सरगुजा: सूर्य देव की पूजा (Worship of Sun God), आराधना और उपासना का महापर्व छठ इसे लेकर जितना उत्साह और मान्यताएं हैं, उतना ही कठिन यह व्रत है. सनातन धर्म के किसी भी व्रत उपवास से कहीं अलग और बेहद अनुशासन का यह व्रत इंसान को जीवन मे कई सीख भी देता है. इस व्रत की हर विधि में कठिन और सख्त अनुशासन का पाठ लोग पढ़ जाते हैं. इस अनुशासन में कोई रूढ़िवादी सोच नहीं है. बल्कि हर उस कार्य को सही तरीके से किये जाने की सीख मिलती है. जो हम आम तौर पर अपने जीवन में नहीं करते हैं. कठिन और अनुशासित भी यह व्रत इसलिए लगता है क्योंकि सनातनी अपनी परंपराओं से काफी दूर निकल चुके हैं. जिस वजह से छठ व्रत के नियम कठिन और अनुशासित लगते हैं. सामान्य जीवन में भी मनुष्य को इन अनुशासनों का पालन करना चाहिए. इसमें किसी और की नहीं बल्कि इंसान की खुद की ही प्रगति निहित है. ETV भारत आपको बता रहा है, छठ पूजन की पूरी पूजा विधि.
सरगुजा में छठ का स्वरूप
अम्बिकापुर के शंकर घाट, खर्रा नदी, खैरबार, गोधनपुर, सत्तीपारा तालाब जहां मूख्य रूप से सबसे अधिक भीड़ होती है. इन सभी घाटों में इस दिन लगभग 1 लाख से अधिक लोगों की भीड़ एकत्र होते हैं. अकेले शंकर घाट में ही प्रति वर्ष 30 हजार से अधिक लोग आते हैं. जबकि खर्रा में इस वर्ष 1 हजार सुपला रखने की व्यवस्था है. इस व्रत में एक व्रती के साथ परिवार और आसपास के लगभग 15-20 लोग शामिल होते हैं. मतलब इस घाट में 1 लाख से भी अधिक की भीड़ जुटने की आशंका है.
अम्बिकापुर से झारखंड को जाने वाले मुख्यमार्ग पर स्थित शंकर घाट में छठ पर्व की भीड़ के कारण लगभग 24 घंटे मुख्य मार्ग बंद रहता है और प्रशासन रुट डायवर्ट कर आवागमन संचालित करता है. जिले भर में करीब 20 बड़े तथा 150 से अधिक छोटे छठ घाट में छठ पूजा की जाती है. जिले की जनसंख्या की लगभग 20 फीसदी और शहर की आबादी के 80 प्रतिशत लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से छठ पर्व का हिस्सा बनते है.
कठिन अनुशासन का व्रत
छठ पर्व जितने भव्य स्वरूप में मनाया जाता है उतना ही कठिन और अनुशासन का व्रत इस पर्व में किया जाता है. सनातन धर्म के सबसे कठिन व्रतों में इसे माना जाता है. तीन दिवसीय इस व्रत में व्रत करने के लिये 4 दिनों की लंबी प्रक्रिया से गुजरना होता है.
पहला दिन- नहाय खाय
छठ व्रत की शुरुआत पहले दिन पूजा में उपयोग किये जाने वाले गेहूं की साफ सफाई और धुलाई से होती है. इस दिन महिलाएं पूर्णतः शुद्ध होकर गेंहू धोती है और गेहूं को धूप में सुखाया जाता है. इस दौरान यह भी ध्यान रखना होता है कि कोई पक्षी इस गेहूं में चोंच मारकर इसे जूठा ना कर दे. इसके बाद पुराने समय में उपयोग की जाने वाली हाथ चक्की (जांता) में यह गेहूं पीसा जाता है. इस दिन नहाय खाये का पालन शुरू होता है. जिसमें व्रत रखने वाले लोग नहाकर पूरी तरह शुद्ध होकर उस दिन व्रत शुरू करने से पहले का अपना भोजन खुद बनाते हैं. शुद्ध घी में बनने वाले इस भोजन को खाने के बाद से व्रत शुरू हो जाता है. व्रत शुरू होने से 24 घंटे पहले बिना लहसुन प्याज के शुद्ध और सात्विक भोजन किया जाता है.
दूसरा दिन खरना
व्रत के दूसरे दिन व्रती निर्जला व्रत रखे हुये शाम को नए चावल, गुड़ और घी से खीर बनाती है. इस क्रिया को खरना कहा जाता है. इस खीर को व्रती महिला या पुरुष खाते हैं लेकिन इस भोजन के दौरान भी बड़ा ही कठिन नियम का पालन करना होता है. व्रत के दौरान खीर वाले शख्स के कानों के भोजन के वक्त किसी भी जीव-जंतु या इंसान की पुकार नहीं जानी चाहिये या फिर उस खीर में कोई कंकण या पत्थर भी नहीं आना चाहिए. वरना उसे अपना भोजन वहीं पर छोड़ना पड़ेगा फिर चाहे वो पहला निवाला ही क्यों ना खाया हो, इसलिए इस दौरान परिवार के सभी लोग एक जगह शांति से बैठ जाते हैं और मोहल्ले में कोई पशु आसपास हो तो उसे दूर कर दिया जाता है. इसी दिन शाम को छठ घाट में जाकर पूजन कर अगले दिन की पूजा के लिये स्थान चयन किया जाता है.
तीसरा दिन- अस्तांचलगामी सूर्य को अर्घ्य
व्रत के तीसरे दिन दिन भर निर्जला व्रत करते हुए पूजा की तैयारी होती है और पहले दिन पीसे गये गेहूं के आटे को गुड़ के साथ मिलाकर उसे शुद्ध घी में तलकर प्रसाद बनाया जाता है. जिसे स्थानीय भाषा ठेकुआ कहा जाता है. इसके साथ ही सूर्य देव को चढ़ाने के लिये कार्तिक मास में आने वाले सभी नये फल जैसे, गन्ना, शरीफा, अदरक, मूगफली, सेव, केला, सकला, जैसे तमाम फलों के साथ ठेकुआ के प्रसाद से सूपा सजाया जाता है. वह सूपा जो आम तौर पर घरों में अनाज फटकने के काम में आता है. बिल्कुल नये सूप में ये सारी सामग्रियां सजाई जाती हैं. साथ ही तमाम पूजन सामग्री एकत्र होती है और शाम से पहले व्रती अपने पूरे परिवार के साथ छठ घाट के लिए पैदल प्रस्थान कर जाते हैं.
सूर्यास्त से पहले वहां पहुंचकर पहले से चिन्हांकित स्थान पर गन्ने से मंडप बनाया जाता है और प्रसाद से सजे सूपे को मंडप के नीचे रखकर पूजा शुरू की जाती है. जैसे ही सूर्य देव अस्त होने वाले होते हैं उसी समय नदी या तालाब जिसके किनारे पूजा हो रही है. किनारे पर जाकर व्रती अस्तांचलगामी सूर्य को अर्घ्य देते हैं. बिना सिलाई का सिर एक वस्त्र ही व्रती धारण करते हैं और पानी में डुबकी लगाने के बाद गीले शरीर मे ही अर्घ्य देना होना है. इस दौरान परिवार जन पानी व दूध से व्रती को अर्घ्य दिलाते हैं, अर्घ्य देने के बाद व्रती पूरी रात गन्ने से बनाये उसी मंडप के सामने पूरी रात बिना सोए बैठकर गुजारते हैं और इंतजार करते हैं सूर्य देव के उदय होने का.
चौथा दिन- उदीयमान सूर्य को अर्घ्य
व्रत का चौथा दिन सुबह जैसे ही सूर्योदय होने वाला होता है. फिर व्रती नदी के घाट में डूबकी लगा कर सूर्य देव के उदय होने की प्रतीक्षा करते हैं और सूर्योदय होते ही फिर उगते हुए सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर गन्ने के मंडप के नीचे पूजन हवन कर प्रसाद वितरण किया जाता है. यहां पर छठ व्रत सम्पन्न होता है और छठ घाट से वापस घर आने के बाद पांचवे दिन दोपहर तक व्रती अपने व्रत का पारण करते हैं.