बालोदः जिले के हीरापुर के तालाब सहित कई खेतों में किसान कमल कंद की खेती कर रहे हैं. कमल कंद को क्षेत्रिय बोली में कमल ककड़ी या ढेंस भी कहा जाता है. जिले के कृषि विभाग के पास इसके उत्पादन के रकबे का कोई वास्तविक आंकड़ा नहीं है. यह खेती किसी आंकड़े पर स्थाई नहीं है, क्योंकि ज्यादातर ये ग्रामीण क्षेत्र में नदियों के किनारे, तलाबों और पोखरों में उगाई जाती है.
बालोद से लेकर रायपुर तक मांग
कमल कंद की फसल काफी प्राकृतिक और खूबियों से भरी होती है. यह रेशेदार सब्जी है. इसकी खेती कम होने की वजह से इसकी मांग बालोद से लेकर रायपुर तक है. इसकी फसल से किसानों को अच्छा मुनाफा भी मिल जाता है. पिछले 20 सालों से किसान यहां कमल कंद की खेती कर रहे हैं. उनका कहना है कि 'इसके साथ मछली पालन भी किया जा सकता है. बाजार में यह सब्जी कम आने की वजह से हाथों-हाथ बिक जाती है और ज्यादा कमाई की उम्मीद से किसान इसे महानगरों में भेज देते हैं.
50 हजार तक की होती है आमदनी
इस फसल की खेती करने में ज्यादा लागत की जरूरत नहीं है. इसमें बस मेहनत की जरूरत होती है. एक एकड़ में लगभग 50 हजार रुपये तक की आमदनी इस खेती से हो जाती है और सीजन में यह 20 से 30 रुपए प्रति बंडल के हिसाब से बेचा जाता है.
फूल से जड़ तक होती है उपयोगी
खेती करने वाले किसान बताते हैं कि 'इसके फूल से लेकर जड़ तक हर चीज उपयोगी होती हैं. कमल का फूल मंदिरों में पूजा-अर्चना के लिए जाता है, ढेंस की सब्जी बनाई जाती है, कमल के अंदर का फल जिसे पोखरा कहा जाता है उसे भी पूजा-पाठ में रखा जाता है और चाव से खाया जाता है. इसके साथ ही मछली पालन का कार्य भी अच्छे तरीके से किया जा सकता है.
ग्राहकों को होता है कमल कंद का इंतजार
किसान राम सिंह निषाद ने बताया कि, 'हर दिन एक व्यक्ति 10 हजार रुपये तक की फसल उगा सकता है. इस सब्जी की मांग इतनी हैं कि हम इसकी पूर्ति नहीं कर पाते हैं और तो और यह काफी पौष्टिक होता है और प्राकृतिक भी जिसके लिए ग्राहकों को काफी इंतजार रहता है.