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जानिए छत्तीसगढ़ में गजल 'सम्राट' कहलाने वाले जीएसटी कमिश्नर अजय पांडेय कैसे बने शायर? - Jagjit Singh

छत्तीसगढ़ में उर्दू शायरी में अलग मुकाम हासिल करने वाले जीएसटी कमिश्नर और एडिशनल डायरेक्टर जनरल अजय पांडेय ने ETV भारत से बातचीत की है. उन्होंने उर्दू से उनके लगाव के बारे में विस्तार से चर्चा की. पिता के नाम पर हाल ही में उनका एक गजल काफी सुना जा रहा है. सोशल मीडिया पर उसे लाखों लोगों ने सराहा है.

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जीएसटी कमिश्नर अजय पांडेय
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Published : Jun 30, 2021, 7:24 AM IST

रायपुर: छत्तीसगढ़ के जीएसटी कमिश्नर और एडिशनल डायरेक्टर जनरल अजय पांडेय ने अपने प्रोफेशन के अलावा उर्दू शायरी में अलग मुकाम हासिल किया है. अपनी शायरी के लिए अब वो मशहूर भी हो रहे हैं. उन्हें अपने पिता के लिए लिखी गई ग़ज़ल "यूं ही हर बात पर हंसने का बहाना ना आए" को बेहद पसंद किया जा रहा है. इस पहली गैर फिल्मी गजल को काफी ज्यादा संख्या में लोग पसंद कर रहे हैं. तमाम मसलों पर अजय पांडे ने ईटीवी भारत से चर्चा की है.

छत्तीसगढ़ के गजल सम्राट अजय पांडेय

सवाल: जीएसटी कमिश्नर जैसे पद पर रहते हुए इतनी व्यस्तता के बाद भी आप गजल और शेरो-शायरी लिखने के लिए किस तरह समय निकालते हैं, इसकी शुरुआत किस तरह से हुई?

जवाब: बचपन से मेरी फितरत यही फितरत थी. बहुत कच्ची उम्र से उर्दू मेरी पहली मोहब्बत है. मैं उर्दू में लिखता पढ़ता हूं. यह मेरे लिए समझ लीजिए कि सांस लेना जैसा होता है. जब मैं गाड़ी में चल रहा हूं, रात को सो रहा हूं या मुझे नींद नहीं आ रही है, किसी दौरे पर निकले हैं, कार में बैठे हैं, कहीं देख रहे हैं, उस समय भी कोई विचार दिमाग में आता हो, तो उसे याद कर लेता हूं. इस सोच को मै गजल नज्म की शक्ल दे देता हूं. इसमें बहुत वक्त नहीं लगता, उर्दू में एक लफ्ज़ होता है फिलबदेही इंस्टेंट पोएट्री करना, वो मेरी आदत है. एक तरह से वो चलता रहता है, एक तरह से मेरी आदत है कि मैं लिखता रहता हूं.

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सवाल: अभी जिस तरह से आपने गजल लिखी है. अपने पिताजी को समर्पित करते हुए 'यू यूं ही हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए' यह किस तरह की ग़ज़ल है इसमें क्या भावनाएं आपने शेयर की हैं?

जवाब: 2 फरवरी 2013 को मेरे पिताजी का देहांत अचानक हुआ था. उनसे मैं बड़ा अटैच्ड था. उनको मैंने एक गजल समर्पित की थी. 'यूं ही हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए, फिर वह मासूम सा बचपन का जमाना याद आए..काश लौटे मेरे पापा भी खिलौने लेकर, काश मेरे हाथ में फिर से खजाना आ जाए.' इस गजल को कई लोगों ने गाया, लेकिन भोपाल में एक बहुत अच्छे गायक हैं नवांकुर म्यूजिक के संस्थापक अनूप श्रीवास्तव. उन्होंने इस गजल को गाया और सोशल मीडिया के माध्यम से अपने अकाउंट शेयर किया. वैसे तो गैर फिल्मी गजल को लोग कम देखते हैं. अमूमन 5000 से ज्यादा लोग उसको नहीं देखते हैं, लेकिन इस गजल को लोगों ने बेशुमार प्यार दिया. सिर्फ कुछ समय में ही 10 लाख से ज्यादा लोगों ने इस गजल को देखा है. यह एक तरह की इमोशनल गजल है अपने पिता के लिए मैंने लिखी है.

सवाल: आप कई सालों से गजल लिख रहे हैं. आपकी गजलों को देश के तमाम दिग्गज अपनी आवाज दे चुके हैं. इसकी शुरुआत किस तरह से हुई? जगजीत सिंह से लेकर तलत अजीज तक सभी ने आपकी गजलो को पसंद करके आवाज़ दिया है?

जवाब: यह वाकया बड़ा दिलचस्प है. मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में पैदा हुआ हूं. मेरे शहर में तो उर्दू जानने वाले दूर-दूर तक नहीं होते थे. मेरा पूरा खानदान ही हिंदी वालों से भरा पड़ा है. मैं मुकुटधर पांडे जी के परिवार से हूं. सभी हिंदी वाले हैं. लेकिन मेरी मम्मी जगजीत सिंह साहब को बहुत सुनती थी. बचपन से गजल सुनने का मौका मिला. उनकी एक गजल है " दोस्त बन-बन के मुझको मिले हैं मुझको मिटाने वाले" उसमें एक लफ्ज आता है अखलाक, जिसका उर्दू में मतलब होता है नैतिकता. दो लफ्जों में मुझे लगा कि एक लाख कह रहे हैं. मैंने मम्मी से जिज्ञासावश पूछा कि अखलाक को कैसे एक लाख कह रहे हैं? तो मम्मी ने मुझे कहा कि यह बहुत ही प्यारी जुबां है. जब तुम बड़े हो जाओगे तो यह समझ में आएगा. पता नहीं मुझे क्या सूझी तो मैंने उर्दू को पढ़ना शुरू किया. उर्दू की किताबें, ताहिर की किताबें और गालिब की किताबें मैं उठा लाया और पढ़ने लगा. धीरे-धीरे मैंने स्क्रिप्ट सीखे, शेर कहने लगा, फिर निदा फाजली साहब से बचपन में मिलने का मौका मिला. उन्होंने हौसला अफजाई की. बाद में जगजीत सिंह साहब से मुलाकात हुई. उन्होंने भी गजलों को लेकर तारीफ की. फिर तलत अजीज और जितने भी लोग हैं, सबने गजलों को अपनी आवाज दी, यह मेरा सौभाग्य है. फिर बहुत सी गजलें लिखी. जिधर ले आई खामोशी की आवाज, सेंटिमेंटल "मदहोश" की सारी गजलें मैंने ही लिखी थी. इसे पंकज उधास ने आवाज दी. इसमें सात में से छह गजलें मैंने ही लिखा थी. फिर अल्फाज और आवाज का हमने एक कार्यक्रम बनाया, जिसमें बहुत अच्छे गायक हैं राजेश सिंह साहब जैसे. सबसे पहले हमारी चीज जो वायरल हुई थी. वह कभी-कभी, जो कभी-कभी ओरिजिनल वर्जन हमने गाया वह वायरल हो गया था, तो इस तरह से हमारी यात्रा जारी है. मेरा सौभाग्य है कि इस तरह से हमारे साथ सारे लोग जुड़ रहे हैं.

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सवाल: आपने गजलों को लेकर कुछ किताबें भी लिखी है. 'मैं उर्दू बोलूं दूसरे देश में जिस तरह से आप की किताबें का विमोचन भी किया है. इन किताबों के माध्यम से आप किस तरह से लोगों को गजल से जोड़ रहे हैं?

जवाब: उर्दू तो इस देश की धड़कन है. यह बेहद ही खूबसूरत जुबान है. बदकिस्मती है इसे एक फिरके से हमेशा जोड़ देते हैं. यह हमारे तहजीब गंगा-जमुना कि साझा संस्कृति है. इसे किसी फिरके से नहीं जोड़ना चाहिए. छत्तीसगढ़ में जिस क्षेत्र से मैं आता हूं. उर्दू कम बोलते हैं. मैं उर्दू को इतना प्रमोट करता हूं लोग अट्रैक्ट हों उनकी दिलचस्पी बढे. उसी तरह से मैं उसको शेयर करते रहता हूं. मैंने किताबें भी लिखी. मेरी पहली किताब थी 'उम्मीद' जो पंकज उधास साहब ने रिलीज की थी.उसके बाद दूसरी किताब थी 'मैं उर्दू बोलूं' जो कि लंदन में मेयर थे राजेश शर्मा साहब उन्होंने लंदन में विमोचित किया था. फिर अभी उसी का हिंदी वर्जन देवनगरी में भी आ रहा है. इन किताबों में कोशिश करता हूं कि नए जमाने की कुछ नए मिजाज की शायरी बच्चों तक पहुंचा सकूं.

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सवाल: छत्तीसगढ़ में इस तरह के साहित्य को प्रोत्साहन के लिए और क्या प्रयास किए जा सकते हैं? वैसे छत्तीसगढ़ में काफी सारे चीजें चल रही हैं. साहित्य के आगे जनदर्शन बढ़ाने के लिए किस तरह के प्रयास होने चाहिए?

जवाब: छत्तीसगढ़ बहुत ही उर्वरा भूमि है. हम तो जानते हैं कि साहित्य का सदा से एक माहौल रहा है. अच्छी बात है कि बहुत से लोग इसमें काम कर रहे हैं. मेरा मानना है कि एक बेसिक लिटरेचर या साहित्य का एक स्तर होता है. हमें बस उसको मेंटेन करने की कोशिश करनी चाहिए. सोशल मीडिया में कोई एडिटिंग नहीं है. कोई भी लिखने की शुरुआत करने से पहले इस फन की बारीकियों को सीखना ही नहीं चाहता है. तो बिना पत्थर फोड़े फरहाद नहीं बन सकते हैं. बिना मेहनत के उस्ताद नहीं बन सकते. यह मेरा मानना है. पहले किसी फन को यदि आप जानना चाहते हैं. क्या काम करना चाहते हैं. तो उसके बारे में सीख लें और काम करें. जैसे आप क्रिकेट खेलना चाहते हैं तो यदि आप अंपायर को यदि विकेटकीपर कह दे तो यहां अच्छा नहीं लगेगा. उर्दू गजले हैं खासकर इन में क्या होता है कि बड़ी बारीक इनका अरूज़ व्याकरण होता है. पहले खुद सीखे फिर काम करें, तो ज्यादा बेहतर है. ऐसे में ज्यादा लोग समझेंगे सुनेंगे और ज्यादा लोग उससे आपको मकबूलियत मिलेगी ज्यादा एक्सपेक्टेशन मिलेगा. अभी क्या हो रहा पहले धर्मयुग में एक कविता छपवाने के लिए आपको एड़ियां रगड़नी पड़ती थी. क्योंकि संपादन कार्य आला दर्जे का होता था. अभी क्या है सोशल मीडिया है. खुद ही आप लिखते हैं. खुद ही पब्लिश कर देते हैं. किसी भी स्तर की चीजें आ जाती हैं. मेरा बस यही कहना है कि एक बार देख ले थोड़ा छान ले, साहित्य की एक गरिमा है. जो बरकरार रहनी चाहिए.

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सवाल: आपकी मूल कविता है "यह हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए" इसमें मौलिकता किस तरह से अपनी पुरानी यादों को संजोया है. पिता के साथ आपके बीते हुए पलों को अपने बेहद करीब से महसूस किया है?

जवाब: आप स्कूल में पढ़ने जाते हैं तो आपने देखा होगा कि बड़े ही सलीके से आपको पढ़ाया जाता है. आपने देखा होगा कुछ बच्चे होते हैं जो बाहर खेलते रहते हैं. वे बहुत सारी चीजें कुदरत से सीख जाते हैं. तो मैंने इसमें शेर कहा है "हमको कुदरती सिखा देती है कितनी बातें, काश स्कूल को कुदरत से पढ़ा जाए". जिस तरह से वह हमको सिखाती है, सरवाइव करना सिखाती है. तो उस तरह की कुछ शिक्षा हमको मिले. आप लोगों ने अपनी मां को देखा होगा कि हम किसी भी बात से नाराज हो जाए मां मनाती जरूर है. दुनिया वाले रहम दिल नहीं होते हैं. उसमें लिखा था कि " ए काश दुनिया की भी फितरत हो मेरी मां जैसे, जब मैं बिन बात के रूठू तो मनाना आए" तो इस ग़ज़ल में मैंने कोशिश की है कि बचपन की यादों के साथ-साथ बचपन आज किताबों में दब जाता है. हम देखते हैं कि बहुत ज्यादा इंफॉर्मेशन ओवरलोड है और जो बच्चों में बचपन है वह खो रहा है. मेरी यही कोशिश है कि इस बहाने से मैं थोड़ा अपना बचपन याद कर लूं. कविता को याद कर लूं सबको एक संदेश दूं.

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छत्तीसगढ़ के गजल सम्राट अजय पांडेय

सवाल: जीएसटी कमिश्नर जैसे पद पर रहते हुए इतनी व्यस्तता के बाद भी आप गजल और शेरो-शायरी लिखने के लिए किस तरह समय निकालते हैं, इसकी शुरुआत किस तरह से हुई?

जवाब: बचपन से मेरी फितरत यही फितरत थी. बहुत कच्ची उम्र से उर्दू मेरी पहली मोहब्बत है. मैं उर्दू में लिखता पढ़ता हूं. यह मेरे लिए समझ लीजिए कि सांस लेना जैसा होता है. जब मैं गाड़ी में चल रहा हूं, रात को सो रहा हूं या मुझे नींद नहीं आ रही है, किसी दौरे पर निकले हैं, कार में बैठे हैं, कहीं देख रहे हैं, उस समय भी कोई विचार दिमाग में आता हो, तो उसे याद कर लेता हूं. इस सोच को मै गजल नज्म की शक्ल दे देता हूं. इसमें बहुत वक्त नहीं लगता, उर्दू में एक लफ्ज़ होता है फिलबदेही इंस्टेंट पोएट्री करना, वो मेरी आदत है. एक तरह से वो चलता रहता है, एक तरह से मेरी आदत है कि मैं लिखता रहता हूं.

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सवाल: अभी जिस तरह से आपने गजल लिखी है. अपने पिताजी को समर्पित करते हुए 'यू यूं ही हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए' यह किस तरह की ग़ज़ल है इसमें क्या भावनाएं आपने शेयर की हैं?

जवाब: 2 फरवरी 2013 को मेरे पिताजी का देहांत अचानक हुआ था. उनसे मैं बड़ा अटैच्ड था. उनको मैंने एक गजल समर्पित की थी. 'यूं ही हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए, फिर वह मासूम सा बचपन का जमाना याद आए..काश लौटे मेरे पापा भी खिलौने लेकर, काश मेरे हाथ में फिर से खजाना आ जाए.' इस गजल को कई लोगों ने गाया, लेकिन भोपाल में एक बहुत अच्छे गायक हैं नवांकुर म्यूजिक के संस्थापक अनूप श्रीवास्तव. उन्होंने इस गजल को गाया और सोशल मीडिया के माध्यम से अपने अकाउंट शेयर किया. वैसे तो गैर फिल्मी गजल को लोग कम देखते हैं. अमूमन 5000 से ज्यादा लोग उसको नहीं देखते हैं, लेकिन इस गजल को लोगों ने बेशुमार प्यार दिया. सिर्फ कुछ समय में ही 10 लाख से ज्यादा लोगों ने इस गजल को देखा है. यह एक तरह की इमोशनल गजल है अपने पिता के लिए मैंने लिखी है.

सवाल: आप कई सालों से गजल लिख रहे हैं. आपकी गजलों को देश के तमाम दिग्गज अपनी आवाज दे चुके हैं. इसकी शुरुआत किस तरह से हुई? जगजीत सिंह से लेकर तलत अजीज तक सभी ने आपकी गजलो को पसंद करके आवाज़ दिया है?

जवाब: यह वाकया बड़ा दिलचस्प है. मैं छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में पैदा हुआ हूं. मेरे शहर में तो उर्दू जानने वाले दूर-दूर तक नहीं होते थे. मेरा पूरा खानदान ही हिंदी वालों से भरा पड़ा है. मैं मुकुटधर पांडे जी के परिवार से हूं. सभी हिंदी वाले हैं. लेकिन मेरी मम्मी जगजीत सिंह साहब को बहुत सुनती थी. बचपन से गजल सुनने का मौका मिला. उनकी एक गजल है " दोस्त बन-बन के मुझको मिले हैं मुझको मिटाने वाले" उसमें एक लफ्ज आता है अखलाक, जिसका उर्दू में मतलब होता है नैतिकता. दो लफ्जों में मुझे लगा कि एक लाख कह रहे हैं. मैंने मम्मी से जिज्ञासावश पूछा कि अखलाक को कैसे एक लाख कह रहे हैं? तो मम्मी ने मुझे कहा कि यह बहुत ही प्यारी जुबां है. जब तुम बड़े हो जाओगे तो यह समझ में आएगा. पता नहीं मुझे क्या सूझी तो मैंने उर्दू को पढ़ना शुरू किया. उर्दू की किताबें, ताहिर की किताबें और गालिब की किताबें मैं उठा लाया और पढ़ने लगा. धीरे-धीरे मैंने स्क्रिप्ट सीखे, शेर कहने लगा, फिर निदा फाजली साहब से बचपन में मिलने का मौका मिला. उन्होंने हौसला अफजाई की. बाद में जगजीत सिंह साहब से मुलाकात हुई. उन्होंने भी गजलों को लेकर तारीफ की. फिर तलत अजीज और जितने भी लोग हैं, सबने गजलों को अपनी आवाज दी, यह मेरा सौभाग्य है. फिर बहुत सी गजलें लिखी. जिधर ले आई खामोशी की आवाज, सेंटिमेंटल "मदहोश" की सारी गजलें मैंने ही लिखी थी. इसे पंकज उधास ने आवाज दी. इसमें सात में से छह गजलें मैंने ही लिखा थी. फिर अल्फाज और आवाज का हमने एक कार्यक्रम बनाया, जिसमें बहुत अच्छे गायक हैं राजेश सिंह साहब जैसे. सबसे पहले हमारी चीज जो वायरल हुई थी. वह कभी-कभी, जो कभी-कभी ओरिजिनल वर्जन हमने गाया वह वायरल हो गया था, तो इस तरह से हमारी यात्रा जारी है. मेरा सौभाग्य है कि इस तरह से हमारे साथ सारे लोग जुड़ रहे हैं.

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सवाल: आपने गजलों को लेकर कुछ किताबें भी लिखी है. 'मैं उर्दू बोलूं दूसरे देश में जिस तरह से आप की किताबें का विमोचन भी किया है. इन किताबों के माध्यम से आप किस तरह से लोगों को गजल से जोड़ रहे हैं?

जवाब: उर्दू तो इस देश की धड़कन है. यह बेहद ही खूबसूरत जुबान है. बदकिस्मती है इसे एक फिरके से हमेशा जोड़ देते हैं. यह हमारे तहजीब गंगा-जमुना कि साझा संस्कृति है. इसे किसी फिरके से नहीं जोड़ना चाहिए. छत्तीसगढ़ में जिस क्षेत्र से मैं आता हूं. उर्दू कम बोलते हैं. मैं उर्दू को इतना प्रमोट करता हूं लोग अट्रैक्ट हों उनकी दिलचस्पी बढे. उसी तरह से मैं उसको शेयर करते रहता हूं. मैंने किताबें भी लिखी. मेरी पहली किताब थी 'उम्मीद' जो पंकज उधास साहब ने रिलीज की थी.उसके बाद दूसरी किताब थी 'मैं उर्दू बोलूं' जो कि लंदन में मेयर थे राजेश शर्मा साहब उन्होंने लंदन में विमोचित किया था. फिर अभी उसी का हिंदी वर्जन देवनगरी में भी आ रहा है. इन किताबों में कोशिश करता हूं कि नए जमाने की कुछ नए मिजाज की शायरी बच्चों तक पहुंचा सकूं.

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सवाल: छत्तीसगढ़ में इस तरह के साहित्य को प्रोत्साहन के लिए और क्या प्रयास किए जा सकते हैं? वैसे छत्तीसगढ़ में काफी सारे चीजें चल रही हैं. साहित्य के आगे जनदर्शन बढ़ाने के लिए किस तरह के प्रयास होने चाहिए?

जवाब: छत्तीसगढ़ बहुत ही उर्वरा भूमि है. हम तो जानते हैं कि साहित्य का सदा से एक माहौल रहा है. अच्छी बात है कि बहुत से लोग इसमें काम कर रहे हैं. मेरा मानना है कि एक बेसिक लिटरेचर या साहित्य का एक स्तर होता है. हमें बस उसको मेंटेन करने की कोशिश करनी चाहिए. सोशल मीडिया में कोई एडिटिंग नहीं है. कोई भी लिखने की शुरुआत करने से पहले इस फन की बारीकियों को सीखना ही नहीं चाहता है. तो बिना पत्थर फोड़े फरहाद नहीं बन सकते हैं. बिना मेहनत के उस्ताद नहीं बन सकते. यह मेरा मानना है. पहले किसी फन को यदि आप जानना चाहते हैं. क्या काम करना चाहते हैं. तो उसके बारे में सीख लें और काम करें. जैसे आप क्रिकेट खेलना चाहते हैं तो यदि आप अंपायर को यदि विकेटकीपर कह दे तो यहां अच्छा नहीं लगेगा. उर्दू गजले हैं खासकर इन में क्या होता है कि बड़ी बारीक इनका अरूज़ व्याकरण होता है. पहले खुद सीखे फिर काम करें, तो ज्यादा बेहतर है. ऐसे में ज्यादा लोग समझेंगे सुनेंगे और ज्यादा लोग उससे आपको मकबूलियत मिलेगी ज्यादा एक्सपेक्टेशन मिलेगा. अभी क्या हो रहा पहले धर्मयुग में एक कविता छपवाने के लिए आपको एड़ियां रगड़नी पड़ती थी. क्योंकि संपादन कार्य आला दर्जे का होता था. अभी क्या है सोशल मीडिया है. खुद ही आप लिखते हैं. खुद ही पब्लिश कर देते हैं. किसी भी स्तर की चीजें आ जाती हैं. मेरा बस यही कहना है कि एक बार देख ले थोड़ा छान ले, साहित्य की एक गरिमा है. जो बरकरार रहनी चाहिए.

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सवाल: आपकी मूल कविता है "यह हर बात पर हंसने का बहाना आ जाए" इसमें मौलिकता किस तरह से अपनी पुरानी यादों को संजोया है. पिता के साथ आपके बीते हुए पलों को अपने बेहद करीब से महसूस किया है?

जवाब: आप स्कूल में पढ़ने जाते हैं तो आपने देखा होगा कि बड़े ही सलीके से आपको पढ़ाया जाता है. आपने देखा होगा कुछ बच्चे होते हैं जो बाहर खेलते रहते हैं. वे बहुत सारी चीजें कुदरत से सीख जाते हैं. तो मैंने इसमें शेर कहा है "हमको कुदरती सिखा देती है कितनी बातें, काश स्कूल को कुदरत से पढ़ा जाए". जिस तरह से वह हमको सिखाती है, सरवाइव करना सिखाती है. तो उस तरह की कुछ शिक्षा हमको मिले. आप लोगों ने अपनी मां को देखा होगा कि हम किसी भी बात से नाराज हो जाए मां मनाती जरूर है. दुनिया वाले रहम दिल नहीं होते हैं. उसमें लिखा था कि " ए काश दुनिया की भी फितरत हो मेरी मां जैसे, जब मैं बिन बात के रूठू तो मनाना आए" तो इस ग़ज़ल में मैंने कोशिश की है कि बचपन की यादों के साथ-साथ बचपन आज किताबों में दब जाता है. हम देखते हैं कि बहुत ज्यादा इंफॉर्मेशन ओवरलोड है और जो बच्चों में बचपन है वह खो रहा है. मेरी यही कोशिश है कि इस बहाने से मैं थोड़ा अपना बचपन याद कर लूं. कविता को याद कर लूं सबको एक संदेश दूं.

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