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जागरूकता की जरूरत: पीरियड्स के दौरान कोठरी में रहती हैं महिलाएं, बाहर निकलने की मनाही

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Published : Jul 10, 2021, 11:10 PM IST

साल 2018 में पीरियड्स के प्रति जागरूक करने वाली फिल्म 'पैडमैन' ने खूब तालियां बटोरी थीं. समय के साथ बदलाव आया है. लोग माहवारी पर बात भी करने लगे हैं. पैड्स के विज्ञापनों और उपलब्धता ने भी लड़कियों और महिलाओं को अवेयर किया है. लेकिन ग्रामीण और पिछड़े इलाकों की आधी आबादी आज भी जागरूकता और सुविधा का इंतजार कर रही हैं. पंडो जनजाति की महिलाएं आज भी ये मानती हैं कि वे पीरियड्स में अपवित्र हो जाती हैं. इतना ही नहीं माहवारी के दौरान अलग कमरे में रहती हैं.

माहवारी में आज भी यातनाओं का शिकार होती हैं पंडो जनजाति की महिलाएं
माहवारी में आज भी यातनाओं का शिकार होती हैं पंडो जनजाति की महिलाएं

सूरजपुर: 21वीं सदी है. महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कर रही हैं. लेकिन हमारे आस-पास बहुत कुछ नहीं बदला है. शिक्षा की कमी, जागरूकता का अभाव और मान्यताओं की जंजीरों में जकड़ा समाज आज भी बदलाव की राह देख रहा है. राष्ट्रपति की गोद ली हुई पंडो जनजाति की महिलाएं भी माहवारी के दिनों में ऐसी ही परंपरा निभाती हैं, जो उन्हें घर और परिवार से अलग रखती है.

माहवारी में आज भी यातनाओं का शिकार होती हैं पंडो जनजाति की महिलाएं

घर में एक कमरा उन महिलाओं के लिए अलग से होता है, जिन्हें पीरियड्स होते हैं. 12-13 साल की लड़की से लेकर 45-55 साल की महिला तक माहवारी के दिनों में कोठरी जैसे बने छोटे से अलग कमरे में रहने चली जाती हैं. प्रसव के बाद भी ये कमरा इन महिलाओं का तब तक ठिकाना होता है, जब तक ब्लीडिंग बंद न हो जाए. इस कमरे में वे न ठीक से बैठ पाती हैं और न सो पाती हैं.

घर के दूसरे सदस्य देते हैं खाना और पानी

जागरूकता की कमी का नतीजा ये है कि महिलाएं मानती हैं कि रजस्वला होने के बाद वे अपवित्र हो जाती हैं. पंडो जनजाति की महिला इन्द्रासो बाई बताती हैं कि वे बुजुर्गों की परंपरा का पालन कर रही हैं. पीरियड्स होने पर और प्रसव के बाद महिलाएं अलग कमरे में रहने जाती हैं. महावारी के एक हफ्ते बाद और डिलीवरी के एक महीने बाद लड़कियां और औरतें उस कमरे से निकलती हैं. खाना और पानी घर के दूसरे लोग देते हैं. हैरानी की बात ये है कि इन्द्रासो बाई कहती हैं उन्हें इस परंपरा से कष्ट नहीं है.

दूसरी महिला प्यासो बाई कहती हैं कि माहवारी के दौरान अलग कमरे में रहने से परेशानी तो होती है लेकिन पुरानी परंपरा है तो निभा रही हैं. खाना मिलता है तो खा लेती हैं नहीं तो इंतजार करती हैं. वे कहती हैं पुराने लोग ऐसे ही चलाते थे, तो हम लोग भी उसी का पालन कर रहे हैं.

'लोगों को जागरूक करने की जरूरत'

कुछ समाजसेवी महिलाओं ने भी पंडो महिलाओं को इस कुरूति को लेकर जागरूक करने का प्रयास किया लेकिन वे भी सफल नहीं हो पाईं. शिक्षक ज्योति कुशवाह ने कहा कि जागरूकता अभियान चलाकर इन महिलाओं को समझाना चाहिए. साफ-सफाई के लिए भी अवेयर करना चाहिए. ज्योति बताती हैं कि उन लोगों ने भी गांव की बच्चियों और महिलाओं को समझाने की कोशिश की लेकिन वे हां में सिर तो हिलाती हैं लेकिन मानती नहीं.

धीरे-धीरे आएगा बदलाव: कलेक्टर

जिले के कलेक्टर डॉक्टर गौरव कुमार सिंह कहते हैं कि ये लोग अपनी परंपराओं के प्रति लगाव रखते हैं. हमारा उद्देश्य उनकी परंपराओं से छेड़छाड़ किए बिना धीरे-धीरे जागरूक करना है. कलेक्टर ने कहा कि आने वाले वक्त में उसी जनजाति के पढ़े-लिखे बच्चों की काउंसिलिंग करके, स्वास्थ्य और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के जरिए मोटिवेट करने की कोशिश करेंगे. इस प्रक्रिया में समय लगेगा लेकिन वैज्ञानिक तरीके से सॉल्यूशन निकालने की कोशिश करेंगे.

सूरजपुर: 21वीं सदी है. महिलाएं अपने अधिकारों के लिए आवाज बुलंद कर रही हैं. लेकिन हमारे आस-पास बहुत कुछ नहीं बदला है. शिक्षा की कमी, जागरूकता का अभाव और मान्यताओं की जंजीरों में जकड़ा समाज आज भी बदलाव की राह देख रहा है. राष्ट्रपति की गोद ली हुई पंडो जनजाति की महिलाएं भी माहवारी के दिनों में ऐसी ही परंपरा निभाती हैं, जो उन्हें घर और परिवार से अलग रखती है.

माहवारी में आज भी यातनाओं का शिकार होती हैं पंडो जनजाति की महिलाएं

घर में एक कमरा उन महिलाओं के लिए अलग से होता है, जिन्हें पीरियड्स होते हैं. 12-13 साल की लड़की से लेकर 45-55 साल की महिला तक माहवारी के दिनों में कोठरी जैसे बने छोटे से अलग कमरे में रहने चली जाती हैं. प्रसव के बाद भी ये कमरा इन महिलाओं का तब तक ठिकाना होता है, जब तक ब्लीडिंग बंद न हो जाए. इस कमरे में वे न ठीक से बैठ पाती हैं और न सो पाती हैं.

घर के दूसरे सदस्य देते हैं खाना और पानी

जागरूकता की कमी का नतीजा ये है कि महिलाएं मानती हैं कि रजस्वला होने के बाद वे अपवित्र हो जाती हैं. पंडो जनजाति की महिला इन्द्रासो बाई बताती हैं कि वे बुजुर्गों की परंपरा का पालन कर रही हैं. पीरियड्स होने पर और प्रसव के बाद महिलाएं अलग कमरे में रहने जाती हैं. महावारी के एक हफ्ते बाद और डिलीवरी के एक महीने बाद लड़कियां और औरतें उस कमरे से निकलती हैं. खाना और पानी घर के दूसरे लोग देते हैं. हैरानी की बात ये है कि इन्द्रासो बाई कहती हैं उन्हें इस परंपरा से कष्ट नहीं है.

दूसरी महिला प्यासो बाई कहती हैं कि माहवारी के दौरान अलग कमरे में रहने से परेशानी तो होती है लेकिन पुरानी परंपरा है तो निभा रही हैं. खाना मिलता है तो खा लेती हैं नहीं तो इंतजार करती हैं. वे कहती हैं पुराने लोग ऐसे ही चलाते थे, तो हम लोग भी उसी का पालन कर रहे हैं.

'लोगों को जागरूक करने की जरूरत'

कुछ समाजसेवी महिलाओं ने भी पंडो महिलाओं को इस कुरूति को लेकर जागरूक करने का प्रयास किया लेकिन वे भी सफल नहीं हो पाईं. शिक्षक ज्योति कुशवाह ने कहा कि जागरूकता अभियान चलाकर इन महिलाओं को समझाना चाहिए. साफ-सफाई के लिए भी अवेयर करना चाहिए. ज्योति बताती हैं कि उन लोगों ने भी गांव की बच्चियों और महिलाओं को समझाने की कोशिश की लेकिन वे हां में सिर तो हिलाती हैं लेकिन मानती नहीं.

धीरे-धीरे आएगा बदलाव: कलेक्टर

जिले के कलेक्टर डॉक्टर गौरव कुमार सिंह कहते हैं कि ये लोग अपनी परंपराओं के प्रति लगाव रखते हैं. हमारा उद्देश्य उनकी परंपराओं से छेड़छाड़ किए बिना धीरे-धीरे जागरूक करना है. कलेक्टर ने कहा कि आने वाले वक्त में उसी जनजाति के पढ़े-लिखे बच्चों की काउंसिलिंग करके, स्वास्थ्य और आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के जरिए मोटिवेट करने की कोशिश करेंगे. इस प्रक्रिया में समय लगेगा लेकिन वैज्ञानिक तरीके से सॉल्यूशन निकालने की कोशिश करेंगे.

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