सरगुजा: डाउन सिंड्रोम बीमारी के विषय में लोगों की जागरूकता कम है. इस बीमारी को आज के समय में भी लोग समझ नहीं पाते हैं. आज हम आपको इस बीमारी के विषय में कई महत्वपूर्ण जानकारी देने जा रहे हैं. हमने इस जानकारी के लिए क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट से बातचीत की.
क्रोमोसोम की संख्या हैं इसका कारण: क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ सुमन ने बताया कि "डाउन सिंड्रोम मानसिक दिव्यांगता की श्रेणी में आता है. इसमे क्रोमोजोम की प्रॉब्लम होती है. सामान्य तौर पर 23 जोड़े क्रोमोसोम पाए जाते हैं लेकिन इस तरह के जो डाउन सिंड्रोम बच्चे होते हैं उनमें 21वीं जोड़े में एक क्रोमोसोम ज्यादा होता है. इसके कारण 46 की जगह 47 क्रोमोजोम हो जाते हैं. इस वजह से ये प्रॉब्लम होती है. ऐसे बच्चों को देखने से ही समझ मे आता है कि ये डाउन सिंड्रोम है. इनकी जैसे नेपाली लुक, चायनीज जैसे होती हैं. छोटी छोटी आंखे होती हैं."
मानसिक दिव्यांग के मुकाबले जल्दी संभव है इलाज: क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ सुमन ने बताया कि "इस तरह के बच्चों में विकास ज्यादा सम्भव होता है. मानसिक दिव्यांग बच्चों की तुलना में सुधार अच्छा होता है. ऐसे बच्चों में मैंने देखा है, अच्छी गाइडलाइन, अच्छी थेरेपी, अच्छी ट्रीटमेंट मिलने से ऐसे बच्चे गाने में, पढ़ने में, लिखने में बाकी एक्टिविटी में काफी आगे निकलते हैं."
इस तरह देते हैं थेरेपी: डाउन सिंड्रोम के बच्चों में इंटलेक्चुवल इम्पेल्ड होती है, जिसकी वजह से सोशल स्किल इनमें कम होती हैं. तो सोशल स्किल इनका बढ़ाते हैं. दूसरा दिमागी विकास इनका बढ़ाते हैं. कोगनिटी डेवलपमेंट करते हैं. जो कोगनेटिव थेरेपी देने से काफी इम्प्रूवमेंट होता है. इस तरह के बच्चों में स्पीच की, चलने की, लोको मोटर प्रॉब्लम होती है, जिसमें फिजियोथेरेपी और स्पीच थेरेपी के जरिए इनका विकास किया जाता है. क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. सुमन ने बताया कि "बौद्धिक विकास के लिए स्पेशल एजुकेटर लोग भी इनको अलग से ट्रेनिंग देते हैं ताकि ऐसे बच्चों में विकास हो सके. अगर ऐसे बच्चे दिखते हैं तो ऐसे बच्चों के लिए हर संभाग के डीआई होता है. डिस्ट्रिक्ट अर्ली इंटरवेंशन सेंटर, जहां 18 साल से कम उम्र के बच्चों का हर तरह का इलाज किया जाता है."
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निशुल्क इलाज और आने जाने की सुविधा: क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. सुमन ने बताया कि "जितनी जल्दी हो सके ऐसे बच्चों को डीआईसी ले आइये, अगर आस पास डीआईसी नही है तो किसी भी शिशु रोग विशेषज्ञ को, मनोरोग विशेषज्ञ को या किसी क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट को जल्द से जल्द दिखाइए. हर एक जिले के हर एक ब्लाक में आरबीएसके की टीम होती है. ऐसे बच्चों को ये लोग डीआईसी में लाते हैं और थेरेपी कराते हैं."