दंतेवाड़ा: फागुन मेले के नौवें दिन सोमवार को आंवला मार की रस्म के तहत मां दंतेश्वरी की विधि विधान से पूजा की गई. इसके बाद मां दंतेश्वरी मंदिर से माई जी की नवमी पालकी धूमधाम से नारायण मंदिर के लिए निकाली गई. इसमें बस्तर की संस्कृति, परंपरा और कई रस्मों को निभाते हुए माझी, चालकी और 12 लकवार की उपस्थिति में मां दंतेश्वरी की डोली के साथ 900 से ज्यादा ग्राम के देवी देवता झूमते नाचते गाते नारायण मंदिर पहुंचे. फिर नारायण मंदिर की तीन परिक्रमा के बाद दोबारा डोली को जय स्तंभ चौक लाया गया.
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पगड़ी हरण के बाद आंवला मार की रस्म: दंतेश्वरी मंदिर के पुजारी विजेंद्र नाथ ने बताया कि "वर्षों से चली आ रही परंपरा को फागुन मेले में मनाया जाता है. इसके तहत मां दंतेश्वरी की पालकी के नौवें दिन आंवला मार की रस्म निभाई जाती है. इसमें मंदिर के पुजारी को पगड़ी रस्म के तौर पर पहनाया जाता है. फिर भैरव बाबा मंदिर में आमंत्रण देने के लिए दंतेश्वरी मंदिर से लाट दंड भैरव स्थल तक ले जाया जाता है. मंदिर द्वारा नियुक्त दो पुजारी, जिन्हें लाठुरा बोन्डका कहा जाता है, दोनों पुजारी लाट के साथ झूमते नाचते गाते भैरव स्थल तक पहुंचते हैं. यहां भैरव बाबा की पूजा अर्चना कर भैरव लाट द्वारा पगड़ी हरण की रस्म दोनों पुजारी निभाते हैं. इसके बाद दोबारा भैरव लाट को जय स्तंभ चौक तक लाया जाता है, जहां पर आंवला मार की रस्में निभाई जाती हैं.
दो वर्गों में बंट जाते हैं सेवादार: लाठुरा बोन्डका पुजारी के साथ आए माझी, चालकी, सेवादार, गायता जनजाति के लोग दो वर्गों में बंट जाते हैं और मां दंतेश्वरी के चरणों में अर्पित आंवले के फल सभी को बांट दिया जाता है. इसके बाद आंवला मार की रस्म निभाते हुए जय स्तंभ चौक में दोनों दल एक दूसरे को आंवला फेंक कर मारते हैं. वर्षों से चली आ रही परंपरा के अनुसार "यह आंवला फल जिस किसी को लगता है, उसके पाप, दरिद्रता, बीमारी, लाचारी दूर हो जाती है. दूसरे दिन सुबह पगड़ी दोबारा लेने की रस्म निभाई जाती है, जिसमें माझी, चालकी और गायता को उपहार स्वरूप कुछ देकर सभी को पगड़ी पहनाते हैं."