महासमुंद : गुरु अपने शिष्य को शिक्षा तो देता है पर इसके एवज में उसको सही गुरु दक्षिणा नहीं मिलती, उसी तरह कुम्हार मिट्टी को आकार तो देता है पर उसे सही मूल्य नहीं मिल पाता. हम बात कर रहे हैं कुम्हार जाति की, जो सालों से अपने पूर्वजों के व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि आज के अत्याधुनिक जीवन और मशीनी युग में कुम्हारों का व्यवसाय आगे बढ़ने के बजाय और पीछे चला जा रहा है.
दो वक्त की रोटी दिलाता है मिट्टी का मटका
कुम्हार अपने दो वक्त की रोटी की जुगाड़ करने के लिए असहाय हो गए हैं. हाईटेक युग में फ्रिज और अन्य संसाधनों की वजह से लोगों की जिंदगी सुखमय और आरामदायक हो गई है पर जिस तरह कुम्हारों की स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि आने वाले कुछ समय में लोग मिट्टी के मटके, सुराही और बर्तन को भूल जाएंगे.
शासन भी नहीं दे रहा है ध्यान
कुम्हारों का कहना है कि हम गर्मियों में लोगों की प्यास तो बुझा देते हैं पर हमारी भूख और प्यास नहीं मिट पाती क्योंकि शासन हमारे तरफ ध्यान नहीं देता है, इस वजह से आर्थिक परेशानी होती है.
पैसे कम करा लेते हैं ग्राहक
न हमें मिट्टी मिल पाती है न हमें बाजार मिलता है और रही बात लोगों की, तो वे ठंडा पानी के लिए 10, 20 और 100 रुपए खर्च कर देते हैं पर हमारे मटके का 40 रुपए देने के लिए पीछे हट जाते हैं. मटके का चलन कम होने से हमारा रोजगार तो जा ही रहा है साथ में प्याऊ के मटके में पानी भरने वाली जो बाई होती थी, उसका भी रोजगार चला गया.
कुम्हारों का कहना है कि लोग पहले मिट्टी के बर्तन में खाना और पानी पिया करते थे तो लोगों की उम्र बढ़ती थी पर अब ऐसा नहीं होता है. उनका कहना है कि मटके का पानी पीने से न ही पेट में कुछ होगा और न ही गला खराब होगा. इसके अलावा स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.