक अधिकारों को उल्लंघन नहीं कर सकता. पर्सनल लॉ के नाम पर नागरिकों को संवैधानिक मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. जीवन के अधिकार में गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल है.

कोर्ट ने कहा कि जिस समाज में महिला का सम्मान नहीं, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता. महिलाओं का सम्मान करने वाले देश को ही सभ्य देश कहा जा सकता है. मुसलमानों को स्वयं ही एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने से बचना चाहिए. एक बीवी के साथ न्याय न करने वाले मुस्लिम को दूसरी शादी करने की कुरान ही इजाजत नहीं देता.

मामले के तथ्यों के अनुसार अजीजुर्रहमान और हमीदुन्निशा की शादी 12 मई 1999 को हुई थी. विपक्षी बीवी अपने पिता की एकमात्र जीवित संतान है. उसके पिता ने अपनी अचल संपत्ति अपनी बेटी को दान कर दी. वह अपने तीन बच्चों के साथ 93 वर्षीय अपने पिता की देखभाल करती है. बिना उसे बताये पति ने दूसरी शादी कर ली, उससे भी बच्चे हैं. पति ने परिवार न्यायालय में बीवी को साथ रहने के लिए मुकदमा किया. परिवार न्यायालय ने पक्ष में आदेश नहीं दिया तो हाईकोर्ट में यह अपील दाखिल की गई थी.

यह भी पढ़ें: पांच वर्ष से कम की सेवा में भी हो सकता है अध्यापक का स्थानांतरण: हाईकोर्ट

प्रयागराज: इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक आदेश (allahabad high court order) में कहा है कि इस्लामिक कानून एक बीवी के रहते मुस्लिम को दूसरी शादी (Muslim second marriage right) करने का अधिकार देता है. मुस्लिम को बीवी की मर्जी के खिलाफ कोर्ट के माध्यम से उसे साथ रहने के लिए बाध्य करने का आदेश पाने का अधिकार नहीं है. कोर्ट ने कहा की बीवी बच्चों की देखभाल कर पाने में असमर्थ मुस्लिम को दूसरी शादी करने का हक नहीं है.

यह फैसला न्यायमूर्ति एसपी केसरवानी एवं न्यायमूर्ति राजेंद्र कुमार की खंडपीठ ने अजीजुर्रहमान की अपील खारिज करते हुए दिया है. कोर्ट ने कहा बीवी की सहमति के बगैर बिना बताए दूसरी शादी करना पहली बीवी के साथ क्रूरता है. कोर्ट यदि पहली बीवी की मर्जी के खिलाफ पति के साथ रहने को बाध्य करती है तो यह महिला के गरिमामय जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संवैधानिक अधिकार का उल्लघंन होगा.

कोर्ट ने कुरान की सूरा-4 आयत-3 के हवाले से कहा कि यदि मुस्लिम अपनी बीवी और बच्चों की सही देखभाल करने में सक्षम नहीं है तो उसे दूसरी शादी करने की इजाजत नहीं होगी. परिवार न्यायालय संत कबीरनगर द्वारा पहली बीवी हमीदुन्निशा उर्फ शफीकुंनिशा को शौहर के साथ उसकी मर्जी के खिलाफ रहने के लिए आदेश देने से इनकार करने को सही करार दिया है.

कोर्ट ने परिवार न्यायालय के फैसले व डिक्री को इस्लामिक कानून के खिलाफ मानते हुए रद्द करने की मांग में दाखिल प्रथम अपील खारिज कर दी और सुप्रीम कोर्ट के तमाम फैसलों का हवाला देकर कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत प्रत्येक नागरिक को गरिमामय जीवन व व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है.

अनुच्छेद 14 सभी को समानता का अधिकार देता है. अनुच्छेद 15(2) लिंग आदि के आधार पर भेदभाव करने पर रोक लगाता है. कोई भी व्यक्तिगत कानून या चलन संवैधानिक अधिकारों को उल्लंघन नहीं कर सकता. पर्सनल लॉ के नाम पर नागरिकों को संवैधानिक मूल अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. जीवन के अधिकार में गरिमामय जीवन का अधिकार शामिल है.

कोर्ट ने कहा कि जिस समाज में महिला का सम्मान नहीं, उसे सभ्य नहीं कहा जा सकता. महिलाओं का सम्मान करने वाले देश को ही सभ्य देश कहा जा सकता है. मुसलमानों को स्वयं ही एक पत्नी के रहते दूसरी से शादी करने से बचना चाहिए. एक बीवी के साथ न्याय न करने वाले मुस्लिम को दूसरी शादी करने की कुरान ही इजाजत नहीं देता.

मामले के तथ्यों के अनुसार अजीजुर्रहमान और हमीदुन्निशा की शादी 12 मई 1999 को हुई थी. विपक्षी बीवी अपने पिता की एकमात्र जीवित संतान है. उसके पिता ने अपनी अचल संपत्ति अपनी बेटी को दान कर दी. वह अपने तीन बच्चों के साथ 93 वर्षीय अपने पिता की देखभाल करती है. बिना उसे बताये पति ने दूसरी शादी कर ली, उससे भी बच्चे हैं. पति ने परिवार न्यायालय में बीवी को साथ रहने के लिए मुकदमा किया. परिवार न्यायालय ने पक्ष में आदेश नहीं दिया तो हाईकोर्ट में यह अपील दाखिल की गई थी.

यह भी पढ़ें: पांच वर्ष से कम की सेवा में भी हो सकता है अध्यापक का स्थानांतरण: हाईकोर्ट

Last Updated : Oct 11, 2022, 6:56 PM IST
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