झुंझुनू. 'परिंदों में फिरका परस्ती नहीं देखी, कभी मंदिर में जा बैठे कभी मस्जिद में जा बैठे' कुछ इसी अंदाज में शायर ने गंगा-जमुनी तहजीब को अपनी कलम से निखारा था और उस तहजीब को प्रदेश के झुंझुनू जिले में भी देखा जा सकता है.
बता दें कि जिले में कमरुद्दीन शाह की दरगाह सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बनी हुई है. यहां एक ऊंचे टीले पर जगमगाते स्थान को देखकर आपको वहम हो सकता है कि किसी मंदिर में दीपावली के दीप जल रहे होंगे, लेकिन यह मंदिर नहीं दरगाह है जो सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल बनी हुई है. दरगाह में कमरूद्दीन शाह दरगाह के गद्दीनशीन एजाज नबी खुद दीप जलाते नजर आ आएं तो बड़ी संख्या में शहरवासी भी उनके साथ दीपावली के दीप जलाकर शहर की गंगा-जमुनी तहजीब को रोशन करते दिखते हैं.
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बताते हैं कि दरगाह में दिवाली मनाने की यह परंपरा करीब 250 साल पुरानी है. इसकी कहानी ये है कि किसी जमाने में सूफी संत कमरूद्दीन शाह हुआ करते थे, जिनकी झुंझुनूं से चचलनाथ टीले के संत चंचलनाथ जी के साथ गहरी मित्रता थी. कहते हैं कि दोनों दोस्तों का एक दूसरे से मिलने का मन होता तो एक दरगाह से और दूसरा संत आश्रम से गुफा से निकलते दोनों बीच रास्ते में गुदड़ी बाजार में मिलते थे.
मुस्लिम समुदाय नमाज पढ़ते है चंचलनाथ टीले पर
दोनों दोस्तों के समय शुरू की गई परंपरा को दोनों ही समुदाय उसी विशाल प्रेम भरे हृदय से निभाते हैं. संत कमरूद्दीन शाह और संत चंचलनाथ उस जमाने में एक दूसरे के यहां होने वाले विशेष कार्याक्रमों में शामिल होते थे. उन्हीं की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अब दरगाह में न केवल दिवाली मनाई जाती है बल्कि चंचलनाथ टीले के कार्यक्रम में भजन के साथ-साथ कव्वाली भी गूंजती है, ईद पर नमाज पढ़ी जाती है. दोनों संतों ने यह परंपरा लोगों सांप्रदायिक सौहार्द और कौमी एकता का संदेश देने के लिए शुरू की थी, जो आज भी जारी है.
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दोनों समाज के लोग होते शामिल
दरगाह पर हुए इस दीपोत्सव कार्यक्रम में ना केवल मुस्लिम बल्कि हिंदू समाज के लोग भी शामिल हुए, जिन्होंने मुस्लिम भाइयों के साथ पूरे उत्साह के साथ दिवाली मनाई. सालों पहले हजरत कमरूद्दीन शाह और चंचलनाथ टीले के महंत चंचलनाथ जी की दोस्ती ने ही सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल पेश की, जो आज भी सदियों बाद जारी है.