नारायणपुर: ये कोई कहानी नहीं बल्कि ऐसे जाबांज, हुनरमंद और खेल भावना से ओतप्रोत जवान की सच्ची गाथा है. जिसने वनांचल के गरीब, वनवासी बच्चों को शून्य से शिखर पर पहुंचाने में अपना जीवन समर्पित कर दिया. छत्तीसगढ़ पुलिस (विशेष टास्क फोर्स) के जवान मनोज प्रसाद ने छत्तीसगढ़ खेल जगत में 'मलखम्ब' को स्वर्ण अक्षरों में लिख दिया. ETV भारत आपको उनकी सफलता की कहानी सुना रहा है.
छत्तीसगढ़ के घोर नक्सल प्रभावित क्षेत्र नारायणपुर में मलखम्ब खेल की शुरुआत करना आसान नहीं था. जिन बच्चों को मलखम्ब सिखाया गया, वह सभी बच्चे अबुझमाड़ के दुर्गम इलाकों के रहने वाले हैं. उन्हें मलखम्ब के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन उनकी ताकत और हुनर को मनोज प्रसाद ने पहचाना. दिनभर इन खिलाड़ियों को प्रशिक्षण देना, उनकी कमियों को दूर करना, यही उनका काम है. वह मलखम्ब खेल की बेहतरीन तरकीब इन गरीब बच्चों को सिखाते हैं. उन्होंने अबुझमाड़ के इन बच्चों को मलखम्ब के गुर सिखाकर राष्ट्रीय स्तर पर गोल्ड मेडलिस्ट खिलाड़ी बना दिया है.
अपनी ड्यूटी के साथ ही बच्चों को देते हैं ट्रेनिंग
मलखम्ब कोच मनोज प्रसाद ने इन बच्चों की प्रतिभा को दुनिया तक पहुंचाने का बीड़ा उठा लिया. आज करीब 4 सालों से लगातार मनोज छुट्टियों में अपने घर न जाकर उन गरीब बच्चों को सुबह और शाम बिना किसी लाभ के ट्रेनिंग देते हैं. वह पूरे सप्ताह जंगलो में बारिश और तूफान का सामना करते हुए डयूटी करतें हैं. पौष्टिक खाना नहीं मिलने पर भी वह बिना किसी शिकायत के पहाड़ों और जंगलों में लगातार 3-4 दिन तक ड्यूटी करते हैं. हालांकि उसके बाद इन्हें कुछ दिन का आराम भी दिया जाता है.
लेकिन इस बीच मलखम्ब के अभ्यास के लिए इनको ज्यादा समय नहीं मिल पाता. अपनी ड्यूटी के बाद जब भी इन्हें आराम दिया जाता है, उस दौरान भी इन्हें गणना में शामिल होने के लिए कैम्प में आना पड़ता है. लेकिन मनोज प्रसाद ने हिम्मत नहीं हारी. वह सुबह 4 बजे उठकर 10 किलोमीटर दूर स्कूल पहुंचते हैं, जहां वह बच्चों को पढ़ाते हैं. फिर उनको वार्मअप के लिए दौड़ लगवाते हैं और मलखम्ब का अभ्यास करवाते हैं. उन्हें कैम्प में गणना के लिए सुबह 6.30 बजे पहुंचना होता है.
मनोज को नहीं मिल पाता खुद के लिए समय
स्कूल से वापस वह गणना के लिए कैम्प आते हैं. कैम्प में गणना तीन बार होती है. गणना के बाद वह वापस स्कूल बच्चों के पास पहुंच जाते हैं. इतने थकाने वाले रूटीन के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी और वह अपने जनून को पूरा करने के लिए लगे हुए हैं. उनके जीवन में कोई मनोरंजन नहीं है, न बर्थडे, न शादी, न त्योहार और न ही किसी प्रकार का पार्टी. ड्यूटी और बच्चों की मलखम्ब की ट्रेनिंग की वजह से उन्हें अपने जीवन के लिए समय ही नहीं मिलता. उन्हें कैंप से जाने की इजाजत भी नहीं मिलती.
बच्चों को ओलंपिक में भेजकर ही माता-पिता से मिलने घर जाएंगे मनोज
मनोज प्रसाद उत्तर प्रदेश के बलिया जिले से हैं. उनके मां-बाप अभी बलिया में ही रहते हैं. वह अपने मां-बाप से पिछले 4-5 सालों से नहीं मिले हैं. मनोज का कहना है कि जब बच्चों को ओलंपिक में ले जाने का उनका सपना पूरा हो जाएगा, तभी वह अपने मां-बाप से मिलेंगे. बिना किसी प्रशासनिक मदद के 400 लड़के-लडकियों को मनोज ने मलखम्ब सिखाया. उन बच्चों को दिल्ली, मुम्बई, गुजरात, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु जैसे बड़े शहरों में प्रतियोगिता के लिए ले गए, वो भी अपने खर्चे पर. बच्चों के खाने-पीने की व्यवस्था भी उन्हें खुद ही करनी पड़ती है.
बच्चों के र्स्पोट्स के कपड़े, जूते और उनकी पढ़ाई का खर्चे के साथ-साथ उनको आगे बढ़ाना और फिर महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश जैसे राज्यों के खिलाड़ियों को हराकर स्वर्ण पदक जीतना आसान नहीं था. आज भी वह रोज सुबह-शाम कुम्हारपारा ग्राउंड में 40 बच्चों को मलखम्भ सिखाते हैं.
राज्य सरकार से मदद की दरकार
केन्द्र और राज्य सरकारें विदेशी खेलों पर करोड़ों रुपए खर्च कर रही हैं, लेकिन देसी खेलों के लिए सरकारें न तो कोई प्रोत्साहन दे रही हैं और न ही इसके लिए कोई आर्थिक मदद दे रही हैं. अगर सरकार इन देसी खेलों में रूचि दिखाए और इन खेलों को आगे बढ़ाने में जो लोग लगे हुए हैं उनका थोड़ा भी सहयोग कर दें, तो ये ट्रेनरों और इन बच्चों के बहुत बड़ी मदद होगी. ये प्रतिभाशाली बच्चे आगे चलकर देश का नाम रोशन करने कामयाब होंगे.
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मार्च, 2020 को 32वीं राष्ट्रीय मलखम्ब प्रतियोगिता में अबुझमाड़ के इन प्रतिभाशाली बच्चों ने 8 स्वर्ण 3 कांस्य के साथ प्रतियोगिता जीती. इस कार्य में रामकृष्ण मिशन आश्रम पोर्टा केबिन देवगांव, असीम महाराज, हिमान्द्री महाराज, आकाश जैन आरपी मीरे, उदय देशपांडेय, सुजीत सेगड़े और दूसरे लोगों ने आर्थिक मदद भी की. इस कार्य में छत्तीसगढ़ की राज्यपाल अनुसुइया उइके, डीजी डीएम अवस्थी, दीपक शॉ, आकाश जैन, आईएएस पीएस अल्मा, आरपी मीरी का महत्वपूर्ण योगदान रहा.
हाल ही में भारत सरकार से इन बच्चों को 13 लाख 20 हजार की स्कॉलरशिप मिली. उनका मकसद था कि इन बच्चों को खेल के माध्यम से बीपीएड और एमपीएड जैसी डिग्री प्राप्त कर खेल जगत में टीचर बनाना, ताकि मलखम्ब खेल का विकास हो सके. हालांकि, जिस जवान ने इतना कठिन परिश्रम और त्याग कर इन गरीब बच्चों को यहां तक पहुंचाया, उन्हें अभी तक सरकार और प्रशासन की तरफ से मदद का इंतजार है.