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SPECIAL: भीषण गर्मी से राहत देने 'देसी फ्रिज' बनाने में जुटे कुम्हार - धमतरी में कुम्हार बना रहे घड़ा

गर्मी आते ही ठंडे पानी से गले की प्यास बुझाने के लिए कुम्भकारों ने तैयारी शुरू कर दी है. मार्च शुरू होते प्रदेश में गर्मी ने दस्तक दे दी है. गर्मी को देखते हुए धमतरी में कुम्भकार घड़ा और सुराही बनाने में लगे हैं, ताकि लोगों को भीषण गर्मी में भी ठंडा पानी मिल सके.

Potter engaged in making 'desi fridge'
'देसी फ्रिज' बनाने में जुटे कुम्हार
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Published : Mar 3, 2021, 8:42 PM IST

Updated : Mar 4, 2021, 11:27 AM IST

धमतरीः कुम्भकार परिवार इन दिनों चाक पर दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, ताकि गर्मी और लू के थपेड़ों की मार आम लोगों को न लगे. ये कुम्भकार देसी फ्रिज यानी घड़ा, सुराही और लाल मटका तैयार कर रहे हैं. कुम्भकार परिवार दिन-रात एक कर मिट्टी के बर्तन बनाने में जुटे हैं.

धमतरी जिले में लगभग 100 से डेढ़ सौ परिवार मिट्टी से बर्तन समेत अनेक उपयोगी वस्तुओं को बनाते हैं. जैसे-जैसे गर्मी का सीजन नजदीक आता है, वैसे-वैसे ये लोग लाल मटका, सुराही और अन्य बर्तन बनाने में जुट जाते हैं. मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उन्हें 15 से 20 दिन तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर लाल घड़ा पककर तैयार होता है.

'देसी फ्रिज' बनाने में जुटे कुम्हार

लाल मटके की मांग में आई कमी

कुम्भकार समुदाय के लोग बताते हैं कि आज से 10 वर्ष पहले लगभग 100 परिवारों में 70 प्रतिशत लोग सीजन का काम करते थे. जिसमें मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य अनिवार्य रूप से किया जाता था. आमदनी भी अच्छी खासी हो जाती थी, लेकिन जब से वॉटर कूलर और फ्रिज का चलन बढ़ा है, तब से मिट्टी के घड़े की डिमांड कम हो गई है. जितनी मेहनत होती है, उससे कम आमदनी के कारण ज्यादातर कुम्हार परिवार अब अन्य कामों की ओर रुख कर रहे हैं. अब 100 परिवारों में से मात्र 10 से 15 घरों में ही मिट्टी के बर्तन बनाए जा रहे हैं.

प्रति मटके की कीमत 50 से 70 रुपये

पूरे इलाके में मिट्टी के घड़े की बिक्री 50 से 70 रुपये प्रति मटके के हिसाब से होती है. बड़े शहरों में इसकी कीमत 100 रुपये प्रति घड़ा है. लेकिन जरूरत के मुताबिक उतनी आमदनी नहीं हो पाती. उन्होंने कहा कि अब तो कोयला भी महंगा हो गया है, जिससे भट्ठी में इसे पकाने में ज्यादा खर्च आता है.

'नहीं जलेंगी भट्ठियां तो कैसे जलेगा चूल्हा', देखिए दिल्ली की कुम्हार कॉलोनी से स्पेशल रिपोर्ट

पैतृक व्यवसाय की वजह से काम नहीं छोड़ रहे कुम्भकार

कुम्भकार परिवार बताते हैं कि हफ्ताभर या 15 दिन मेहनत करके मिट्टी के घड़े बनाने के बावजूद उन्हें सौ रुपये रोजी तक नहीं मिल पाते हैं, लेकिन परंपरा और पैतृक व्यवसाय होने के कारण वे यह काम छोड़ना नहीं चाहते. इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे फ्रिज, वॉटर कूलर की वजह से लाल मटके की डिमांड कम होती जा रही है. यही वजह है कि देसी फ्रिज के इस व्यवसाय में घाटा हो रहा है. पहले लोग घर का पता पूछते हुए आते थे और मटकी समेत अन्य मिट्टी से बने बर्तन ले जाया करते थे, लेकिन अब गली-मोहल्ले और सड़कों पर दुकान लगाकर बेचने पर भी माल नहीं बिक पा रहा है.

स्थानीय लोगों और जानकारों का कहना है कि फ्रिज के पानी से इस मटके का पानी अच्छा होता है. यह सौ बीमारी से आपको बचा सकता है. ऐसे में ये कुम्भकार परिवार इस व्यवसाय को विलुप्त होने से बचाने की गुहार लगा रहे हैं. इन लोगों ने शासन-प्रशासन से मदद की मांग की है.

धमतरीः कुम्भकार परिवार इन दिनों चाक पर दिन-रात मेहनत कर रहे हैं, ताकि गर्मी और लू के थपेड़ों की मार आम लोगों को न लगे. ये कुम्भकार देसी फ्रिज यानी घड़ा, सुराही और लाल मटका तैयार कर रहे हैं. कुम्भकार परिवार दिन-रात एक कर मिट्टी के बर्तन बनाने में जुटे हैं.

धमतरी जिले में लगभग 100 से डेढ़ सौ परिवार मिट्टी से बर्तन समेत अनेक उपयोगी वस्तुओं को बनाते हैं. जैसे-जैसे गर्मी का सीजन नजदीक आता है, वैसे-वैसे ये लोग लाल मटका, सुराही और अन्य बर्तन बनाने में जुट जाते हैं. मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उन्हें 15 से 20 दिन तक कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, तब जाकर लाल घड़ा पककर तैयार होता है.

'देसी फ्रिज' बनाने में जुटे कुम्हार

लाल मटके की मांग में आई कमी

कुम्भकार समुदाय के लोग बताते हैं कि आज से 10 वर्ष पहले लगभग 100 परिवारों में 70 प्रतिशत लोग सीजन का काम करते थे. जिसमें मिट्टी के बर्तन बनाने का कार्य अनिवार्य रूप से किया जाता था. आमदनी भी अच्छी खासी हो जाती थी, लेकिन जब से वॉटर कूलर और फ्रिज का चलन बढ़ा है, तब से मिट्टी के घड़े की डिमांड कम हो गई है. जितनी मेहनत होती है, उससे कम आमदनी के कारण ज्यादातर कुम्हार परिवार अब अन्य कामों की ओर रुख कर रहे हैं. अब 100 परिवारों में से मात्र 10 से 15 घरों में ही मिट्टी के बर्तन बनाए जा रहे हैं.

प्रति मटके की कीमत 50 से 70 रुपये

पूरे इलाके में मिट्टी के घड़े की बिक्री 50 से 70 रुपये प्रति मटके के हिसाब से होती है. बड़े शहरों में इसकी कीमत 100 रुपये प्रति घड़ा है. लेकिन जरूरत के मुताबिक उतनी आमदनी नहीं हो पाती. उन्होंने कहा कि अब तो कोयला भी महंगा हो गया है, जिससे भट्ठी में इसे पकाने में ज्यादा खर्च आता है.

'नहीं जलेंगी भट्ठियां तो कैसे जलेगा चूल्हा', देखिए दिल्ली की कुम्हार कॉलोनी से स्पेशल रिपोर्ट

पैतृक व्यवसाय की वजह से काम नहीं छोड़ रहे कुम्भकार

कुम्भकार परिवार बताते हैं कि हफ्ताभर या 15 दिन मेहनत करके मिट्टी के घड़े बनाने के बावजूद उन्हें सौ रुपये रोजी तक नहीं मिल पाते हैं, लेकिन परंपरा और पैतृक व्यवसाय होने के कारण वे यह काम छोड़ना नहीं चाहते. इलेक्ट्रॉनिक उपकरण जैसे फ्रिज, वॉटर कूलर की वजह से लाल मटके की डिमांड कम होती जा रही है. यही वजह है कि देसी फ्रिज के इस व्यवसाय में घाटा हो रहा है. पहले लोग घर का पता पूछते हुए आते थे और मटकी समेत अन्य मिट्टी से बने बर्तन ले जाया करते थे, लेकिन अब गली-मोहल्ले और सड़कों पर दुकान लगाकर बेचने पर भी माल नहीं बिक पा रहा है.

स्थानीय लोगों और जानकारों का कहना है कि फ्रिज के पानी से इस मटके का पानी अच्छा होता है. यह सौ बीमारी से आपको बचा सकता है. ऐसे में ये कुम्भकार परिवार इस व्यवसाय को विलुप्त होने से बचाने की गुहार लगा रहे हैं. इन लोगों ने शासन-प्रशासन से मदद की मांग की है.

Last Updated : Mar 4, 2021, 11:27 AM IST
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