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दर्द एक, दास्तां अनेक: 'वो छुट्टी के बाद ऐसे गए कि कभी नहीं लौटे...'

6 अप्रैल को हुए नक्सली हमले में रायगढ़ के जवान राजाराम एक्का शहीद हो गए थे.राजाराम उन सीआरपीएफ जवानों में से थे, जिन्होंने ताड़मेटला के हमले में जान गंवा दी थी. शहादत के बाद राज्य और केंद्र सरकार ने एक बार आर्थिक सहायता तो कर दी लेकिन 10 साल में कोई भी इनके घर झांकने नहीं आया है.

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नहीं लौटे शहीद राजाराम
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Published : Apr 6, 2020, 12:16 AM IST

रायगढ़: हमें भले भूल जाएं लेकिन परिवार कभी नहीं भूलता. अपने बेटे, पति और पिता को खोने का दर्द सालों बीत जाने के बाद भी जस का तस होता है. 6 अप्रैल को हुए नक्सली हमले में रायगढ़ जिले के कापू थाना क्षेत्र में आने वाली ग्राम पंचायत कमरई के आश्रित ग्राम सोनाजोरी के रहने वाले राजाराम एक्का भी शामिल थे. ये इतना लंबा पता हम आपको इसलिए भी बता रहे हैं क्योंकि 10 साल में यहां कोई झांकने भी नहीं आया है. राजाराम उन सीआरपीएफ जवानों में से थे, जिन्होंने ताड़मेटला के हमले में जान गंवा दी थी.

ताड़मेटला में शहीद राजाराम

छत्तीसगढ़ में सरकार बदल गई, 10 साल में कितने अधिकारी बदल गए लेकिन जो वादे शहीद राजाराम के परिवार से शासन और प्रशासन ने किए थे, वो पूरे नहीं हुए. उनके परिजनों को आज भी उम्मीद है. हमले में शहादत के बाद राज्य और केंद्र सरकार ने एक बार आर्थिक सहायता तो कर दी लेकिन शहीद के गांव में उसके नाम से स्कूल का नाम और गांव में शहीद की मूर्ति लगाने की जो घोषणा हुई थी, वो आज तक फाइलों में ही है.

वादा करके भूल गई सरकार

शहीद की पत्नी ने बताया कि सरकार ने आर्थिक सहायता की, जिसके बाद कई सालों तक उनको पेंशन नहीं मिली. पेंशन के लिए भी उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी. यही हाल उस दावे का भी है, जो सरकार ने शहीद राजाराम की बेटी के पढ़ाई के लिए किया था. राजाराम की शहादत के वक्त उनकी बेटी की उम्र 5 साल थी. सरकार ने एक साल तो उसकी पढ़ाई का खर्च उठाया और बाद में भूल गई. इतना ही नहीं शहीद की पत्नी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए हजारों बार जिला से लेकर संभाग तक अधिकारियों के चक्कर लगाए लेकिन कहीं भी नियुक्ति नहीं मिली. बस 15 अगस्त और 26 जनवरी में बुलाया जाता है और साल श्रीफल देकर वापस भेज दिया जाता है.

फिर कभी नहीं लौटे राजाराम...

तत्कालीन विधायक ने विधायक मद से गांव के बाहर स्वागत बोर्ड बनवा दिया है, जो बीते कई सालों से रंग रोगन के भाव में कबाड़ हो चुका है।. राजाराम कि पत्नी नीर कुमारी ने बताया कि 1975 में उनके पति का जन्म हुआ था और 1995 में 20 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने सेना में जाने का फैसला लिया था. सन 2000 में उनकी शादी हुई और 2005 में उनकी बेटी रेशमा एक्का का जन्म हुआ. वे आगे बताती हैं कि मार्च 2010 में त्योहार के लिए घर आए थे और अचानक से उन्हें संदेश आया कि छुट्टी से वापस आना है तभी 15 मार्च 2010 को राजाराम घर से दंतेवाड़ा के लिए निकले थे तभी उन्होंने अंतिम बार अपने घर को देखा था.

दो दिन बाद पहुंचा था शव

घर से जाने के बाद शहीद होने से पहले मात्र एक बार फोन के माध्यम से उनकी बात हुई और 6 अप्रैल को उनकी शहादत की खबर आई. नीर कुमारी कहती हैं कि दो दिन उनके पति का क्षत-विक्षत शव गांव पहुंचा.

रो पड़ी मां

शहीद राजाराम की माता बताती हैं कि वे उनके बड़े बेटे थे. पिता की मृत्यु के बाद सारी जिम्मेदारी उसी के ऊपर थी. राजाराम की बचपन और पढ़ाई को लेकर उनकी मां ने कहा कि बेहद गरीबी में उन्होंने अपने बच्चे को पढ़ाया था. जब कॉपी, किताब खरीदने की पैसे नहीं हुए तब उन्होंने हाथ भट्टी शराब (महुआ शराब) बेचकर अपने बच्चे को पढ़ाया. वे शुरू से ही सुरक्षाबल में जाने से उनको मना कर रही थी लेकिन परिवार की स्थिति देखकर राजाराम ने सेना में जाने का निर्णय लिया और 35 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए.

स्थानीय बताते हैं कि जब उनके गांव में राजाराम की मौत की खबर आई तो पूरा गांव माता में डूब गया. 2 दिनों तक गांव में सेना और पुलिस के जवानों का आना-जाना लगा रहा था. तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह भी उनके गांव पहुंचे थे. लेकिन 10 साल बाद भी शहीद के परिवार का ये हाल देखकर ऐसा लगता है मानो उनकी आंखें सिर्फ बरसने के लिए ही हैं, मुस्कुराने के लिए नहीं.

रायगढ़: हमें भले भूल जाएं लेकिन परिवार कभी नहीं भूलता. अपने बेटे, पति और पिता को खोने का दर्द सालों बीत जाने के बाद भी जस का तस होता है. 6 अप्रैल को हुए नक्सली हमले में रायगढ़ जिले के कापू थाना क्षेत्र में आने वाली ग्राम पंचायत कमरई के आश्रित ग्राम सोनाजोरी के रहने वाले राजाराम एक्का भी शामिल थे. ये इतना लंबा पता हम आपको इसलिए भी बता रहे हैं क्योंकि 10 साल में यहां कोई झांकने भी नहीं आया है. राजाराम उन सीआरपीएफ जवानों में से थे, जिन्होंने ताड़मेटला के हमले में जान गंवा दी थी.

ताड़मेटला में शहीद राजाराम

छत्तीसगढ़ में सरकार बदल गई, 10 साल में कितने अधिकारी बदल गए लेकिन जो वादे शहीद राजाराम के परिवार से शासन और प्रशासन ने किए थे, वो पूरे नहीं हुए. उनके परिजनों को आज भी उम्मीद है. हमले में शहादत के बाद राज्य और केंद्र सरकार ने एक बार आर्थिक सहायता तो कर दी लेकिन शहीद के गांव में उसके नाम से स्कूल का नाम और गांव में शहीद की मूर्ति लगाने की जो घोषणा हुई थी, वो आज तक फाइलों में ही है.

वादा करके भूल गई सरकार

शहीद की पत्नी ने बताया कि सरकार ने आर्थिक सहायता की, जिसके बाद कई सालों तक उनको पेंशन नहीं मिली. पेंशन के लिए भी उन्होंने लंबी लड़ाई लड़ी. यही हाल उस दावे का भी है, जो सरकार ने शहीद राजाराम की बेटी के पढ़ाई के लिए किया था. राजाराम की शहादत के वक्त उनकी बेटी की उम्र 5 साल थी. सरकार ने एक साल तो उसकी पढ़ाई का खर्च उठाया और बाद में भूल गई. इतना ही नहीं शहीद की पत्नी ने अनुकंपा नियुक्ति के लिए हजारों बार जिला से लेकर संभाग तक अधिकारियों के चक्कर लगाए लेकिन कहीं भी नियुक्ति नहीं मिली. बस 15 अगस्त और 26 जनवरी में बुलाया जाता है और साल श्रीफल देकर वापस भेज दिया जाता है.

फिर कभी नहीं लौटे राजाराम...

तत्कालीन विधायक ने विधायक मद से गांव के बाहर स्वागत बोर्ड बनवा दिया है, जो बीते कई सालों से रंग रोगन के भाव में कबाड़ हो चुका है।. राजाराम कि पत्नी नीर कुमारी ने बताया कि 1975 में उनके पति का जन्म हुआ था और 1995 में 20 वर्ष की उम्र में ही उन्होंने सेना में जाने का फैसला लिया था. सन 2000 में उनकी शादी हुई और 2005 में उनकी बेटी रेशमा एक्का का जन्म हुआ. वे आगे बताती हैं कि मार्च 2010 में त्योहार के लिए घर आए थे और अचानक से उन्हें संदेश आया कि छुट्टी से वापस आना है तभी 15 मार्च 2010 को राजाराम घर से दंतेवाड़ा के लिए निकले थे तभी उन्होंने अंतिम बार अपने घर को देखा था.

दो दिन बाद पहुंचा था शव

घर से जाने के बाद शहीद होने से पहले मात्र एक बार फोन के माध्यम से उनकी बात हुई और 6 अप्रैल को उनकी शहादत की खबर आई. नीर कुमारी कहती हैं कि दो दिन उनके पति का क्षत-विक्षत शव गांव पहुंचा.

रो पड़ी मां

शहीद राजाराम की माता बताती हैं कि वे उनके बड़े बेटे थे. पिता की मृत्यु के बाद सारी जिम्मेदारी उसी के ऊपर थी. राजाराम की बचपन और पढ़ाई को लेकर उनकी मां ने कहा कि बेहद गरीबी में उन्होंने अपने बच्चे को पढ़ाया था. जब कॉपी, किताब खरीदने की पैसे नहीं हुए तब उन्होंने हाथ भट्टी शराब (महुआ शराब) बेचकर अपने बच्चे को पढ़ाया. वे शुरू से ही सुरक्षाबल में जाने से उनको मना कर रही थी लेकिन परिवार की स्थिति देखकर राजाराम ने सेना में जाने का निर्णय लिया और 35 वर्ष की उम्र में शहीद हो गए.

स्थानीय बताते हैं कि जब उनके गांव में राजाराम की मौत की खबर आई तो पूरा गांव माता में डूब गया. 2 दिनों तक गांव में सेना और पुलिस के जवानों का आना-जाना लगा रहा था. तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह भी उनके गांव पहुंचे थे. लेकिन 10 साल बाद भी शहीद के परिवार का ये हाल देखकर ऐसा लगता है मानो उनकी आंखें सिर्फ बरसने के लिए ही हैं, मुस्कुराने के लिए नहीं.

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