रायपुर: राजधानी रायपुर के इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय में पांच दिवसीय एग्री कार्निवाल 2022 में एक खास स्टॉल ने सभी का ध्यान खींचा. जांजगीर से आए बुनकरों की इस स्टॉल में अलसी और केले के रेश से बने कपड़ों ने सभी को (jacket saris from linseed banana fiber) लुभाया. अलसी और केले के रेशे से बनी साड़ी और जैकेट में एक खास तरह की फीलिंग आती है. साड़ी या फिर जैकेट को गर्मी के दिनों में पहना जाता है तो गर्मी कम महसूस होगी और ठंड के दिन में जैकेट या साड़ियों का इस्तेमाल करते हैं तो ठंड कम लगेगी.
15 साल तक रिसर्च के बाद मिली कामयाबी: जांजगीर चांपा के बुनकर मनमोहन लाल देवांगन ने बताया कि "पिता के साथ 15 साल तक रिसर्च किया. कोरोना काल के दौरान अलसी और केले के रेशे से साड़ी और जैकेट बनाने में कामयाबी मिली. अलसी को पानी में डुबाने के बाद उसे पटकते हैं. उसके बाद धागा तैयार होता है. उसी धागे से वस्त्र बनाए जाते हैं. केले की छाल से रेशा निकालकर उसका धागा बनाया जाता है. उसी धागे से साड़ी, जैकेट और गमछा बनाते हैं.''
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प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल: जांजगीर चांपा के बुनकर फिरतूराम देवांगन ने बताया कि '' देहरादून में 15 साल तक फाइबर का काम किया. कोरोना काल में नौकरी चले जाने के बाद वापस अपने गृह ग्राम पहुंचे. अलसी और केला के रेशे से वस्त्र निर्माण पर विचार किया. फिर काम शुरू किया. साड़ी और जैकेट में केमिकल के बजाए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल किया जाता है."
केला रेशा के वेस्ट मटेरियल से बनती है खाद और दवाई: बेमेतरा स्व सहायता समूह की सदस्य मीना रावटे ने बताया कि "अलग-अलग गांव से केले के पेड़ की छाल लाने के बाद मशीन से रेशा बनाया जाता है. इसके साथ ही इस रेशे से निकलने वाले वेस्ट मटेरियल से दवाई और खाद बनाया जाती है. इस रेशे को मार्केट में 120 रुपए किलोग्राम के हिसाब से बेचा जाता है. रेशे निकालने की ट्रेनिंग समूह की महिलाओं को कृषि विज्ञान केंद्र बेमेतरा ने दी थी."
अलसी और केले के रेशे से बुनकरों ने कपड़े तो बना दिए, लेकिन संसाधन और बाजार नहीं होने के कारण इन कपड़ों का कोई मोल नहीं है. यह बुनकर चाहते हैं कि सरकार उनको आगे बढ़ने में मदद करे.