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World Environment Day 2023: अंबिकापुर के पर्यावरण संरक्षक गंगाराम 1985 से कर रहे संघर्ष - Environment Guardian Gangaram Paikara

अंबिकापुर के पर्यावरण संरक्षक गंगाराम पैकरा साल 1985 से पर्यावरण रक्षा के लिए संघर्ष कर रहे हैं. ईटीवी भारत ने गंगाराम से खास बातचीत की. आइए जानते हैं उन्होंने क्या कहा...

World Environment Day 2023
विश्व पर्यावरण दिवस 2023
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Published : Jun 5, 2023, 2:06 PM IST

Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST

गंगाराम पैकरा से खास बातचीत

अंबिकापुर: पर्यावरण संरक्षण आज के समय में बड़ी चुनौती है क्योंकि आधुनिकीकरण, डेवलपमेंट और औद्योगिकरण जैसी चीजें भी आज के दौर में काफी जरूरी हो गई है. इस बीच लोग आर्थिक लाभ के कारण पर्यावरण संरक्षण को ताक में रखकर आगे बढ़ रहे हैं. आज विश्व पर्यावरण दिवस है. इस मौके पर ईटीवी भारत ने अंबिकापुर के पर्यावरण संरक्षक गंगाराम पैकरा से खास बातचीत की. गंगाराम सालों से पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं.

Gangaram paikara
गंगाराम पैकरा

2005 में बना कानून: गंगाराम पैकरा 1985 से पर्यावरण बचाने की दिशा में काम कर रहे हैं. पर्यावरण की दिशा में काम करते हुए उन्होंने सबसे पहले मैनपाट में बॉक्साइट उत्खनन का विरोध किया. काफी दिनों तक हड़ताल की लेकिन कोई लाभ नहीं मिला. लेकिन गंगाराम हार नहीं माने.

साल 2005 में वन अधिनियम में संसोधन हुए. जंगल में रहने वाले लोगों को जंगल से संरक्षण और संवर्धन का अधिकार देने का कानून बना. इसके बाद से हमारे अभियान को ताकत मिली.साल 2006 से प्रयास फिर शुरू हुआ लेकिन ये इतना आसान नही था. क्योंकि जंगल पर वन विभाग के अधिकारियों का एकाधिकार हुआ करता था. जंगल वन विभाग की कमाई का एक जरिया भी था. संघर्ष जारी रहा और अंततः कांग्रेस की सरकार ने जन घोषणा पत्र के वादे को निभाया और सरगुजा जिले के लगभग 250 से अधिक गावों को वन संरक्षण अधिकार पत्र दे दिया."- गंगाराम पैकरा, पर्यावरण संरक्षक

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वन संरक्षण अधिकार कानून में ग्राम सभा को अधिकार: वन संरक्षण अधिकार मिलने के बाद गांव के लोगों के द्वारा वन संरक्षण और वनोपज की बिक्री तय करने का अधिकार ग्राम सभा को मिल गया. गंगाराम बताते हैं कि "इस अधिकार के अनुसार ग्राम सभा तय करेगी कि वो अपने जंगल को कैसे बचाएं? वनोपज उपयोग कर कैसे लाइवलीहुड को बढ़ाये. आजादी के पहले भी जंगल वहां रहने वाले लोगों का होता था. लेकिन अब सम्पूर्ण अधिकार ग्राम सभा को मिल चुका है.लोंगो के हाथ में जंगल आने से वो मजबूत हुए क्योंकि जंगल बचेगा तो ही दुनिया बचेगी. ग्राम सभा के माध्यम से बनाये गए नियम कानून के अनुसार वन विभाग को मानना चाहिए. हालांकि फिर भी संघर्ष होता है. पारंपरिक सीमा के आधार पर गांव का दावा बनाकर सरकार को पेश करना होता है. ये बड़ा ही कठिन काम है. हमने दावा बनाकर दिया, जिससे सामुदायिक वन अधिकार मिल सका.

वन विभाग का हस्तक्षेप नहीं हो रहा खत्म: गंगाराम कहते है कि "वन विभाग सालों से जंगल पर अपना कानून चलाते आ रहे हैं. राज्य सरकार ने जंगल का अधिकार ग्राम सभा को दे तो दिया लेकिन वन विभाग ही वनोपज पर नियंत्रण रखता है. जैसे तेंदू पत्ता आज भी वन विभाग खरीदता और बेचता है. जबकि कानून में ग्राम सभा को वनोपज कहीं भी बेचने का अधिकार प्राप्त है. अधिकार पत्र तक की सफलता मिल चुकी है, लेकिन संघर्ष अब भी जारी है. जिस दिन गांव के लोगों को वनोपज का लाभ पूरा मिलने लगेगा तब जंगल बच पाएगा. क्योंकि वनोपन के लाभ के लिए लोग जंगल को स्वयं बचाएंगे."

1985 से संघर्ष कर रहे हैं गंगाराम: बता दें कि गंगाराम पैकरा साल 1985 से ही पर्यावरण संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं. सालों से चल रहे संघर्ष में भले ही अभी पूरी तरह से सफलता न मिली हो लेकिन गंगाराम हार नहीं माने हैं. आज भी ये निरंतर पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं.

गंगाराम पैकरा से खास बातचीत

अंबिकापुर: पर्यावरण संरक्षण आज के समय में बड़ी चुनौती है क्योंकि आधुनिकीकरण, डेवलपमेंट और औद्योगिकरण जैसी चीजें भी आज के दौर में काफी जरूरी हो गई है. इस बीच लोग आर्थिक लाभ के कारण पर्यावरण संरक्षण को ताक में रखकर आगे बढ़ रहे हैं. आज विश्व पर्यावरण दिवस है. इस मौके पर ईटीवी भारत ने अंबिकापुर के पर्यावरण संरक्षक गंगाराम पैकरा से खास बातचीत की. गंगाराम सालों से पर्यावरण की रक्षा कर रहे हैं.

Gangaram paikara
गंगाराम पैकरा

2005 में बना कानून: गंगाराम पैकरा 1985 से पर्यावरण बचाने की दिशा में काम कर रहे हैं. पर्यावरण की दिशा में काम करते हुए उन्होंने सबसे पहले मैनपाट में बॉक्साइट उत्खनन का विरोध किया. काफी दिनों तक हड़ताल की लेकिन कोई लाभ नहीं मिला. लेकिन गंगाराम हार नहीं माने.

साल 2005 में वन अधिनियम में संसोधन हुए. जंगल में रहने वाले लोगों को जंगल से संरक्षण और संवर्धन का अधिकार देने का कानून बना. इसके बाद से हमारे अभियान को ताकत मिली.साल 2006 से प्रयास फिर शुरू हुआ लेकिन ये इतना आसान नही था. क्योंकि जंगल पर वन विभाग के अधिकारियों का एकाधिकार हुआ करता था. जंगल वन विभाग की कमाई का एक जरिया भी था. संघर्ष जारी रहा और अंततः कांग्रेस की सरकार ने जन घोषणा पत्र के वादे को निभाया और सरगुजा जिले के लगभग 250 से अधिक गावों को वन संरक्षण अधिकार पत्र दे दिया."- गंगाराम पैकरा, पर्यावरण संरक्षक

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वन संरक्षण अधिकार कानून में ग्राम सभा को अधिकार: वन संरक्षण अधिकार मिलने के बाद गांव के लोगों के द्वारा वन संरक्षण और वनोपज की बिक्री तय करने का अधिकार ग्राम सभा को मिल गया. गंगाराम बताते हैं कि "इस अधिकार के अनुसार ग्राम सभा तय करेगी कि वो अपने जंगल को कैसे बचाएं? वनोपज उपयोग कर कैसे लाइवलीहुड को बढ़ाये. आजादी के पहले भी जंगल वहां रहने वाले लोगों का होता था. लेकिन अब सम्पूर्ण अधिकार ग्राम सभा को मिल चुका है.लोंगो के हाथ में जंगल आने से वो मजबूत हुए क्योंकि जंगल बचेगा तो ही दुनिया बचेगी. ग्राम सभा के माध्यम से बनाये गए नियम कानून के अनुसार वन विभाग को मानना चाहिए. हालांकि फिर भी संघर्ष होता है. पारंपरिक सीमा के आधार पर गांव का दावा बनाकर सरकार को पेश करना होता है. ये बड़ा ही कठिन काम है. हमने दावा बनाकर दिया, जिससे सामुदायिक वन अधिकार मिल सका.

वन विभाग का हस्तक्षेप नहीं हो रहा खत्म: गंगाराम कहते है कि "वन विभाग सालों से जंगल पर अपना कानून चलाते आ रहे हैं. राज्य सरकार ने जंगल का अधिकार ग्राम सभा को दे तो दिया लेकिन वन विभाग ही वनोपज पर नियंत्रण रखता है. जैसे तेंदू पत्ता आज भी वन विभाग खरीदता और बेचता है. जबकि कानून में ग्राम सभा को वनोपज कहीं भी बेचने का अधिकार प्राप्त है. अधिकार पत्र तक की सफलता मिल चुकी है, लेकिन संघर्ष अब भी जारी है. जिस दिन गांव के लोगों को वनोपज का लाभ पूरा मिलने लगेगा तब जंगल बच पाएगा. क्योंकि वनोपन के लाभ के लिए लोग जंगल को स्वयं बचाएंगे."

1985 से संघर्ष कर रहे हैं गंगाराम: बता दें कि गंगाराम पैकरा साल 1985 से ही पर्यावरण संरक्षण के लिए संघर्ष कर रहे हैं. सालों से चल रहे संघर्ष में भले ही अभी पूरी तरह से सफलता न मिली हो लेकिन गंगाराम हार नहीं माने हैं. आज भी ये निरंतर पर्यावरण संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं.

Last Updated : Jul 25, 2023, 8:01 AM IST
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