कांकेर: छत्तीसगढ़ के आदिवासी अंचलों में रहने वाले लोग हर मोर्चे पर चुनौती का सामना कर रहे हैं. आधुनिक होते बाजार ने पारंपरिक चीजों पर भी ग्रहण लगा दिया है. कभी घरों के, खेतों के और रसोइयों का अहम हिस्सा रहे बांस के सामान अब पूजा-पाठ तक सिमटने लगे हैं. बांस की बनी चीजों की जगह धीरे-धीरे प्लास्टिक के बने सामान लेने लगे हैं. बांस की टोकरियां, झेझरी, पर्रा अब धीरे-धीरे अब कम नजर आते हैं.
सूना हुआ बाजार
विरोधाभास ये है कि बांस शिल्प भले ही ड्राइंग रूम सजा रहा हो, होटलों, रेस्त्रां में ग्रामीण परिवेश जैसी फीलिंग देने के काम आ रहा हो. लेकिन हर साल फसल बुवाई व कटाई के समय गुलजार रहने वाला यह बाजार सूना-सूना दिखता है. सीमित खरीदी के बाद इसे बनाने वाले हाथ इस काम से किनारा कर रहे हैं. बांस बस्तर के आदिवासियों की आजीविका के प्रमुख साधनों में से एक है लेकिन प्लास्टिक ने इस पर भी नजर लगा दी है.
आदिवासियों के देवी देवताओं में अब भी जरूरी है बांस के समान
कांकेर मुख्यालय से 15 किमी दूरी पर पारधी जनजाति के लोग रहते हैं. पारधी भवर नेताम ने कहा कि भले अन्य कामों में बांस के सामान खरीदना लोगों ने कम कर दिया हो लेकिन आज भी आदिवासी देवी-देवताओं की पूजा में बांस से बने सामानों का ही इस्तेमाल होता है. वे कहते हैं कि धान बोने से लेकर कटाई तक बांस के सामन में ही पूजा की जाती है. पहली बार जब धान बोने जाते हैं तो बांस के बूटी में ही धान ले जाया जाता है, भले बाद में प्लास्टिक का इस्तेमाल कर लें. जन्म, विवाह, मृत्यु तीनों संस्कारो में आदिवासी बांस का ही बना सामान इस्तेमाल करते हैं.
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बांस से बनी वस्तुओं के नाम
- टुकना -टुकनी, झावां, गप्पा, सूपा, चाप, बिज बौनी, डाली, ढालांगी, पर्रा-बिजना ये बांस से बनी कुछ वस्तुओं के नाम हैं. जिनकी कीमत भी लगभग एक समान है.
- प्लास्टिक और बांस से बने सूपा, टोकरी, पर्रा और बुहारी की कीमत में ज्यादा अंतर नहीं है. बांस से बना सूपा अगर 100 से 150 रुपए में मिल रहा है तो प्लास्टिक का सूपा 90 से 120 रुपए में बेचा जा रहा है.
- बांस से बनी टोकरियां 80, 90 और 120 रुपए में बेची जा रही हैं. इनकी जगह ले चुका प्लास्टिक टब 120 से 150 रुपए में बेचा जा रहा है. बुहारी 10 से 30 रुपए में मिल रही है तो प्लास्टिक की यही सामग्री 90 से 100 रुपए में उपलब्ध है.
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इसलिए प्लास्टिक की बढ़ रही है डिमांंड...
लोगों का बांस के प्रति झुकाव कम होने का कारण ये है कि इनका बना सामान कम दिन चलता है. खलिहानों में उपयोग की जाने वाले टोकरी और सूपा की बुनाई एक साल में कमजोर पड़ने लगती है. यही स्थिति सफाई के लिए काम आने वाले झाड़ू के साथ भी है. बंधाई कमजोर होने से इनकी कड़ियां बिखरने लगती हैं इसलिए भी शायद प्लास्टिक का बना सामान इनकी जगह ले रहा है.