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दंतेवाड़ा की जीवन दायिनी नदी शंखिनी-डंकिनी, जानिए क्यों पड़ा नदी का ये नाम ?

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Published : Jul 6, 2021, 11:13 PM IST

दंतेवाड़ा की जीवनदायिनी नदी शंखिनी-डंकिनी नदी (shankhini-dankini river) के बारे में तो सब ने सुना होगा, लेकिन इस नदी का ये नाम पड़ने के पीछे क्या मान्यता या क्या कहानी है ये बेहद कम लोगों को पता है. तो आइए ETV भारत के साथ जानिए इस नाम के पीछे की वजह.

शंखिनी डंकिनी नदी
शंखिनी डंकिनी नदी

दंतेवाड़ा: तेरहवीं शताब्दी में बना बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर (Maa Danteshwari Temple) के पीछे शंखिनी-डंकिनी नदी (shankhini-dankini river) का संगम तट है. ये नदी क्षेत्रवासियों के लिए जीवन दायिनी भी है और आस्था का प्रतीक भी. इन दोनों नदियों को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. जानकारों का मानना है कि मां दंतेश्वरी देवी वारंगल राज्य से आईं थीं. जिनके पीछे-पीछे महादेव और भैरवनाथ भी आए थे. आईए जानते हैं कि इन दो नदियों का ये नाम पड़ने के पीछे की क्या मान्यता है.

शंखिनी डंकिनी नदी

दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी विजेंद्र जिया ने बताया कि उनका परिवार पीढ़ियों से माई दंतेश्वरी की सेवा करता आ रहा है. उन्होंने बताया कि मां दंतेश्वरी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप में विराजमान हैं. दंतेवाड़ा की बात करें तो यहां मां दंतेश्वरी चौसठ योगिनी के साथ विराजती हैं. उनमें से जो दो योगिनी देवियां हैं वे शाखिनी और डाकिनी के नाम से प्रचलित हैं. जो मंदिर के पीछे नदी के रूप में प्रवाहित होती हैं.

इस वजह से नदी का ये नाम पड़ा

एक दंतकथा के मुताबिक मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बाबा को शाखिनी-डाकिनी योगिनी देवी ने एक दिन सपने में दर्शन दिया. देवियों ने पुजारी को दोनों नदियों में पूजा अर्चना करना शुरू करने को कहा. देवियों ने पुजारी को कहा कि पूजा-अर्चना के बाद मछुआरे से नदी में आखेट (शिकार) कराएं. वहां आपको शंख और बाजे के रूप में हमारे दर्शन होंगे. सुबह उठकर हरेंद्र नाथ जिया ने दंतेश्वरी मंदिर संगम तट पर शंखिनी-डंकिनी नदी में मछुआरे से शिकार कराया. शिकार में जिया बाबा को शंखिनी नदी से शंख (conch) और डंकिनी नदी से बाजा मिला. जिसे पुजारी ने मां दंतेश्वरी मंदिर में लाकर विधि विधान पूजा-अर्चना कर विराजमान किया. इसी वजह से मां दंतेश्वरी मंदिर के पीछे संगम तट का नाम शंखिनी-डंकिनी नदी पड़ा. ये शंख और बाजा आज भी मंदिर में पूजे जाते हैं.

SPECIAL: संरक्षण के अभाव में दंतेवाड़ा की प्राचीन विरासत हो रही विलुप्त

राजा अन्नम देव ने बनवाया था मंदिर

जानकार ठाकुर रामकुमार ने बताया कि पौराणिक कथा के अनुसार माता दंतेश्वरी दुर्गा का रूप होने के कारण चौसठ योगिनी के रूप में विराजमान हैं. जिनमें से दो योगनियां हैं जो शंखिनी-डंकिनी के नाम से जानी जाती हैं. ये दोनों देवियां दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी की सहचरी बन कर रहती हैं और नदी बनकर दंतेश्वरी मंदिर के पीछे प्रवाहित होती हैं. जिस जगह पर मां दंतेश्वरी का भव्य मंदिर है, पुरानी कथाओं के अनुसार राजा अन्नम देव (Raja Annam Dev) बस्तर में राज किया करते थे. उन्होंने मां दंतेश्वरी का छोटा मंदिर बनवाया था. जिसके आसपास विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बिखरी पड़ी थी. इन्हें राजा ने संग्रहित कर मंदिर में स्थापित कराया था.

मां दंतेश्वरी और भैरव बाबा के पद चिन्ह

एक और कथा के अनुसार नदी के तट पर एक पत्थर है, जिस पर भैरव बाबा के पैरों के निशान (Footprints of Bhairav Baba) है. ऐसा ही एक निशान माई जी की बगिया में मां दंतेश्वरी देवी के पद चिन्ह (Footprints of Danteshwari Devi) का भी है. पौराणिक कथा के मुताबिक भैरव बाबा मां दंतेश्वरी से रूठकर जाने लगे और पीछे-पीछे दंतेश्वरी देवी जाने लगीं. तब माई जी की बगिया में मां दंतेश्वरी के पादुका के निशान बने. ऐसे ही नदी के तट मौजूद विशाल पत्थर पर भैरव बाबा के पद चिन्ह बने. जिसके बाद भैरव बाबा आगे बढ़ गए और भैरमगढ़ पहुंच गए. इसलिए उस जगह का नाम भैरमगढ़ पड़ा. यहां भैरव बाबा का विशाल मंदिर भी है.

दंतेवाड़ा: तेरहवीं शताब्दी में बना बस्तर की आराध्य देवी मां दंतेश्वरी के मंदिर (Maa Danteshwari Temple) के पीछे शंखिनी-डंकिनी नदी (shankhini-dankini river) का संगम तट है. ये नदी क्षेत्रवासियों के लिए जीवन दायिनी भी है और आस्था का प्रतीक भी. इन दोनों नदियों को लेकर कई पौराणिक कथाएं प्रचलित हैं. जानकारों का मानना है कि मां दंतेश्वरी देवी वारंगल राज्य से आईं थीं. जिनके पीछे-पीछे महादेव और भैरवनाथ भी आए थे. आईए जानते हैं कि इन दो नदियों का ये नाम पड़ने के पीछे की क्या मान्यता है.

शंखिनी डंकिनी नदी

दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी विजेंद्र जिया ने बताया कि उनका परिवार पीढ़ियों से माई दंतेश्वरी की सेवा करता आ रहा है. उन्होंने बताया कि मां दंतेश्वरी अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग रूप में विराजमान हैं. दंतेवाड़ा की बात करें तो यहां मां दंतेश्वरी चौसठ योगिनी के साथ विराजती हैं. उनमें से जो दो योगिनी देवियां हैं वे शाखिनी और डाकिनी के नाम से प्रचलित हैं. जो मंदिर के पीछे नदी के रूप में प्रवाहित होती हैं.

इस वजह से नदी का ये नाम पड़ा

एक दंतकथा के मुताबिक मंदिर के पुजारी हरेंद्र नाथ जिया बाबा को शाखिनी-डाकिनी योगिनी देवी ने एक दिन सपने में दर्शन दिया. देवियों ने पुजारी को दोनों नदियों में पूजा अर्चना करना शुरू करने को कहा. देवियों ने पुजारी को कहा कि पूजा-अर्चना के बाद मछुआरे से नदी में आखेट (शिकार) कराएं. वहां आपको शंख और बाजे के रूप में हमारे दर्शन होंगे. सुबह उठकर हरेंद्र नाथ जिया ने दंतेश्वरी मंदिर संगम तट पर शंखिनी-डंकिनी नदी में मछुआरे से शिकार कराया. शिकार में जिया बाबा को शंखिनी नदी से शंख (conch) और डंकिनी नदी से बाजा मिला. जिसे पुजारी ने मां दंतेश्वरी मंदिर में लाकर विधि विधान पूजा-अर्चना कर विराजमान किया. इसी वजह से मां दंतेश्वरी मंदिर के पीछे संगम तट का नाम शंखिनी-डंकिनी नदी पड़ा. ये शंख और बाजा आज भी मंदिर में पूजे जाते हैं.

SPECIAL: संरक्षण के अभाव में दंतेवाड़ा की प्राचीन विरासत हो रही विलुप्त

राजा अन्नम देव ने बनवाया था मंदिर

जानकार ठाकुर रामकुमार ने बताया कि पौराणिक कथा के अनुसार माता दंतेश्वरी दुर्गा का रूप होने के कारण चौसठ योगिनी के रूप में विराजमान हैं. जिनमें से दो योगनियां हैं जो शंखिनी-डंकिनी के नाम से जानी जाती हैं. ये दोनों देवियां दंतेवाड़ा में मां दंतेश्वरी की सहचरी बन कर रहती हैं और नदी बनकर दंतेश्वरी मंदिर के पीछे प्रवाहित होती हैं. जिस जगह पर मां दंतेश्वरी का भव्य मंदिर है, पुरानी कथाओं के अनुसार राजा अन्नम देव (Raja Annam Dev) बस्तर में राज किया करते थे. उन्होंने मां दंतेश्वरी का छोटा मंदिर बनवाया था. जिसके आसपास विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बिखरी पड़ी थी. इन्हें राजा ने संग्रहित कर मंदिर में स्थापित कराया था.

मां दंतेश्वरी और भैरव बाबा के पद चिन्ह

एक और कथा के अनुसार नदी के तट पर एक पत्थर है, जिस पर भैरव बाबा के पैरों के निशान (Footprints of Bhairav Baba) है. ऐसा ही एक निशान माई जी की बगिया में मां दंतेश्वरी देवी के पद चिन्ह (Footprints of Danteshwari Devi) का भी है. पौराणिक कथा के मुताबिक भैरव बाबा मां दंतेश्वरी से रूठकर जाने लगे और पीछे-पीछे दंतेश्वरी देवी जाने लगीं. तब माई जी की बगिया में मां दंतेश्वरी के पादुका के निशान बने. ऐसे ही नदी के तट मौजूद विशाल पत्थर पर भैरव बाबा के पद चिन्ह बने. जिसके बाद भैरव बाबा आगे बढ़ गए और भैरमगढ़ पहुंच गए. इसलिए उस जगह का नाम भैरमगढ़ पड़ा. यहां भैरव बाबा का विशाल मंदिर भी है.

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