रायपुर: राजभवन और सरकार के बीच टकराव के हालात बनते जा रहे हैं. कुछ दशक पहले तक सरकारें विश्वविद्यालय के कुलपतियों का चयन (selection of vice chancellors) करने के लिए उच्च मानकों का पालन करती थी. सरकार के प्रमुख, सत्तारूढ़ पार्टी के प्रमुख और दूसरे नेता योग्यता के आधार पर कुलपति का चयन करते थे. यहीं वजह है कि कुलपति पद की मर्यादा भी समाज में बनी हुई थी, लेकिन अब राजनीतिक दखल के चलते कुलपति की नियुक्ति (Appointment of Vice Chancellor) को लेकर भी सीधे तौर पर सरकार और राजभवन के बीच टकराव जैसे हालात लगातार देखने को मिले हैं. इसे लेकर शिक्षाविदों ने भी चिंता जाहिर करते हुए कहा कि कुलपति जैसे महत्वपूर्ण पद पर योग्यता को दरकिनार किया जाना नहीं चाहिए. इसका दूरगामी परिणाम गंभीर हो सकता है.
छत्तीसगढ़ में सत्ता बदलने के साथ ही कुलपति चयन को लेकर तमाम विश्वविद्यालयों में विवाद के हालात बने हैं. कई विश्वविद्यालयों में नियुक्ति को लेकर तो राजभवन और सरकार के बीच में खुली तौर पर टकराव देखने को मिली है. रायपुर के ही कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय (Kushabhau Thackeray Journalism University, raipur) में प्रोफेसर बलदेव भाई शर्मा (Professor Baldev Bhai Sharma) को नए कुलपति बनाए जाने के बाद से कांग्रेस सरकार में खलबली मच गई थी. आखिरकार राज्यपाल अनुसुइया उइके (Governor Anusuiya Uikey) ने बलदेव शर्मा के नाम को हरी झंडी दी थी. बताया जाता है कि बलदेव शर्मा भारतीय जनता पार्टी के करीबी और आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ) से जुड़े रहे हैं. यहीं नहीं वे आरएसएस (RSS) के मुखपत्र पांचजन्य के संपादक भी रहे हैं.
राज्य सरकार ने लिखा था पत्र
15 साल की सत्ता के दौरान छत्तीसगढ़ में भाजपा और संघ से जुड़े लोगों को ही कुलपति बनाए जाने के बात आती रही है. इसे लेकर कांग्रेस सरकार बदलने के बाद कांग्रेस ने राज्यपाल को भी सुझाव दिया था. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति की नियुक्ति राज्य सरकार के चुनाव के आधार पर राज्यपाल की ओर से की जाती है. सरकार से जुड़े लोगों ने इस में तर्क दिया है कि राज्यपाल अनुसुइया उइके ने सरकार के सुझाव को भी नजरअंदाज किया है. ऐसा न केवल कुशाभाऊ ठाकरे यूनिवर्सिटी (Kushabhau Thackeray University) में ही नहीं, बल्कि पंडित सुंदरलाल शर्मा ओपन यूनिवर्सिटी (Pandit Sunderlal Sharma Open University) के कुलपति के समय भी इस तरह की दिक्कतें आई थी.
दरअसल छत्तीसगढ़ सरकार (Government of Chhattisgarh) के कुलपति नियुक्त करने की जो प्रक्रिया है, उसके मुताबिक कुलपति की नियुक्ति उप धारा ( 2 ) या उपधारा (6) के अधीन गठित समिति द्वारा सिफारिश किए गए पत्रकारिता से जुड़े काम या कम से कम 3 व्यक्ति में से एक कुलाधिपति नियुक्ति के तहत करेंगे. इस मामले में राज्यपाल ने राज्य सरकार से सुझाव तो लिया, लेकिन उसे लागू नहीं किया. आरोप है कि अपने मन से कुलपति की नियुक्ति कर दी गई.
राज्यपाल के पास होता है ये अधिकार
शिक्षाविदों की मानें तो भले ही विश्वविद्यालयो में कुलपति की नियुक्ति (appointment of vice chancellors in universities) का अधिकार राज्यपाल के पास है, लेकिन यह नियुक्ति राज्य सरकार की सहमति के आधार पर ही की जा सकती है. आखिरकार यहां पर नए कुलपति के रूप में बीडी शर्मा को कुलपति बनाया गया, लेकिन कुलपति के नामों को लेकर प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकारों में से किसी का चयन सरकार चाह रही थी. पिछली सरकारों में लगातार कांग्रेस ने आरोप लगाया था कि सरकार अपने करीबी लोगों को विश्वविद्यालयों में कुलपति जैसे पद पर बिठा रही है. पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति के लिए चल रही नामों की लॉबिंग में प्रदेश के कई ऐसे बड़े पत्रकारों के नाम शामिल रहे हैं, जिनका सत्ता सरकार के साथ अच्छा संबंध रहा है. साथ ही लंबे समय से प्रदेश की नब्ज को समझते हैं, लेकिन नए नाम आने के बाद सभी आश्चर्यचकित रह गए थे.
बीजेपी के आरोप
कई विश्वविद्यालयों में सरकार की भी पसंद चली. पत्रकारिता विश्वविद्यालय में कुलपति की नियुक्ति के बाद सरकार ने जिस तरह से कई संस्थाओं के नाम भी बदलने का फैसला ले लिया. कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम भी चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता विश्वविद्यालय (Chandulal Chandrakar Journalism University) कर दिया गया. इतना ही नहीं कई संस्थाओं के नाम भी बदले गए. राज्य सरकार और राजभवन के बीच टकराव का असर देखने को मिला कि प्रदेश के कई विश्वविद्यालयों में कुलपति की नियुक्ति में सरकार की पसंद भी चली है.
कई विश्वविद्यालयों के कुलपति बदले
प्रदेश के एकमात्र इंदिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ (Indira Kala Sangeet University Khairagarh) में ममता चंद्राकर को कुलपति बनाया गया. वहीं प्रदेश के सबसे बड़े विश्वविद्यालय पंडित रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय (Pandit Ravi Shankar Shukla University) में केएल वर्मा कुलपति के रूप में पद संभाल रहे हैं. इसके अलावा सरगुजा विश्वविद्यालय (Surguja University) में कुलपति चयन को लेकर लंबे समय से विवाद के हालात बने हुए हैं.
कुलपति पद की गरिमा भी घटी
वरिष्ठ शिक्षाविद शशांक शर्मा कहते हैं कि कुलपति का जो पद है, इस पद की पहले बहुत गरिमा होती थी. हम कुलाधिपति राज्यपाल को कहते थे और केंद्रीय विश्वविद्यालयों में राष्ट्रपति चांसलर होते हैं. राष्ट्रपति के साथ ही राज्यपाल और कुलपति का पद बहुत ही उच्च कोटि का पद है. उनका काम भी बेहद उच्च कोटि का है. जो उच्च शिक्षा के संस्था के प्रमुख होने के नाते शिक्षा की गुणवत्ता और अपने विद्यार्थियों के भविष्य के निर्माण का दायित्व इनके ऊपर रहता है. ऐसी स्थिति में कुलपतियों का चयन निश्चित तौर पर यह बेहद महत्वपूर्ण काम है. समस्या ये है कि भारत के अंदर राजनीति हर क्षेत्र में इतनी हावी प्रभावी हो चुकी है कि कुलपति पद के दावेदार मंत्रियों के पैर छू-छूकर कुलपति का पद पा लेते हैं.
गरिमा को चोट पहुंचाने का काम: बीजेपी
भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता अमित चिमनानी कहते हैं कि जब से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार (Congress government in Chhattisgarh) आई है शिक्षा का स्तर कैसे बेहतर हो इस पर फोकस करने की बजाए इस सरकार ने नाम बदलने में ज्यादा फोकस किया है. कुलपति पद की जो मर्यादा होती है, जो उस पद की गरिमा होती है उसको चोट पहुंचाने का काम सरकार ने किया है. राज्यपाल का जो विशेषाधिकार होता है, उनकी रिकमेंडेशन को न मानने का काम भी इस सरकार ने किया है. आखिर शिक्षा के विषय में गंदी राजनीति करके शिक्षा के स्तर को गिराने का काम, कुलपति की मर्यादा को तार तार करने का काम, सही व्यक्ति को सही जगह पर न भेजने का एक सिस्टम कांग्रेस सरकार ने लागू कर दिया है. जो कि छत्तीसगढ़ की शिक्षा व्यवस्था के लिए चिंता का विषय है.
युवा पीढ़ी को भुगतना होगा परिणाम
शिक्षण संस्थानों में सबसे योग्य और संवैधानिक पद माने जाने वाले कुलपति चयन को लेकर भी राजनीति और सिस्टम के साथ तालमेल सही ना होने का खामियाजा शिक्षा संस्थानों को भुगतना पड़ रहा है. साथ ही शिक्षण संस्थानों पर चल रही राजनीतिक उठापटक का असर हमारे समाज के युवा पीढ़ी को भी भुगतना पड़ेगा. छत्तीसगढ़ में सत्ता सरकार और राजभवन के बीच चल रही खटास के चलते भले ही कुलपति नियुक्ति में अपने-अपने स्तर पर रस्साकशी चली हो, लेकिन शिक्षण संस्थान भी राजनीतिक अखाड़ा बनने से कोसों दूर नजर नहीं आ रहे हैं.