जगदलपुर: बस्तर में 75 दिनों तक मनाये जाने वाले दशहरा पर्व की एक और महत्वपूर्ण कुंटूब जात्रा की रस्म गुरुवार को निभाई गई. इस रस्म में बस्तर राजपरिवार और ग्रामीणों के अगुवाई में बस्तर संभाग के ग्रामीण अंचलों से पर्व में शामिल होने पहुंचे सभी गांव के देवी देवताओं को ससम्मान विदाई दी गई. शहर के गंगामुण्डा वार्ड स्थित पूजा स्थल पर राजपरिवार के सदस्यों द्वारा पूजा अर्चना कर दशहरा समिति की ओर से सभी देवी देवताओं को ससम्मान विदा किया गया.
देवी-देवताओं की ससम्मान विदाई
बस्तर दशहरा पर्व में शामिल होने पहुंचे सभी गांव के देवी देवताओं के छत्र और डोली को बस्तर राजपरिवार और दशहरा समिति द्वारा समम्मान विदाई दी गई. पंरपरानुसार दशहरा पर्व में शामिल होने संभाग के सभी गांव के देवी-देवताओं को न्यौता दिया जाता है. जिसके बाद पर्व समाप्ति पर कुंटूब जात्रा की रस्म अदायगी की जाती है. इस रस्म में बकायदा राज परिवार के सदस्य द्वारा संभाग के सभी गांव से पहुंचे देवी देवताओं के छत्र और डोली की पूजा अर्चना की जाती है और बकरा और कबूतर की बलि भी दी जाती है. इसके बाद सभी देवी देवताओं के छत्र लेकर वहां के पुजारी और ग्रामीण अपने-अपने गांव के लिए रवाना होते हैं.
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600 साल से चली आ रही है यह परंपरा
दंतेवाड़ा से मावली परघांव रस्म में लाई गई माता की डोली और छत्र में से आज कुंटूब जात्रा रस्म के दौरान दंतेवाड़ा के दंतेश्वरी माई के छत्र को भी सम्मान विदाई दी गई. लगभग 600 वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को आज भी अच्छे से निभाया गया और इस दौरान राज परिवार के सदस्यों और दशहरा समिति द्वारा कोरोना के मद्देनजर पूरी तरह से सावधानी बरतते हुए इस रस्म निभाई गई. आगामी 31 अक्टूबर शनिवार को बस्तर दशहरा का आखिरी और महत्वपूर्ण रस्म डोली विदाई की अदायगी की जाएगी और उस दिन दंतेवाड़ा से पहुंची मावली माता की डोली को सम्मान विदा किया जाएगा.
पहली रस्म-
- बस्तर में एतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा होती है, हरियाली के अमावस्या के दिन यह रस्म अदायगी के साथ बस्तर में दशहरा पर्व की शुरुआत होती है.
- परंपरा के मुताबिक इस रस्म में बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व के रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाई जाती है, जिससे रथ के चक्के का निर्माण किया जाता है.
- हरियाली के दिन विधि विधान से पूजा के बाद इसी लकड़ी से विशाल रथ का निर्माण किया जाता है.
दूसरी रस्म
- बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेरी गड़ाई होती है. मान्यताओं के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है.
- सैकड़ों सालों से चली आ रही इस परंपरा के मुताबिक बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है.
- विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर इस रस्म कि अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली जाती है.
तीसरी रस्म
- 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरे की तीसरी प्रमुख पंरपरा है रथ परिक्रमा. रथ परिक्रमा के लिए रथ का निर्माण किया जाता है, इसी रथ पर मां दंतेश्वरी देवी को बिठकार शहर की परिक्रमा कराई जाती है.
- लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासी ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है.
- रथ निर्माण में प्रयुक्त सरई की लकड़ियों को एक विशेष वर्ग के लोगों द्वारा लाया जाता है. बेड़ाउमर और झाडउमर गांव के ग्रामीण आदिवासियों द्वारा 14 दिनों में इन लकड़ियों से रथ का निर्माण किया जाता है.
काछनगादी की रस्म
- बस्तर दशहरा का आरंभ देवी की अनुमति के बाद होता है. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परंपरा भी अपने आप में अनूठी है, काछन गादी नामक इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटों के झूले पर लेटकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है.
- इस परंपरा की मान्यता अनुसार कांटों के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात देवी आकर पर्व आरंभ करने की अनुमति देती हैं. अनुसूचित जाति के एक विशेष परिवार की कुंआरी कन्या विशाखा बस्तर राजपरिवार को दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है, 15 वर्षीय विशाखा पिछले सात साल से काछनदेवी के रूप में कांटों के झूले पर लेटकर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाती आ रही हैं.
- नवरात्र के पहले दिन बस्तर की अराध्य देवी माई दंतेश्वरी के दर्शन के लिए हजारों की संख्या मंदिर पहुंचते हैं और मनोकामना दीप जलाते हैं.
जोगी बिठाई की रस्म
बस्तर दशहरा की एक और अनूठी और महत्वपूर्ण रस्म जोगी बिठाई है, जिसे शहर के सिरहासार भवन में पूर्ण विधि विधान के साथ संपन्न किया जाता है. इस रस्म में एक विशेष जाति का युवक प्रति वर्ष नौ दिनों तक निर्जल उपवास रख सिरहासारभवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या के लिए बैठता है.
रथ परिक्रमा
इसके बाद होती है बस्तर दशहरे की अनूठी रस्म रथ परिक्रमा. इस रस्म में बस्तर के आदिवासियों द्वारा पारंपरिक तरीके से लकड़ियों से बनाए लगभग 40 फीट ऊंचे रख पर माई दंतेश्वरी के छत्र को बिठाकर शहर में घुमाया जाता है. 40 फीट ऊंचे और 30 टन वजनी इस रथ को सैंकड़ों ग्रामीण मिलकर खींचते हैं.
निशा जात्रा की रस्म
- बस्तर दशहरे की सबसे अद्भुत रस्म निशा जात्रा होती है. इस रस्म को काले जादू की रस्म भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इस रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे. निशा जात्रा कि यह रस्म बहुत मायने रखती है.
- दशहरा में विजयादशमी के दिन जहां एक तरफ पूरे देश में रावण के पुतले का दहन किया जाता है, वहीं बस्तर में विजयादशमी के दिन दशहरे की प्रमुख रस्म भीतर रैनी मनाई जाती है. मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी और यही वजह है कि शांति, अंहिसा और सद्भाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण के पुतले का दहन नहीं किया जाता है.
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- बस्तर दशहरा का समापन दंतेवाड़ा से पधारी माई जी की विदाई की परंपरा के साथ होता है. पूरी गरिमा के साथ जिया डेरा से दंतेवाड़ा के लिए विदाई देकर की जाती है. माई दंतेश्वरी की विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.
- विदाई से पहले माई जी की डोली और छत्र को दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सशस्त्र सलामी बल देवी दंतेश्वरी को सलामी देता है और भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. विदाई के साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.