बालोद: तांदूला नदी को बालोद की जीवनदायिनी यूं ही नहीं कहा जाता. नदी की रेत पर खेती करते किसान इस आस में हैं कि खरीफ की फसल की नुकसान की भरपाई की जा सके. ग्राम पड़कीभाट, उमरादाह, चरोटा, सिवनी, नेवारी जैसे कई गांव के भूमिहीन मजदूर परिवारों के लिए ये नदी ही जीवन यापन का सहारा है. सैकड़ों परिवार यहां सब्जी की खेती कर रहे हैं, यहां की सब्जियां बालोद जिले से लेकर रायपुर तक में बेची जाती है.
ईटीवी भारत की टीम ने किसानों से बात की. उन्होंने बताया कि यहां होने वाली पैदावार से अच्छी खासी आमदनी हो जाती है. यहां हम धान की फसल से ज्यादा मुनाफा कमा लेते हैं. इन सब्जियों की बाजार में भी अच्छी कीमत है. किसानों के अनुसार 3 महीने की कड़ी मेहनत के बाद करीब 20 से 25 हजार रुपए की आमदनी हो जाती है.
रेत पर खेती की चली आ रही परंपरा
तीजन बाई ने बताया कि बरसों से रेत पर कृषि करने की परंपरा चली आ रही है. मानसून के बाद रेत में खेती करने किसान जुट जाते हैं. जिसका हमें फायदा भी मिलता है. उन्होंने बताया कि पूरे परिवार समेत वे सुबह से आ जाते हैं और भोजन भी यहीं करते हैं. शाम ढलते ही अपने घरों को वापस लौट जाते हैं.
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इन फसलों की होती है खेती
तांदुला नदी में सबसे ज्यादा कांदे की खेती की जाती है. इसके साथ ही आलू, प्याज, तरबूज समेत कुछ ऐसी फसल जो कि रेत में ज्यादा उगती हैं. उन फसलों की खेती यहां की जाती है. इसमें प्याज की भाजी और मूली आदि शामिल हैं.
इस तरह होती है रेत में खेती
रेत में खेती करने का यह काम आसान नहीं है. सबसे पहले रेत को समतल बनाया जाता है. फिर 3 गुना 30 फीट के आकार के गहरे नाले बनाए जाते हैं. जिससे नदी का पानी किनारे से निकाला जा सके और खेतों को नुकसान ना पहुंचे. इसके बाद छोटे-छोटे खेतों में नर्सरी से पौधा तैयार कर खेती की जाती है. रोपाई के बाद पौधों का इंतजार होता है, इस दौरान पानी पौधों को नदी के पानी से बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है.
छोटे-छोटे गड्ढों से होती है सिंचाई
यहां पर सिंचाई के लिए किसी कृत्रिम चीजों की जरूरत नहीं पड़ती. बल्कि नदियों में ही छोटे छोटे गड्ढे कर यहां पर सिंचाई की व्यवस्था बनाई जाती है. गड्ढों में नदी का पानी रिसने के कारण 12 महीने पानी भरा रहता है. भीषण गर्मी में भी हल्का सा गड्ढा नदी में किया जाए तो वहां पानी एकत्र हो जाता है. इसी गढ्ढों के पानी के सहारे सिंचाई की जाती है.
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बालू से पत्थर करते हैं अलग
बारिश के दिनों पानी के साथ कंकड़ बह कर आ जाते है. ये कंकड़ खेतों को काफी नुकसान पहुंचाते हैं. इसके लिए खेती करने के पहले इन पत्थरों का एक-एक टुकड़ा उठाकर बालू से अलग किया जाता है. जिससे रेत पूरी तरह भुरभुरी हो जाए और फसल अच्छी हो सके.
कभी-कभी हो जाता है नुकसान
कभी-कभी बेमौसम बरसात और मौसम की खराब स्थिति से यहां खेती करने वाले भूमिहीन किसानों को घाटा भी होता है. नदियों में आने वाली बाढ़ से फसल चौपट हो जाती है. जिससे काफी नुकसान का सामना करना पड़ता है.
कांदा छत्तीसगढ़ में काफी लोकप्रिय
तमाम मुश्किलों के बाद भी किसान अपना काम बखूबी करते हैं. इसी उम्मीद में कि उनकी मेहनत रंग लाएगी. स्थानीय बाजार के हिसाब से सबसे ज्यादा यहां से कांदे की फसल ली जाती है. कांदा छत्तीसगढ़ में काफी लोकप्रिय है. साथ ही इसकी भाजी में भी काफी मिठास होती है. इसके साथ ही किसान तरबूज, खरबूज, लौकी, कुमड़ा, करेला और अन्य सब्जियां उगाते हैं. भूमिहीन किसानों की यह तरकीब और इस तरह की खेती से उन्हें फायदा तो हो रहा है. लेकिन यह लंबी अवधि तक नहीं बना रहता है.