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6 सौ साल की परंपरा पर सरकारीकरण-धर्मांतरण भारी, विश्व विख्यात पर्व में लगातार घट रही आदिवासियों की संख्या

बस्तर में 75 दिनों तक चलने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा के सभी विधान अनूठे हैं. यहां रावण का दहन नहीं होता, बल्कि रथ की परिक्रमा कराई जाती है. विजयादशमी तक विजय रथ की परिक्रमा कराने की परम्परा है, जो करीब 6 सौ सालों से चली आ रही है. हर दिन अलग-अलग रस्म की अदायगी होती है, जिसे देखने दूर दराज से के लोग भी पहुंचते हैं. लेकिन इस विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व में पिछले कुछ सालों से लगातार घट रही आदिवासियों की संख्या समाज प्रमुखों, बुद्धजीवियों और राजपरिवार के लिए भी चिंता का विषय बनी हुई है.

Bastar Dussehra scene
बस्तर दशहरा का दृश्य
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Published : Oct 12, 2021, 10:37 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 7:57 AM IST

जगदलपुर : बस्तर में 75 दिनों तक मनाए जाने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व (World Famous Bastar Dussehra Festival) में पिछले कुछ सालों से लगातार आदिवासियों की संख्या घट रही है. इस कारण बस्तर में समाज प्रमुखों, बुद्धिजीवियों और राजपरिवार के लिए चिंता का विषय बनी हुई है. बस्तर दशहरा से आदिवासियों की घटती संख्या की वजह बस्तर के राजकुमार व आदिवासी समाज के प्रमुख दशहरा में तेजी से हो रहे सरकारीकरण (Governmentization) के साथ-साथ बस्तर में हो रहे धर्मांतरण को भी बता रहे हैं. जिस तरह से समूचे बस्तर संभाग में हो रहे धर्मांतरण (Conversion) को लेकर आदिवासी समाज के प्रमुखों को बस्तर की संस्कृति, रहन-सहन और पूजा-पाठ के विलुप्त होने की चिंता सता रही है. वहीं साल भर में एक बार मनाए जाने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व (Historical Bastar Dussehra Festival) में घटती आदिवासियों की संख्या पर भी चिंता बढ़ गई है. बुद्धिजीवियों का मानना है कि अगर समय रहते बस्तर दशहरा में सरकारीकरण और तेजी से हो रहे धर्मांतरण को लेकर कोई जरूरी कदम नहीं उठाए जाते हैं तो आने वाले सालों में इस बस्तर दशहरा पर्व में आदिवासियों की मौजूदगी काफी कम हो जाएगी.

बस्तर दशहरा का दृश्य

विश्व विख्यात है बस्तर की यह परंपरा

बस्तर में आदिवासियों की कला संस्कृति, रहन-सहन और आदिवासी परंपरा विश्व में विख्यात है. बस्तर के आदिवासी अपनी सभी परंपराओं और रीति-रिवाजों को बखूबी निभाते आ रहे हैं. वहीं बस्तर में मनाया जाना वाला ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. 75 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में कई अद्भुत रस्मों की अदायगी की जाती है. यह रस्म पिछले 600 सालों से निभाई जा रही है. पूरी तरह से आदिवासियों की मौजूदगी में ही इन रस्मों को निभाया जाता है. साथ ही इस पर्व को भी आदिवासियों का महापर्व कहा जाता है. हर साल इस पर्व में बस्तर संभाग के सातों जिलों से हजारों की संख्या में आदिवासी स्वेच्छा से शामिल होते हैं. दशहरा पर्व तक जगदलपुर शहर में ही ठहरकर सारे रस्मों की अदायगी करते हैं.

परंपरा का निर्वाह करने पहुंचते हैं आदिवासी

जानकारी के मुताबिक बस्तर के तत्कालीन महाराजा पुरुषोत्तम देव ने इस विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व के दौरान बस्तर के सभी आदिवासी जनजातियों को इस पर्व को संपन्न करने के लिए अलग-अलग दायित्व सौंपा था. अपने दायित्व का निर्वहन करने परंपरागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी इस पर्व में पहुंचते हैं. हालांकि पिछले कुछ सालों से इस दशहरा पर्व में आदिवासियों की काफी कम मौजूदगी देखी जा रही है. पहले आदिवासी स्वेच्छा से पर्व में अपने साथ पूरे परिवार को लेकर पर्व संपन्न होने तक का राशन-पानी भी लेकर पहुंचते थे. आदिवासी परंपराओं के अनुसार रस्मों को निभाया जाता था, लेकिन अब इस पर्व में सरकारीकरण और तेजी से बढ़ रहे धर्मांतरण की वजह से आदिवासियों की मौजूदगी धीरे-धीरे कम होती जा रही है.

पहले जैसी आदिवासियों की मौजूदगी अब नहीं दिखती

विश्व हिंदू परिषद के बस्तर संयोजक लाल बहादुर सिंह राणा का कहना है कि वे कई सालों से बस्तर दशहरा पर्व में शामिल होते आ रहे हैं. जिस तरह से पहले आदिवासियों की इस पर्व में मौजूदगी दिखती थी, वह अब देखने को नहीं मिलती. उन्होंने कहा कि इसके पीछे इस पर्व का सरकारीकरण मुख्य वजह है. क्योंकि सभी रस्मों में सरकारी हस्तक्षेप होने की वजह से अब आदिवासी सिर्फ औपचारिक रूप से इन रस्मों को निभाने आते हैं. सरकारी तंत्र इस कदर इस पर्व में हावी हो गई है कि बिना सरकारी कर्मचारियों के आदिवासियों को पर्व में कुछ करने नहीं दिया जाता है. जिस वजह से अब बेहद कम संख्या में आदिवासी पर्व में शामिल हो रहे हैं.

लाल बहादुर सिंह राणा ने बताया कि पर्व में सरकारीकरण के साथ ही बस्तर में तेजी से हो रहे धर्मांतरण भी दशहरा पर्व में आदिवासियों की घटती संख्या का मुख्य कारण है. उन्होंने कहा कि पूरे बस्तर संभाग में 40 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी व अन्य समाज जाति के लोग धर्मांतरण कर चुके हैं. यही वजह है कि अब वे हिंदुओं के इस पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं.


आदिवासियों की लगातार घटती संख्या पर राज परिवार भी चिंतित

बस्तर दशहरा पर्व के माटी पुजारी व बस्तर राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने भी कहा कि बस्तर दशहरा में घट रही आदिवासियों की संख्या पर राज परिवार भी चिंतित है. क्योंकि तत्कालीन महाराजा प्रवीण चंद भंजदेव के समय समूचे संभाग भर के देवी-देवता और उनके साथ पूरा गांव इस पर्व में शामिल होता था. लेकिन अब धीरे-धीरे कई गांव के देवी देवता और वहां के लोग इस पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं. इसके पीछे पर्व में सरकारीकरण के साथ-साथ धर्मांतरण भी प्रमुख वजह है. हालांकि पिछले 2 सालों से कोरोना काल भी एक मुख्य कारण बना हुआ है.

लंबे समय से शोषित हो रहे आदिवासी

वहीं सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर ने कहा कि आदिवासी लंबे समय से शोषित हो रहे हैं. अब इस पर्व में भी देखा जा रहा है कि सरकारीकरण की वजह से जो ग्रामीण इस पर्व में शामिल होने पहुंचते हैं, उन्हें जो सुविधा मिलनी चाहिए वह प्रशासन नहीं दे रहा है. हर साल लाखों रुपए के बजट इस पर्व के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन इस पर्व की सबसे मुख्य कड़ी आदिवासियों को ही किसी तरह की सुविधा नहीं मिल पाती. न ही उन्हें अपने परंपरागत रूप से रस्मों को निभाने दिया जाता है. हर तरफ से पर्व में सरकारी तंत्र हावी होने की वजह से बस्तर के आदिवासी धीरे-धीरे पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं.

कहीं विलुप्त न हो जाए यह रस्म, यह चिंता का विषय

वहीं बस्तर के बुद्धिजीवियों का भी मानना है कि दशहरा पर्व को पूरे प्रदेश की शान कहा जाता है. देश में यह पहला पर्व है जो 75 दिनों तक चलता है. इस पर्व के दौरान कई अद्भुत रस्में निभाई जाती हैं. करीब 600 साल से चली आ रही परंपरा आज भी बस्तर में कायम है. लेकिन जिस तरह से पर्व में सरकारीकरण और बस्तर में धर्मांतरण हावी हुई है, ऐसे में पर्व में निभाई जाने वाले रस्म धीरे-धीरे विलुप्त न हो जाए, यह भी चिंता का विषय है. ऐसे में सरकार और सभी समाज प्रमुखों को चाहिए कि धर्मांतरण को पूरी तरह से रोका जाए. एक बार फिर से आदिवासियों को उनकी सुविधा के अनुसार पर्व में रस्मों को निभाने के साथ ही उनकी मौजूदगी और दखल ज्यादा हो, जिससे ऐतिहासिक बस्तर दशहरा की प्रतिष्ठा और शान बनी रहे. साथ ही बस्तर में आदिवासी परंपरा कला व संस्कृति विलुप्त न हो, इसके लिए भी जल्द ही शासन को अपने स्तर पर और गांवों के मुखिया को अपने स्तर पर धर्मांतरण रोकने के लिए प्रयास करना चाहिए.

जगदलपुर : बस्तर में 75 दिनों तक मनाए जाने वाले विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व (World Famous Bastar Dussehra Festival) में पिछले कुछ सालों से लगातार आदिवासियों की संख्या घट रही है. इस कारण बस्तर में समाज प्रमुखों, बुद्धिजीवियों और राजपरिवार के लिए चिंता का विषय बनी हुई है. बस्तर दशहरा से आदिवासियों की घटती संख्या की वजह बस्तर के राजकुमार व आदिवासी समाज के प्रमुख दशहरा में तेजी से हो रहे सरकारीकरण (Governmentization) के साथ-साथ बस्तर में हो रहे धर्मांतरण को भी बता रहे हैं. जिस तरह से समूचे बस्तर संभाग में हो रहे धर्मांतरण (Conversion) को लेकर आदिवासी समाज के प्रमुखों को बस्तर की संस्कृति, रहन-सहन और पूजा-पाठ के विलुप्त होने की चिंता सता रही है. वहीं साल भर में एक बार मनाए जाने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व (Historical Bastar Dussehra Festival) में घटती आदिवासियों की संख्या पर भी चिंता बढ़ गई है. बुद्धिजीवियों का मानना है कि अगर समय रहते बस्तर दशहरा में सरकारीकरण और तेजी से हो रहे धर्मांतरण को लेकर कोई जरूरी कदम नहीं उठाए जाते हैं तो आने वाले सालों में इस बस्तर दशहरा पर्व में आदिवासियों की मौजूदगी काफी कम हो जाएगी.

बस्तर दशहरा का दृश्य

विश्व विख्यात है बस्तर की यह परंपरा

बस्तर में आदिवासियों की कला संस्कृति, रहन-सहन और आदिवासी परंपरा विश्व में विख्यात है. बस्तर के आदिवासी अपनी सभी परंपराओं और रीति-रिवाजों को बखूबी निभाते आ रहे हैं. वहीं बस्तर में मनाया जाना वाला ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व पूरे विश्व में प्रसिद्ध है. 75 दिनों तक चलने वाले इस पर्व में कई अद्भुत रस्मों की अदायगी की जाती है. यह रस्म पिछले 600 सालों से निभाई जा रही है. पूरी तरह से आदिवासियों की मौजूदगी में ही इन रस्मों को निभाया जाता है. साथ ही इस पर्व को भी आदिवासियों का महापर्व कहा जाता है. हर साल इस पर्व में बस्तर संभाग के सातों जिलों से हजारों की संख्या में आदिवासी स्वेच्छा से शामिल होते हैं. दशहरा पर्व तक जगदलपुर शहर में ही ठहरकर सारे रस्मों की अदायगी करते हैं.

परंपरा का निर्वाह करने पहुंचते हैं आदिवासी

जानकारी के मुताबिक बस्तर के तत्कालीन महाराजा पुरुषोत्तम देव ने इस विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरा पर्व के दौरान बस्तर के सभी आदिवासी जनजातियों को इस पर्व को संपन्न करने के लिए अलग-अलग दायित्व सौंपा था. अपने दायित्व का निर्वहन करने परंपरागत रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी आदिवासी इस पर्व में पहुंचते हैं. हालांकि पिछले कुछ सालों से इस दशहरा पर्व में आदिवासियों की काफी कम मौजूदगी देखी जा रही है. पहले आदिवासी स्वेच्छा से पर्व में अपने साथ पूरे परिवार को लेकर पर्व संपन्न होने तक का राशन-पानी भी लेकर पहुंचते थे. आदिवासी परंपराओं के अनुसार रस्मों को निभाया जाता था, लेकिन अब इस पर्व में सरकारीकरण और तेजी से बढ़ रहे धर्मांतरण की वजह से आदिवासियों की मौजूदगी धीरे-धीरे कम होती जा रही है.

पहले जैसी आदिवासियों की मौजूदगी अब नहीं दिखती

विश्व हिंदू परिषद के बस्तर संयोजक लाल बहादुर सिंह राणा का कहना है कि वे कई सालों से बस्तर दशहरा पर्व में शामिल होते आ रहे हैं. जिस तरह से पहले आदिवासियों की इस पर्व में मौजूदगी दिखती थी, वह अब देखने को नहीं मिलती. उन्होंने कहा कि इसके पीछे इस पर्व का सरकारीकरण मुख्य वजह है. क्योंकि सभी रस्मों में सरकारी हस्तक्षेप होने की वजह से अब आदिवासी सिर्फ औपचारिक रूप से इन रस्मों को निभाने आते हैं. सरकारी तंत्र इस कदर इस पर्व में हावी हो गई है कि बिना सरकारी कर्मचारियों के आदिवासियों को पर्व में कुछ करने नहीं दिया जाता है. जिस वजह से अब बेहद कम संख्या में आदिवासी पर्व में शामिल हो रहे हैं.

लाल बहादुर सिंह राणा ने बताया कि पर्व में सरकारीकरण के साथ ही बस्तर में तेजी से हो रहे धर्मांतरण भी दशहरा पर्व में आदिवासियों की घटती संख्या का मुख्य कारण है. उन्होंने कहा कि पूरे बस्तर संभाग में 40 प्रतिशत से ज्यादा आदिवासी व अन्य समाज जाति के लोग धर्मांतरण कर चुके हैं. यही वजह है कि अब वे हिंदुओं के इस पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं.


आदिवासियों की लगातार घटती संख्या पर राज परिवार भी चिंतित

बस्तर दशहरा पर्व के माटी पुजारी व बस्तर राजकुमार कमलचंद भंजदेव ने भी कहा कि बस्तर दशहरा में घट रही आदिवासियों की संख्या पर राज परिवार भी चिंतित है. क्योंकि तत्कालीन महाराजा प्रवीण चंद भंजदेव के समय समूचे संभाग भर के देवी-देवता और उनके साथ पूरा गांव इस पर्व में शामिल होता था. लेकिन अब धीरे-धीरे कई गांव के देवी देवता और वहां के लोग इस पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं. इसके पीछे पर्व में सरकारीकरण के साथ-साथ धर्मांतरण भी प्रमुख वजह है. हालांकि पिछले 2 सालों से कोरोना काल भी एक मुख्य कारण बना हुआ है.

लंबे समय से शोषित हो रहे आदिवासी

वहीं सर्व आदिवासी समाज के अध्यक्ष प्रकाश ठाकुर ने कहा कि आदिवासी लंबे समय से शोषित हो रहे हैं. अब इस पर्व में भी देखा जा रहा है कि सरकारीकरण की वजह से जो ग्रामीण इस पर्व में शामिल होने पहुंचते हैं, उन्हें जो सुविधा मिलनी चाहिए वह प्रशासन नहीं दे रहा है. हर साल लाखों रुपए के बजट इस पर्व के लिए बनाए जाते हैं, लेकिन इस पर्व की सबसे मुख्य कड़ी आदिवासियों को ही किसी तरह की सुविधा नहीं मिल पाती. न ही उन्हें अपने परंपरागत रूप से रस्मों को निभाने दिया जाता है. हर तरफ से पर्व में सरकारी तंत्र हावी होने की वजह से बस्तर के आदिवासी धीरे-धीरे पर्व में शामिल नहीं हो रहे हैं.

कहीं विलुप्त न हो जाए यह रस्म, यह चिंता का विषय

वहीं बस्तर के बुद्धिजीवियों का भी मानना है कि दशहरा पर्व को पूरे प्रदेश की शान कहा जाता है. देश में यह पहला पर्व है जो 75 दिनों तक चलता है. इस पर्व के दौरान कई अद्भुत रस्में निभाई जाती हैं. करीब 600 साल से चली आ रही परंपरा आज भी बस्तर में कायम है. लेकिन जिस तरह से पर्व में सरकारीकरण और बस्तर में धर्मांतरण हावी हुई है, ऐसे में पर्व में निभाई जाने वाले रस्म धीरे-धीरे विलुप्त न हो जाए, यह भी चिंता का विषय है. ऐसे में सरकार और सभी समाज प्रमुखों को चाहिए कि धर्मांतरण को पूरी तरह से रोका जाए. एक बार फिर से आदिवासियों को उनकी सुविधा के अनुसार पर्व में रस्मों को निभाने के साथ ही उनकी मौजूदगी और दखल ज्यादा हो, जिससे ऐतिहासिक बस्तर दशहरा की प्रतिष्ठा और शान बनी रहे. साथ ही बस्तर में आदिवासी परंपरा कला व संस्कृति विलुप्त न हो, इसके लिए भी जल्द ही शासन को अपने स्तर पर और गांवों के मुखिया को अपने स्तर पर धर्मांतरण रोकने के लिए प्रयास करना चाहिए.

Last Updated : Jul 25, 2023, 7:57 AM IST
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