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धमतरी: सरकारी योजनाओं से महरूम है ये गांव, अंग्रेजों के बनाये एक पुल के सहारे चल रही है जिंदगी - सड़क

जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर बसा गांव बुडरा में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी कोई भी मूलभूत सुविधाएं नहीं है.

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Published : Apr 5, 2019, 7:55 PM IST

धमतरी: वैसे तो सरकार छत्तीसगढ़ के विकसित होने के तमाम दावे और वादे करती है, लेकिन धमतरी जिले के बुडरा गांव सरकार के तमाम दावे की पोल खोलने के लिए काफी है. इस गांव को देखकर ऐसा लगता है कि, सरकार की कोई भी योजना इस गांव के लिए नहीं बनी है. जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर बसा गांव बुडरा में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी कोई भी मूलभूत सुविधाएं नहीं है.

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बुडरा गांव चारों ओर से नदी-नालों से घिरा हुआ है. सड़क नहीं होने के कारण बारिश के दिनों में यह गांव टापू में तब्दील हो जाता है. इस गांव में जाने के लिए एक मात्र रास्ता अंग्रेजों के बनाये लड़की का पुल है, जो अब अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. पुल में लगा लकड़ी जगह-जगह से सड़ चुकी है. जिसे बदलने के लिए प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहा है. गांव के लोग बताते हैं कि, गांव में पुल को लेकर उन्होंने विधायक, सांसद से लेकर अफसरों से न जाने कितनी बार मिले हैं, लेकिन आज तक किसी ने इस इसपर सुध नहीं ली.

नक्सल प्रभावित इलाके में बसा गांव बुडरा में बिजली और पानी तक की व्यवस्था नहीं है. ग्रामीण बताते हैं कि, ऐसे में रात उन्हें अंधेरे और नक्सलियों के खौफ में ही गुजारनी पड़ती है. गांव में न तो अस्पताल है और न ही कोई स्कूल. लोगों को इलाज के लिए कई किलोमीटर का सफर करना पड़ता है. कई बार तो ग्रामीण रास्ते में दम तोड़ देते हैं. वहीं बच्चों को पढ़ाई के लिए भी लंबी दूरी तय करना पड़ता है.

धमतरी: वैसे तो सरकार छत्तीसगढ़ के विकसित होने के तमाम दावे और वादे करती है, लेकिन धमतरी जिले के बुडरा गांव सरकार के तमाम दावे की पोल खोलने के लिए काफी है. इस गांव को देखकर ऐसा लगता है कि, सरकार की कोई भी योजना इस गांव के लिए नहीं बनी है. जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर बसा गांव बुडरा में बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी कोई भी मूलभूत सुविधाएं नहीं है.

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बुडरा गांव चारों ओर से नदी-नालों से घिरा हुआ है. सड़क नहीं होने के कारण बारिश के दिनों में यह गांव टापू में तब्दील हो जाता है. इस गांव में जाने के लिए एक मात्र रास्ता अंग्रेजों के बनाये लड़की का पुल है, जो अब अपनी अंतिम सांसे गिन रहा है. पुल में लगा लकड़ी जगह-जगह से सड़ चुकी है. जिसे बदलने के लिए प्रशासन किसी बड़े हादसे का इंतजार कर रहा है. गांव के लोग बताते हैं कि, गांव में पुल को लेकर उन्होंने विधायक, सांसद से लेकर अफसरों से न जाने कितनी बार मिले हैं, लेकिन आज तक किसी ने इस इसपर सुध नहीं ली.

नक्सल प्रभावित इलाके में बसा गांव बुडरा में बिजली और पानी तक की व्यवस्था नहीं है. ग्रामीण बताते हैं कि, ऐसे में रात उन्हें अंधेरे और नक्सलियों के खौफ में ही गुजारनी पड़ती है. गांव में न तो अस्पताल है और न ही कोई स्कूल. लोगों को इलाज के लिए कई किलोमीटर का सफर करना पड़ता है. कई बार तो ग्रामीण रास्ते में दम तोड़ देते हैं. वहीं बच्चों को पढ़ाई के लिए भी लंबी दूरी तय करना पड़ता है.

Intro:वैसे तो सरकारे नक्सलवाद से कहराते छत्तीसगढ़ के आदिवासियों की तरक्की और वनवासी इलाकों की तस्वीर सवारने तमाम योजनाएं बनाती है और इसके लिए करोड़ों रुपए भी खर्च करती है लेकिन जमीनी हकीकत की बात अगर की जाए तो यह सारे दावे महज कागजी साबित होते नजर आते है.कुछ ऐसा ही हाल सुदूर बीहड़ और नक्सलियों के साए में रहने वाले गांव बुडरा का है यहां के लोगों को न तो सड़क मयस्कर है और न ही शिक्षा की सहुलियते.


Body:धमतरी जिले का यह वो इलाका है जहां आदिवासियों की सांसे चल तो रही है पर जिंदगी मानों घिसट रही है जी हां सिहावा का वह इलाका है जहां नक्सली तांडव मचाते है.वहीं प्रशासन बेबस नजर आती है.तरक्की से कोसों दूर सीतानदी अभ्यारण की इस तस्वीर को देख कर यकीन नहीं होता कि सरकार की कोई योजनाएं लागू भी होता होगा.सरकारी कागजों और अफसरों के दावों में बहुत कुछ है पर असलियत में सब बेमायने है.बोराई इलाके में नक्सली कांड के बाद माओवाद खात्मे और इलाके के विकास की बनी योजनाओं गांव तक पहुंचने के पहले ही दम तोड़ दिया है.हालियासूरत में इलाके के आदिवासी परिवारों के दिन बेकारी के हालात से समझौता करते कट रहा है उनकी माने तो इलाके में सड़क नहीं होने से उनकी जिंदगी नासूर बन गई है. बाईट...विक्रम वट्टी,स्थानीय(गले मे गमछा डाले हुए) नक्सल प्रभावित इलाके की गांव में आवागमन का साधन नहीं होने के चलते विकास कोसो दूर है.बरसात में लोग अपने नसीब को कोसते नहीं थकते.वहीं शासन-प्रशासन उदासीनता के चलते यहां के लोग सरकारी महकमे से खासे नाराज है.दरअसल बुडरा जिला मुख्यालय से करीब 100 किलोमीटर की दूरी पर बसा हुआ है.यह गांव चारों ओर नदी और नालों से घिरा हुआ है.बारिश के दिनों में यह टापू में तब्दील हो जाता है.वहीं इस गांव में जाने के लिए और उनका दूसरा साधन नहीं है.अक्सर बारिश के दिनों में यहां के रहवासियों के लिए यह गांव किसी नर्क से कम नहीं होता. लोगों को दूसरे गांव जाने या फिर जिला मुख्यालय जाने के लिए नदी नाले पार करने पड़ता है.गांव के लोग आज भी अंग्रेज जमाने में बने लकड़ी के पुल से ही आवागमन करते है.ग्रामीणों का कहना है कि यह पुल ही उनके आने जाने का एकमात्र सहारा है.गांव वालों ने यह भी बताया कि यह पुल काफी पुराना है और लकड़ी के जो बल्लियाँ लगे हुए है वह सड़ चुके है.ऐसे नहीं पुल पार करते कभी भी हादसा हो सकता है.गांव के लोगों ने स्थानीय विधायक,सांसद और अफसरों से पक्के पुल बनाने को लेकर कई बार फरियाद किया है लेकिन ग्रामीणों की इस मांग को लेकर न ही जनप्रतिनिधि न ही अधिकारी संजीदा है.ऐसे में गुडरा के ग्रामीण अपने बदहाली पर आंसू बहा रहे है. बाईट....मुकेश ओटी, स्थानीय(टीशर्ट में मेल पर) बाईट....जोहत राम नेताम,स्थानीय(नीली शर्ट में मेल पर) धुर नक्सल प्रभावित इलाके में बिजली का होना भगवान ही मालिक है बाक़ी वक्त खौफ के साए में रात गुजारनी पड़ती है.इस गांव में अस्पताल नहीं है जिसके चलते लोगों को इलाज के लिए मिलों तक चलकर जाना पड़ता है.इस दौरान कई बार मरीज अस्पताल पहुंचने के पहले ही रास्ते में दम तोड़ देते है तो वही गांव में शिक्षा का साधन भी नही है यहां के बच्चे शिक्षा पाने लंबी दूरी तय करते है तब कही जाकर शिक्षा ग्रहण कर पा रहे है.यहां लोग इसकी शिकायत करते थक गए पर हुकूमत और अमले के कानों पर जू तक नहीं रेंगा.यह एक ऐसा गांव है कि बारिश के दिनों में यह टापू में तब्दील हो जाता है जिसके बाद गांव का बाहरी दुनिया से कोई वास्ता नहीं रहता. बाईट...सोहन नेताम,स्थानीय(सफेद शर्ट में) एक तरफ जहां बीहड़ में रहने वाले आदिवासी सहुलियतों को तरस रहे है और उनकी जिंदगी दिनोंदिन बद से बदत्तर होती जा रही है तो वहीं जिला मुख्यालय में बैठे सरकारी अफसरों को अपनी पीठ थपथपाने से फुर्सत नहीं मिल रही है.प्रशासन के नुमाइंदे सब कुछ दुरुस्त करने का भरोसा दिलाने से भी नहीं चूक रहे है. बाईट....रजत बंसल,कलेक्टर धमतरी


Conclusion:बहरहाल सिहावा के सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासी परिवारों की जिंदगी में कब बाहर आएगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा पर यह तय है कि हालिया सूरत में उनकी जिंदगी जीने के नाम पर महज घिसट रही है और सरकारी योजनाएं कागजी साबित हो रहे है. रामेश्वर मरकाम,धमतरी
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