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कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर, कहा-शिक्षा से ही बदलाव संभव - Mamta first graduate daughter of Pahari Korwa community

first graduate daughter of Korwa : आधा ढंका बदन, छोटा कद, हाथ में तीर-धनुष लिये वनों में कंदमूल की तलाश... पहाड़ी कोरवा जनजाति का नाम सुनते ही दिमाग में अब भी यही तस्वीर उभरती है. लेकिन यह सूरत अब बदल रही है. कोरबा जिले में पहाड़ी कोरवा समुदाय से आने वाली एक ग्रेजुएट लड़की ममता ने अपने जनजातीय समुदाय की यह सूरत बदलने की ठानी है.

first graduate daughter of Korwa
कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर
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Published : Mar 5, 2022, 6:20 PM IST

Updated : Mar 6, 2022, 8:43 PM IST

कोरबा: छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर आंछिमार गांव है. यहां रहने वाली ममता पहाड़ी कोरवा समुदाय की पहली ग्रेजुएट है. ममता बायो विषय से बीएससी करने के बाद अपने समुदाय की तस्वीर बदल रही है. गांव आंछिमार में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दर्जा प्राप्त विशेष पिछड़ी जनजाति पहाड़ी कोरवा समुदाय के 30 से 40 परिवार रहते हैं. वे यहां के मूल निवासी हैं. गांव आंछिमार पहाड़ी कोरवाओं की उन पारंपरिक बस्तियों से काफी अलग है, जिसे वनवासी और पिछड़ा हुआ माना जाता है.

कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर

गांव में 12 समूह से जुड़ी महिलाएं उगा रहीं मूंगफली
गांव आंछिमार में पहाड़ी कोरवा महिलाओं के 12 समूह बनाए गए हैं. जिसमें 40 से ज्यादा महिलाएं काम कर रही हैं. आजीविका मिशन के तहत बिहान योजना के उत्थान कार्यक्रम द्वारा समूह का गठन किया गया है. सभी समूह को प्रेरित करने का काम ममता ने अपने कंधों पर ले लिया है. समूह से जुड़कर महिलाएं अब अपने पैरों पर खड़ी हैं. वह खेती-किसानी के काम से मुनाफा कमाने की ओर अग्रसर हैं.

कोरबा विकासखंड के अंतर्गत आने वाले करूमौहा पंचायत के गांव आंछिमार में करीब 3 एकड़ क्षेत्र में महिलाएं मूंगफली (Groundnut farming in Korba) की खेती कर रही हैं. मूंगफली के साथ ही बरबट्टी और परवल जैसी सब्जियों की खेती भी महिलाओं ने की है. अब महिलाओं को फसल तैयार होने का इंतजार है. गांव में पहाड़ी कोरवाओं का मूल निवास है, जहां वह छिटपुट खेती किया करते थे. लेकिन इस वर्ष महिला समूहों के गठन के बाद उन्होंने संगठित तौर पर सामूहिक खेती की है. जिसमें ममता का बड़ा योगदान है. मूंगफली उत्पादन के लिए महिला समूह को सरकारी मदद भी मिली है. समूह की महिलाओं को उम्मीद है कि जब उनकी फसल तैयार होगी, तब लगभग 15 क्विंटल मूंगफली की पैदावार वह ले सकेंगी. इससे उन्हें अच्छा मुनाफा होगा.

यह भी पढ़ें : Korwa Woman death Case Korba: रेफरल रैकेट पर कार्रवाई के मामले में अस्थायी कर्मचारी बर्खास्त !

पलायन से निपटकर लोगों को जोड़ना है शिक्षा से
ममता कहती हैं कि मैंने शासकीय कॉलेज भैसमा से बायो विषय में बीएससी की है. गांव की पहली ग्रेजुएट हूं, लेकिन पहाड़ी कोरवाओं की स्थिति अब भी उतना बेहतर नहीं है. हालांकि अब बदलाव हो रहा है. शिक्षा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसके जरिए समाज में बदलाव लाया जा सकता है. मैं अपने गांव के बच्चों को प्रेरित करती हूं कि वह आगे आकर पढ़ाई करें. हमारे पूर्वज ही यहां के मूल निवासी हैं. कोरबा जिले का नाम भी हमारी ही जनजाति के नाम पर पड़ा है. लेकिन आज हमारी स्थिति काफी पिछड़ी हुई है. हमारा समाज विकास की धारा से काफी पीछे है.

ममता कहती हैं कि कोरबा में बाहर के लोग आकर बस गए हैं, लेकिन हमारे समाज का जितना विकास होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ है. पलायन अभी यहां एक बड़ी समस्या है. बाहर से दलाल आते हैं और खासतौर पर हमारे समाज के भोले-भाले लोगों को मजदूर बना कर यहां से ले जाते हैं. इसे रोकना है. इसके लिए भी मैंने आवेदन तैयार किया है.

बच्चे पढ़ रहे हैं, अब कमाई के स्रोत बढ़ाने होंगे
गांव की महिला समूह की सदस्य नानबाई कहती हैं कि पहाड़ी कोरवाओं में काफी पिछड़ापन है. हालांकि हम उन कोरवाओं से काफी बेहतर स्थिति में हैं, जो अब भी वनों में निवास करते हैं. अफसर तो हमें देखकर यह मानने से इनकार कर देते हैं कि हम पहाड़ी कोरवा समुदाय से हैं. समूह में खेती करने से हमें फायदा हुआ है. प्रयास यही है कि अब बच्चों को बेहतर शिक्षा दें, लेकिन इसके लिए हमें और भी मदद की जरूरत है. हमारे पास सिर्फ एक ही मशीन है, जिससे मूंगफली की खेती करने में मदद मिल रही है. इसी मशीन को यहां-वहां ले जाना पड़ता है. बच्चे जब पढ़कर तैयार होंगे, तब उन्हें रोजगार मिले, सरकार को इसकी व्यवस्था भी सुनिश्चित करनी चाहिए. अभी जब हम सरकारी कार्यालयों में जाते हैं, नौकरी की मांग करते हैं तो हमें उतनी तवज्जो नहीं दी जाती. जबकि हमें राष्ट्रपति की दत्तक संतान कहा जाता है.

वो दिन भी देखा जब एक टाइम भूखे पेट सोते थे...
समूह की महिला सदस्य वृद्ध इतवारा बाई कहती हैं कि पहाड़ी कोरवाओं का जीवन आसान नहीं था. हम पहाड़ के ऊपर रहते थे और भुखमरी का वो दौर भी देखा है, जब एक टाइम ही खाने को मिलता था और दूसरे टाइम भूखे पेट सो जाया करते थे. हमारे समुदाय के कई लोग भुखमरी से भी मर चुके हैं. जैसे-तैसे हमारी जान बची है. आज हमने यहां तक का सफर तय किया है. गांव की बेटी ममता पढ़ लिख गई है. हम अपनी मेहनत से खेती-किसानी करके आजीविका का प्रबंध कर रहे हैं. लेकिन हमारे पक्के आवास का सपना अब भी अधूरा है.

कोरबा: छत्तीसगढ़ के कोरबा जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर आंछिमार गांव है. यहां रहने वाली ममता पहाड़ी कोरवा समुदाय की पहली ग्रेजुएट है. ममता बायो विषय से बीएससी करने के बाद अपने समुदाय की तस्वीर बदल रही है. गांव आंछिमार में राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र का दर्जा प्राप्त विशेष पिछड़ी जनजाति पहाड़ी कोरवा समुदाय के 30 से 40 परिवार रहते हैं. वे यहां के मूल निवासी हैं. गांव आंछिमार पहाड़ी कोरवाओं की उन पारंपरिक बस्तियों से काफी अलग है, जिसे वनवासी और पिछड़ा हुआ माना जाता है.

कोरवाओं की पहली ग्रेजुएट बेटी खेती से बदल रही पिछड़ेपन की तस्वीर

गांव में 12 समूह से जुड़ी महिलाएं उगा रहीं मूंगफली
गांव आंछिमार में पहाड़ी कोरवा महिलाओं के 12 समूह बनाए गए हैं. जिसमें 40 से ज्यादा महिलाएं काम कर रही हैं. आजीविका मिशन के तहत बिहान योजना के उत्थान कार्यक्रम द्वारा समूह का गठन किया गया है. सभी समूह को प्रेरित करने का काम ममता ने अपने कंधों पर ले लिया है. समूह से जुड़कर महिलाएं अब अपने पैरों पर खड़ी हैं. वह खेती-किसानी के काम से मुनाफा कमाने की ओर अग्रसर हैं.

कोरबा विकासखंड के अंतर्गत आने वाले करूमौहा पंचायत के गांव आंछिमार में करीब 3 एकड़ क्षेत्र में महिलाएं मूंगफली (Groundnut farming in Korba) की खेती कर रही हैं. मूंगफली के साथ ही बरबट्टी और परवल जैसी सब्जियों की खेती भी महिलाओं ने की है. अब महिलाओं को फसल तैयार होने का इंतजार है. गांव में पहाड़ी कोरवाओं का मूल निवास है, जहां वह छिटपुट खेती किया करते थे. लेकिन इस वर्ष महिला समूहों के गठन के बाद उन्होंने संगठित तौर पर सामूहिक खेती की है. जिसमें ममता का बड़ा योगदान है. मूंगफली उत्पादन के लिए महिला समूह को सरकारी मदद भी मिली है. समूह की महिलाओं को उम्मीद है कि जब उनकी फसल तैयार होगी, तब लगभग 15 क्विंटल मूंगफली की पैदावार वह ले सकेंगी. इससे उन्हें अच्छा मुनाफा होगा.

यह भी पढ़ें : Korwa Woman death Case Korba: रेफरल रैकेट पर कार्रवाई के मामले में अस्थायी कर्मचारी बर्खास्त !

पलायन से निपटकर लोगों को जोड़ना है शिक्षा से
ममता कहती हैं कि मैंने शासकीय कॉलेज भैसमा से बायो विषय में बीएससी की है. गांव की पहली ग्रेजुएट हूं, लेकिन पहाड़ी कोरवाओं की स्थिति अब भी उतना बेहतर नहीं है. हालांकि अब बदलाव हो रहा है. शिक्षा ही एकमात्र ऐसा माध्यम है, जिसके जरिए समाज में बदलाव लाया जा सकता है. मैं अपने गांव के बच्चों को प्रेरित करती हूं कि वह आगे आकर पढ़ाई करें. हमारे पूर्वज ही यहां के मूल निवासी हैं. कोरबा जिले का नाम भी हमारी ही जनजाति के नाम पर पड़ा है. लेकिन आज हमारी स्थिति काफी पिछड़ी हुई है. हमारा समाज विकास की धारा से काफी पीछे है.

ममता कहती हैं कि कोरबा में बाहर के लोग आकर बस गए हैं, लेकिन हमारे समाज का जितना विकास होना चाहिए था, उतना नहीं हुआ है. पलायन अभी यहां एक बड़ी समस्या है. बाहर से दलाल आते हैं और खासतौर पर हमारे समाज के भोले-भाले लोगों को मजदूर बना कर यहां से ले जाते हैं. इसे रोकना है. इसके लिए भी मैंने आवेदन तैयार किया है.

बच्चे पढ़ रहे हैं, अब कमाई के स्रोत बढ़ाने होंगे
गांव की महिला समूह की सदस्य नानबाई कहती हैं कि पहाड़ी कोरवाओं में काफी पिछड़ापन है. हालांकि हम उन कोरवाओं से काफी बेहतर स्थिति में हैं, जो अब भी वनों में निवास करते हैं. अफसर तो हमें देखकर यह मानने से इनकार कर देते हैं कि हम पहाड़ी कोरवा समुदाय से हैं. समूह में खेती करने से हमें फायदा हुआ है. प्रयास यही है कि अब बच्चों को बेहतर शिक्षा दें, लेकिन इसके लिए हमें और भी मदद की जरूरत है. हमारे पास सिर्फ एक ही मशीन है, जिससे मूंगफली की खेती करने में मदद मिल रही है. इसी मशीन को यहां-वहां ले जाना पड़ता है. बच्चे जब पढ़कर तैयार होंगे, तब उन्हें रोजगार मिले, सरकार को इसकी व्यवस्था भी सुनिश्चित करनी चाहिए. अभी जब हम सरकारी कार्यालयों में जाते हैं, नौकरी की मांग करते हैं तो हमें उतनी तवज्जो नहीं दी जाती. जबकि हमें राष्ट्रपति की दत्तक संतान कहा जाता है.

वो दिन भी देखा जब एक टाइम भूखे पेट सोते थे...
समूह की महिला सदस्य वृद्ध इतवारा बाई कहती हैं कि पहाड़ी कोरवाओं का जीवन आसान नहीं था. हम पहाड़ के ऊपर रहते थे और भुखमरी का वो दौर भी देखा है, जब एक टाइम ही खाने को मिलता था और दूसरे टाइम भूखे पेट सो जाया करते थे. हमारे समुदाय के कई लोग भुखमरी से भी मर चुके हैं. जैसे-तैसे हमारी जान बची है. आज हमने यहां तक का सफर तय किया है. गांव की बेटी ममता पढ़ लिख गई है. हम अपनी मेहनत से खेती-किसानी करके आजीविका का प्रबंध कर रहे हैं. लेकिन हमारे पक्के आवास का सपना अब भी अधूरा है.

Last Updated : Mar 6, 2022, 8:43 PM IST
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