हैदराबाद : 1970 का दशक चम्बल घाटी में दस्युओं की खूंखारता के लिए जाना जाता है. चम्बल के बीहड़ों में घुसकर डाकुओं का सामना कर पाने की पुलिस में हिम्मत नहीं थी. एक- एक गिरोह में सौ -सौ मेंबर हुआ करते थे, वो भी खतरनाक हथियारों से लैस. कभी -कभी पुलिस का आमना -सामना हो भी जाया करता था, तो गैंग अंधेरे का फायदा उठाकर रफूचक्कर हो जाया करता था. आम आदमी के लिए साँझ ढलते ही घरों में कैद हो जाना और सारी रात भय के साये में गुजारना नियति बन गयी थी. पुलिस छोटे-छोटे डाकुओं को ढेर कर अपना मनोबल बनाये रखती थी.
चूँकि मेरा जन्म स्थान जौरा है, तो मेरा बचपन गोलियो से छलनी डाकुओं की मृत देह देख -देख कर बीता है. कई बार कोई ईनामी डाकू मारा जाता था उसे पुलिस थाने के सामने नीम के वृक्ष से खाट (बान की चारपायी ) पर बांधकर रख दिया जाता था. ये वो दौर था जब चम्बल घाटी को बागियों की वजह से कुख्याति मिली. उस वक़्त नक्सली आंदोलन अपना भय पैदा नहीं कर पाया था. लेकिन चम्बल घाटी का नाम सुनकर देशभर में लोग सहम जाते थे. फिल्मों ने डाकुओं की भयावहता को परदे पर घोड़े दौडा -दौड़ा कर और खौफनाक बना दिया था. घोड़ों पर दौड़ते डाकुओं की ग्लैमरस इमेज को ढूंढ़ने 1994 में देश भर का मीडिया जौरा में जमा हो गया, लेकिन वहां बागियों की रील लाइफ नहीं रीयल लाइफ थी.
डाकुओं के डर से थर-थर कांपती थी चम्बल घाटी
खैर मेरा मंतव्य आपको 1960 से 1980 के दशक की उस खूनी भयावहता को दृश्यांकित करना है, जिससे भिंड, मुरैना, शिवपुरी, श्योपुर और राजस्थान के धौलपुर ज़िले तक फैले चम्बल नदी के बीहड़ों में रहने वालों का जीवन जीना दुश्वार था. चम्बल के इतिहास में डाकू मान सिंह, पंचम सिंह, पान सिंह तोमर, मोहर सिंह, माधव सिंह, लोकमन दीक्षित उर्फ़ लुक्का, मलखान सिंह, मान सिंह मल्लाह, दराब सिंह, माधव सिंह, तहसीलदार सिंह, लालाराम, राम आसरे तिवारी उर्फ फक्कड बाबा, निर्भय गुर्जर, रज्जन गुर्जर, पहलवान उर्फ सलीम गुर्जर, अरविंद गुर्जर, रामवीर गुर्जर, राम बाबू गरेडिया, शंकर केवट, मंगली केवट, चंदन यादव, जगजीवन परिहार के अलावा महिला डाकू पुतली बाई, फूलनदेवी, कुसुमा नाइन, सीमा परिहार, मुन्नी पांडेय, लवली पाण्डे, रेनू यादव व सीमा जोशी जैसी दस्यु सुंदरियों के नाम तो आप सभी ने सुन रखे होंगे.
इन सभी गिरोहों ने अपहरण, लूट और हत्याओं को अंजाम देकर चम्बल के बीहडों से लेकर गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और राजधानी दिल्ली तक अपने खौफ को बरकरार रखा. बगियों की चम्बल घाटी में सामानांतर सरकार चलती थी. अपने-अपने प्रभुत्व वाले इलाकों में ये दस्यु सम्राट अदालत (पंचायतें लगाकर ) लगाकर फैसले करते थे. उनकी नजर में जो दोषी था, उन्हें सजा भी दी जाती थी.
इंदिरा गांधी ने की थी समर्पण कराने की पहल
इतने डाकुओं की एक साथ मौजूदगी ने चम्बल घाटी में दस्यु समस्या को विकराल बना दिया था. केंद्र सरकार के पास भी कोई हल नहीं दिख रहा था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तो सम्पूर्ण बीहड़ों पर बम वर्षा कर मटिया मैदान करने तक का प्लान बना लिया था. लेकिन बाद में इस प्लान को ड्रॉप कर दिया गया.
आखिरकार इंदिरा गांधी ने जयप्रकाश नारायण को चम्बल घाटी को शांत कराने यानी बागियों के सरेंडर कराने का जिम्मा सौंपा. उसी वक़्त सुब्बाराव भी जयप्रकाश नारायण और आचार्य विनोभा भावे के संपर्क में आये. उसके बाद चम्बल घाटी को शांत कराने का संकल्प लिया गया, पूरी योजना को धरातल पर उतारने की ज़िम्मेदारी एसएन सुब्बाराव (Salem Nanjundaiah Subba Rao) पर आ गयी.
अहिंसा के मसीहा की बीहड़ों में आमद
गांधीवादी विचारों को स्थापित करने के लिए भाईजी ने 1954 में चंबल में कदम रखा था.1970 में डॉ. एसएन सुब्बाराव ने चम्बल घाटी के मुरैना ज़िला के जौरा में डेरा डाला. वे डाकुओं के बीच रहे, उन्हें काफी समझाया, वे निरंतर बीहड़ों में जाकर डकैतों के संपर्क में रहे और जब वे नहीं माने तो उनके परिवार वालों को लेकर उनके पास पहुंच जाते. शांति के प्रेरक डॉ. सुब्बाराव ने चंबल घाटी में डाकू उन्मूलन के लिए सालों काम किया था. आखिरकार उनका हृदय परिवर्तन कराने में सफल रहे. उस समय के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी से मिलकर उनके लिए खुली जेल स्थापित करवाई. डाकुओं के ऊपर लगे सभी केस माफ करवाए. उनके परिजनों को पुलिस में नौकरी दिलवाई और खेती-बाड़ी के कार्य दिलवाए.
नतीज़तन 14 अप्रैल 1972 को जौरा के गांधी सेवाश्रम में विश्वव्यापी सरेंडर कार्यक्रम आयोजित किया गया, जिसमें में मोहर सिंह और माधो सिंह जैसे बड़े डकैतों समेत करीब 654 डकैतों ने समाजवादी नेता जयप्रकाश नारायण के सामने सामूहिक आत्मसमर्पण किया था. इतना ही नहीं अपने गांधीवादी विचारधारा के बलबूते उन्होंने जोरा आश्रम से 450 डकैत और राजस्थान से 100 डकैतों को गांधी की तस्वीर के सामने हथियार सहित आत्मसमर्पण भी करवाया था.
गोलियों के बीच बैठे रहे भाई जी
भाई जी अहिंसा वादी शख्स थे. गांधी के पद चिन्हों को उन्होंने कैसे फॉलो किया, उसकी एक बानगी यहां बताना ज़रूर चाहूंगा. उत्तरप्रदेश के बटेश्वर में डाकुओं से सरेंडर की बातचीत चल रही थी, एक गैंग से बात हो रही थी तभी दूसरे गिरोह ने आकर वहां फायरिंग शुरू कर दी, दोनों गिरोह एक दूसरे पर गोलियां बरसाने लगे. गोली बारी की वजह से वहां भगदड़ की स्थिति बन गई. लोग अपनी जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे. लेकिन अहिंसा वादी संत वहीं प्रार्थना की मुद्रा में बैठे रहे. ये देख कर दोनों गिरोह ने फायरिंग बंद कर दी. बाद में लोगों ने भाई जी से पूछा आपने ताबड़तोड़ गोलियों के बीच खुद को बचाने की कोशिश नहीं की ? भाई जी का जवाब सुनकर सब विस्मय से उन्हें देखने लगे. उन्होंने कहा कि जब उन लोगों ने कहा कि गोली ही खाने हैं, तो भाग कर क्यों खाऊं, बैठकर ही खाऊंगा, मैं यहां हिंसा ख़त्म करने के लिए उन्हें मनाने आया था. ऐसे थे शांति के दूत, जिन्होंने असल में अहिंसा वादी होकर सबको दिखाया.
इसके बाद सुब्बाराव की छवि गांधीवादी संत की बन गई थी. लोगों ने भाई जी को लेकर काफी जागरूकता अभियान भी चलाए. उन्होंने 13 साल की उम्र में स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया. वे गांधी के विचारों से काफी प्रेरित थे. प्राकृतिक चिकित्सा, प्राकृतिक चीजों पर ज़ोर देते थे और इसको लेकर लोगों को जागरूक करने का काम किया. सर्वधर्म प्रार्थना करना उनके स्वभाव का हिस्सा था.
सुब्बाराव ने गांधी सेवा संघ की स्थापना कर हजारों लोगों को रोजगार दिया. वह राष्ट्रीय सेवा योजना के संस्थापक सदस्य थे. उन्होंने राष्ट्रीय युवा परियोजना की भी स्थापना की. एस.एन. सुब्बाराव महज 13 साल की उम्र में आजादी के अंतिम लड़ाई से जुड़ गए. उन्होंने 1942 के आंदोलन में दीवारों पर अंग्रेजों भारत छोड़ो लिखकर ब्रिटिश सरकार का विरोध किया और जेल गए. वह महात्मा गांधी के आदर्शों को आत्मसात करने वाले गांधीवादी थे. डॉ. सुब्बाराव के योगदान को देखते हुए सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित किया था. युवाओं में एकजुटता और देशप्रेम जगाने के लिए डॉ. सुब्बाराव जीवनभर काम करते रहे. डॉ. सुब्बाराव गांधी सेवा आश्रम, जौरा, मुरैना के संस्थापक होने के साथ ही गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के कई सालों तक प्रमुख के पद पर भी रहे.
"भाई जी" के साथ यादगार पल
1994 में जौरा ( मुरैना ) स्थित महात्मा गांधी सेवा आश्रम में आदरणीय सुब्बाराव ने आत्म समर्पित बागियों का एक सम्मलेन आयोजित किया था, उसी की तैयारियों को लेकर मुझे भाई जी से रूबरू होने का मौका मिला. यूं तो मेरा और भाई जी का बहुत साथ रहा है, क्योंकि जिस जौरा को उन्होंने अपनी कर्म भूमि बनाया, वही जौरा मेरी जन्म भूमि है. गांधी आश्रम में अक्सर उनके साथ प्रार्थना सभा में शिरकत करना, श्रमदान करना, चरखा चलाकर सूत कातना और उनके साथ शिविरों में हिस्सा बनना मेरे और मेरी मित्र मंडली के लिए एक तरह की दिनचर्या थी. लेकिन बतौर मीडिया पर्सन उनका साक्षात्कार लेना एक अलग अनुभव था. उस सम्मलेन में रूपा सिंह, तहसीलदार सिंह, मलखान सिंह, पूरन सिंह जैसे कई ईनामी आत्मसमर्पित बागियों ने भागीदारी की थी. इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के लिए आत्मसमर्पित बागियों का जमावड़ा एक अचम्भे जैसा था और वो भी चम्बल घाटी में. जौरा गांधी आश्रम में जितने बागी जमा हुए थे, उन सभी के बारे में युवा पत्रकारों ने या तो सुन रखा था या फिल्मों के जरिये कुछ छवियां दिमाग में बसा रखी थीं. लेकिन वहां उन्हें उस वक़्त के डाकुओं को साक्षात् देखने का मौका मिला था. मुझे याद है कई महिला रिपोर्टर्स वहां मौजूद आत्मसमर्पित बागियों से डर की वजह से इंटरव्यू तक नहीं कर पा रही थीं. कइयों के लिए मैंने स्वयं सवाल जवाब कर के दिए थे. आदरणीय भाई जी ( दिवंगत सुब्बाराव जी ) की ही पहल थी कि आत्मसमर्पित बागियों के पुनरुत्थान की शर्तें पूरी हुई या नहीं, उसी दिशा में पहल करने के लिए ही उस सम्मलेन का आयोजन किया गया था.
अपने मक़सद को अंजाम दिए बगैर नहीं चैन से नहीं बैठने वाले संत का ही नाम था एस एन सुब्बाराव यानी हम सबके "भाई जी"
आदिवासियों के भी मसीहा बनकर उभरे भाईजी
सुब्बाराव ने गांधी सेवा संघ की स्थापना कर हजारों लोगों को रोजगार दिया. वह राष्ट्रीय सेवा योजना के संस्थापक सदस्य थे. उन्होंने राष्ट्रीय युवा परियोजना की भी स्थापना की. एस.एन. सुब्बाराव महज 13 साल की उम्र में आजादी के अंतिम लड़ाई से जुड़ गए. उन्होंने 1942 के आंदोलन में दीवारों पर अंग्रेजों भारत छोड़ो लिखकर ब्रिटिश सरकार का विरोध किया और जेल गए. वह महात्मा गांधी के आदर्शों को आत्मसात करने वाले गांधीवादी थे. डॉ. सुब्बाराव के योगदान को देखते हुए सरकार ने उन्हें पद्मश्री सम्मान से भी सम्मानित किया था. युवाओं में एकजुटता और देशप्रेम जगाने के लिए डॉ. सुब्बाराव जीवनभर काम करते रहे. डॉ. सुब्बाराव गांधी सेवा आश्रम, जौरा, मुरैना के संस्थापक होने के साथ ही गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली के कई सालों तक प्रमुख के पद पर भी रहे. डा सुब्बा राव ने आदिवासियों को मूल विकास की धारा में लाने के लिए वह अपनी टीम के साथ लगातार काम करते रहे.
सुब्बाराव ने गांधी के विचारों को न केवल हिंदुस्तान में बल्कि विदेशों में भी पहुंचाने का काम किया. गांधीवादी विचारधारा के प्रणेता रहे सुब्बाराव को कई दिग्गज अपना आदर्श मानते थे. ग्वालियर चंबल संभाल में डा सुब्बा राव साथियों के बीच भाईजी के नाम से प्रसिद्ध थे. हमेशा सकारात्मक वातावरण और प्राकृतिक पद्धति के पक्षधर रहे सुब्बाराव को हमेशा याद किया जाएगा.
गांधी सेवा आश्रम ही बन गया उनका अंतिम आश्रम
भाई जी ने जौरा में गांधी सेवा आश्रम की स्थापना की और उसे आत्मसमर्पित बागियों का सुधार आश्रम बनाया. कई बागियों ने सज़ा के बाद आश्रम में आकर अपने सेवाएं दीं. इस आश्रम को भाई जी ने अपने अंतिम आश्रम के रूप में चुना. इसलिए उनका अंतिम संस्कार भी जौरा आश्रम में ही किया गया, जिसे बाद में अहिंसा विद्यालय के रूप में विकसित किया जाएगा ऐसे मुझे लगता है और किया भी जाना चहिये, जहां से दुनिया भर में अहिंसा और शान्ति का सन्देश फैले. लोग इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए दिवंगत भाई जी आश्रम आएं और अहिंसा का पाठ सीखें. यही भाई जी को सच्ची श्रद्धाञजलि होगी. भारत ने अपने एक महान अहिंसावादी संत को खो दिया है और चम्बल घाटी के हर नागरिक ने अपने अभिभावक को खो दिया है. देश आज इस दौर से गुजर रहा है उसमें भाई जी जैसे अहिंसावादी राष्ट्रभक्त संत की बेहद ज़रूरत थी , लेकिन काल ने हमें उससे वंचित कर दिया है. ऐसा लगता है मानो देश की रोशनी चली गई, ईटीवी भारत (Etv Bharat ) ऐसे संत को विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता है.