जगदलपुर : बस्तर दशहरा विश्व प्रसिद्ध है. ये दशहरा बिल्कुल अलग और हटकर है, जिसे देखने के लिए लोगों भारत के कोने से ही नहीं बल्कि विदेशों से भी आते हैं. 600 साल पुराने 75 दिवसीय बस्तर दशहरे की इस परंपरा को 12 से अधिक अनूठी रस्मों के लिए जाना जाता है. यह रस्में ही अन्य स्थानों पर मनाए जाने वाले दशहरे से अलग है. यही वजह है कि हर साल बस्तर दशहरा अपने अलग और आश्चर्यजनक रस्मों के चलते हजारों पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है.
दशहरे का पर्व लोग रावण दहन कर बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाते है. वहीं इन सबसे अलग कभी रावण की नगरी रहे बस्तर में रावणदहन नहीं किया जाता है. आदिकाल में बस्तर को दण्डकारण्य के नाम से भी जाना जाता था, जिसमें रावण राज में असुर वास करते थे. यही वजह है कि बस्तर में आज भी दशहरे के दौरान रावणदहन नहीं किया जाता है. 9 दिनों तक शहर की परिक्रमा करने वाला विशालकाय रथ, करीब 35 फीट ऊंचा और कई टन वजनी होता है. इस रथ का निर्माण स्थानीय आदिवासी औजार और खास लकड़ियों से तैयार करते हैं.
रथ की कहानी है अलग
मान्यता है कि चालुक्य वंश के चौथ शासक महाराज पुरषोत्तम देव की भगवान जगन्नाथ पर गहरी आस्था थी, जिसके कारण महाराज ने अपने राज्य में शांति और विकास की कामना के साथ एक बार पैदल ही ओडिशा के जगन्नाथपुरी की यात्रा की, जहां उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान जगन्नाथ ने उन्हें लाहरु रथपति की उपाधि दी. भगवान जगन्नाथ ने 16 चक्कों का प्रतीकात्मक रथ आशीर्वाद के रूप में दिया. इसके बाद राजा पुरषोत्तमदेव ने रथ के 4 चक्के तो भगवान जगन्नाथ को उसी वक्त अर्पित कर दिए. शेष 12 चक्कों के रथपति की उपाधि लेकर महाराजा पुरषोत्तमदेव बस्तर पहुंचकर 12 चक्कों के विशालकाय रथ की परिक्रमा शुरू की. उस दौर में स्वयं राजपरिवार रथ पर माईं दंतेश्वरी का क्षत्र लेकर सवार होते थे और शहर की परिक्रमा करते थे. 12 चक्के के इस रथ को चलाने में काफी दिक्कतें आती थीं, जिसके चलते कालांतर में 12 चक्के के रथ को राजपरिवार ने 8 और 4 चक्कों के दो रथों में बांट दिया. देश के आजाद होने के बाद अब रथ पर राजपरिवार की जगह केवल माईं दंतेश्वरी के क्षत्र को ही सवार कर परिक्रमा करवाई जाती है. कईं टन वजनी इस विशालकाय रथ को खींचने के लिए सैकड़ों आदिवासी स्वेच्छा से हर साल इक्ट्ठा होते हैं.
पहली रस्म | पाट जात्रा रस्म |
बस्तर मे एतिहासिक विश्व प्रसिद्ध दशहरा पर्व की पहली और मुख्य रस्म पाटजात्रा है. हरियाली अमावस्या के दिन इस रस्म की शुरूआत होती है. इस रस्म मे बिंरिगपाल गांव से दशहरा पर्व के रथ निर्माण के लिए लकड़ी लाया जाता है, जिससे रथ के चक्के का निर्माण किया जाता है. हरियाली के दिन विधि विधान से पूजा के बाद बकरे की बलि और मुगंरी मछली की बलि दी जाती है, जिसके बाद इसी लकड़ी से दशहरा पर्व का विशाल रथ का निर्माण किया जाता है.
दूसरी रस्म | डेरी गढ़ई |
विश्व प्रस्सिद्ध बस्तर दशहरा की दूसरी महत्वपूर्ण रस्म डेरी गड़ाई होती है. मान्यताओ के अनुसार इस रस्म के बाद से ही बस्तर दशहरे के लिए रथ निर्माण का कार्य शुरू किया जाता है. 600 सालों से चली आ रही इस परम्परानुसार बिरिंगपाल से लाई गई सरई पेड़ की टहनियों को एक विशेष स्थान पर स्थापित किया जाता है. विधि विधान पूर्वक पूजा अर्चना कर इस रस्म की अदायगी के साथ ही रथ निर्माण के लिए माई दंतेश्वरी से आज्ञा ली जाती है. इस मौके पर जनप्रतिनिधियों समेत स्थानीय लोग भी बड़ी संख्या में मौजूद होते हैं. इस रस्म के साथ ही विश्व प्रसिद्ध दशहरा रथ के निर्माण की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.
तीसरी रस्म | रथ निर्माण |
तीसरी प्रमुख पंरपरा रथ परिक्रमा है. इसके लिए रथ का निर्माण किया जाता है. इसी रथ मे दंतेश्वरी देवी की सवारी को बैठकार शहर की परिक्रमा कराई जाती है. लगभग 30 फीट ऊंचे इस विशालकाय रथ को परिक्रमा कराने के लिए 400 से अधिक आदिवासी ग्रामीणों की जरूरत पड़ती है. रथ निर्माण में प्रयुक्त सरई की लकड़ियों को एक विशेष वर्ग के लोगों की ओर से लाया जाता है. बेडाउमर और झाडउमर गांव के ग्रामीण आदिवासी मिलकर 14 दिनों में इन लकड़ियों से रथ का निर्माण करते हैं.
चौथी रस्म | काछनगादी रस्म |
बस्तर दशहरा का आरंभ देवी की अनुमति के बाद ही होता है. दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति लेने की यह परम्परा भी अपने आप में अनूठी है. काछन गादी नामक इस रस्म में एक नाबालिग कुंवारी कन्या कांटो के झूले पर लेटकर उत्सव शुरू करने की अनुमति दी जाती है. करीब 600 सालों से यह मान्यता चली आ रही है. मान्यता है कि कांटो के झूले पर लेटी कन्या के अंदर साक्षात देवी आकर उत्सव को शुरू करने की अनुमति देती हैं. बस्तर का महापर्व दशहरा बिना किसी बाधा के संपन्न हो जाता है. इस मन्नत और आशीर्वाद के लिए काछनदेवी की पूजा होती है. काछनदेवी के रूप में अनुसूचित जाति की एक विशेष परिवार की कुंवारी कन्या अनुराधा बस्तर राजपरिवार को दशहरा पर्व आरंभ करने की अनुमति देती है. 12 साल की अनुराधा पिछले 5 सालों से काछनदेवी के रूप में कांटो के झूले पर लेटकर सदियों पुरानी इस परंपरा को निभाते आ रही हैं.
5वीं रस्म | जोगी बिठाई रस्म |
5 वीं रस्म जोगी बिठाई की है, जिसे शहर के सिरहासार भवन में पूर्ण विधि विधान के साथ संपन्न किया जाता है. इस रस्म में एक विशेष जाति का युवक हर साल 9 दिनों तक निर्जल उपवास रख सिरहासार भवन स्थित एक निश्चित स्थान पर तपस्या के लिए बैठता है. इस तपस्या का मुख्य उद्देश्य दशहरा पर्व को शांतिपूर्वक और निर्बाध रूप से संपन्न कराना होता है. जोगी बिठाई रस्म में जोगी से तात्पर्य योगी से है. इस रस्म से एक किवदंती जुड़ी हुई है. सालों पहले दशहरे के दौरान हल्बा जाति का एक युवक जगदलपुर स्थित महल के नजदीक तप की मुद्रा में निर्जल उपवास पर बैठ गया था. दशहरे के बीच 9 दिनों तक बिना कुछ खाए, मौन अवस्था में युवक के बैठे होने की जानकारी जब तत्कालीन महाराज को मिली, तो वह खुद योगी के पास पहुंचे और उससे तप पर बैठने का कारण पूछा. योगी ने बताया कि उसने दशहरा पर्व को शांति पूर्वक रूप से संपन्न कराने के लिए यह तप किया है. राजा ने योगी के लिए महल से कुछ दूरी पर सिरहासार भवन का निर्माण करवाकर इस परंपरा को आगे बढ़ाए रखने में सहायता की. तब से हर साल इस रस्म में जोगी बनकर हल्बा जाति का युवक 9 दिनों की तपस्या में बैठता है.
6वीं रस्म | रथ परिक्रमा रस्म |
बस्तर दशहरे मे 6वां और अनूठा रस्म विश्व प्रसिद्द रथ परिक्रमा का है. लकड़ियों से बनाए गए लगभग 40 फीट ऊंचे रथ पर माई दंतेश्वरी के छत्र को बैठाकर शहर के सिरहासार चौक से गोलबाजार होते हुए वापस मंदिर तक परिक्रमा लगाई जाती है. लगभग 30 टन वजनी इस रथ को सैकड़ों ग्रामीण मिलकर अपने हाथों से खींचते हैं. बस्तर दशहरे कि इस अद्भुत रस्म कि शुरुआत 1420 ईसवी में तात्कालिक महाराजा पुरषोत्तम देव ने की थी. महाराजा पुरषोत्तम ने जगन्नाथपुरी जाकर रथ पति कि उपाधि प्राप्त की थी. इसके बाद से अब तक यह परम्परा इसी तरह चले आ रही है.
7वीं रस्म | बेल पूजा रस्म |
7वीं रस्म में बस्तर महाराजा की तरफ से शहर से लगे सर्गीपाल में एक बेल पेड़ की वृक्ष की पूजा की जाती है. बस्तर के राजकुमार गाजे-बाजे के साथ इस बेल वृक्ष की पूजा के लिए पहुंचते है. पूजा करने के बाद वे राजमहल लौट जाते हैं. आज भी यह परंपरा निभाई जाती है. बस्तर राजपरिवार के सदस्य वृक्ष पूजा के लिए पहुंचते हैं.
8वीं रस्म | निशा जात्रा रस्म |
बस्तर दशहरे कि सबसे अद्भुत रस्म निशा जात्रा होती है. इस रस्म को काले जादू की रस्म भी कहा जाता है. प्राचीन काल में इस रस्म को राजा महाराजा बुरी प्रेत आत्माओं से अपने राज्य की रक्षा के लिए निभाते थे, जिसमें हजारों बकरों, भैंसों की बलि भी दी जाती थी. अब केवल 11 बकरों की बलि देकर इस रस्म कि अदायगी रात 12 बजे के बाद शहर के गुडी मंदिर में पूरी की जाती है. इस रस्म कि शुरुआत 1303 ईसवी में की गई थी. इस रस्म में बलि चढ़ाकर देवी को प्रसन्न किया जाता है, जिससे देवी राज्य कि रक्षा बुरी प्रेत आत्माओं से करें. निशा जात्रा की यह रस्म बस्तर के इतिहास में बहुत ही खास है.
9 वीं रस्म | मावली परघांव रस्म |
विश्व प्रसिध्द बस्तर दशहरा का खास एक रस्म मावली परघाव है. इस रस्म को दो देवियों के मिलन की रस्म कही जाती है. इस रस्म को जगदलपुर दंतेश्वरी मंदिर के प्रांगन में अदा की जाती है. इस रस्म में शक्तिपीठ दन्तेवाड़ा से मावली देवी की क्षत्र और डोली को जगदलपुर के दंतेश्वरी मंदिर लाया जाता है, जिसका स्वागत बस्तर के राजकुमार और बस्तरवासियों की तरफ से किया जाता है. नवमी मे मनाये जाने वाले इस रस्म को देखने के लिए बड़ी संख्या में लोगो का जन सैलाब उमड़ पड़ता है. बस्तर के महाराजा रूद्र प्रताप सिंह माई के डोली का भव्य स्वागत करते थे, वो परम्परा आज भी बखूभी निभाई जाती है.
10वीं रस्म | भीतर रैनी बाहर रैनी रस्म |
10वीं रस्म यानी भीतर रैनी रस्म में रथ परिक्रमा पूरी होने पर आधी रात को इसे चुराकर माड़िया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते हैं. कहा जाता है किराजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ को चुराकर एक जगह छिपा दिया था, जिसके बाद राजा उसके अगले दिन बाहर रैनि रस्म के दौरान कुम्हडाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर उनके साथ भोजन करते थे. इसके बाद रथ को वापस जगदलपुर लाया जाता था. बस्तर के राजा पुरषोत्तम देव ने जगन्नाथपुरी से रथपति की उपाधि ग्रहण करने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा शुरू की गई, जो कि अब तक चली आ रही है. इसी के साथ बस्तर में विजयादशमी के दिन रथ परिक्रमा समाप्त हो जाती है.
11वीं रस्म | मुरिया दरबार |
मुरिया दरबार दशहरा की रस्मों में से एक रस्म मुरिया दरबार की है. बस्तर महाराजा ग्रामीण अंचलों से पहुंचने वाले माझी चालकियों और दशहरा समिति के सदस्यों से मुलाकात कर उनकी समस्या सुनने के साथ उसका निराकरण करते थे. आधुनिक काल में प्रदेश के मुख्यमंत्री माझी चालकियों के बीच पहुंचकर उनकी समस्या सुनने के साथ उनका निराकरण करते हैं. साथ ही दशहरा में इन माझी चालकियों को दी जाने वाली मानदेय में वृद्धि और अन्य मांगों पर सुनवाई कर उसका निराकरण किया जाता है.
12वीं रस्म | डोली विदाई व कुटुम्ब जात्रा पूजा |
बस्तर दशहरा का समापन डोली विदाई और कुटुम्ब जात्रा पूजा के साथ की जाती है. दंतेवाड़ा से पधारी मांई की विदाई को परंपरा को जिया डेरा से दंतेवाड़ा के लिए की जाती है. मांई दंतेश्वरी की विदाई के साथ ही ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है. विदाई से पहले मांई की डोली और छत्र को स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सशस्त्र सलामी बल मांई को सलामी देने के बाद डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित जिया डेरा तक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है. विदाई के साथ अन्य ग्रामों से पहुंचे देवी-देवता को भी विदाई दी जाती है. इसके साथ ही 75 दिनों तक चलने वाले ऐतिहासिक बस्तर दशहरा पर्व का समापन होता है.