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महासमुंद: गर्मी में बुझा रहे लोगों की प्यास, पर खुद ही है रोजी-रोटी को मोहताज

आज के दौर में कुम्हारों कि स्थिती बहुत ही दयनीय हो गई है. कुम्हार जाति की, जो सालों से अपने पूर्वजों के व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि आज के अत्याधुनिक जीवन और मशीनी युग में कुम्हारों का व्यवसाय आगे बढ़ने के बजाय और पीछे चला जा रहा है.

मटका
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Published : Apr 12, 2019, 6:52 AM IST

महासमुंद : गुरु अपने शिष्य को शिक्षा तो देता है पर इसके एवज में उसको सही गुरु दक्षिणा नहीं मिलती, उसी तरह कुम्हार मिट्टी को आकार तो देता है पर उसे सही मूल्य नहीं मिल पाता. हम बात कर रहे हैं कुम्हार जाति की, जो सालों से अपने पूर्वजों के व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि आज के अत्याधुनिक जीवन और मशीनी युग में कुम्हारों का व्यवसाय आगे बढ़ने के बजाय और पीछे चला जा रहा है.

कुम्हारों

दो वक्त की रोटी दिलाता है मिट्टी का मटका
कुम्हार अपने दो वक्त की रोटी की जुगाड़ करने के लिए असहाय हो गए हैं. हाईटेक युग में फ्रिज और अन्य संसाधनों की वजह से लोगों की जिंदगी सुखमय और आरामदायक हो गई है पर जिस तरह कुम्हारों की स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि आने वाले कुछ समय में लोग मिट्टी के मटके, सुराही और बर्तन को भूल जाएंगे.

शासन भी नहीं दे रहा है ध्यान
कुम्हारों का कहना है कि हम गर्मियों में लोगों की प्यास तो बुझा देते हैं पर हमारी भूख और प्यास नहीं मिट पाती क्योंकि शासन हमारे तरफ ध्यान नहीं देता है, इस वजह से आर्थिक परेशानी होती है.

पैसे कम करा लेते हैं ग्राहक

न हमें मिट्टी मिल पाती है न हमें बाजार मिलता है और रही बात लोगों की, तो वे ठंडा पानी के लिए 10, 20 और 100 रुपए खर्च कर देते हैं पर हमारे मटके का 40 रुपए देने के लिए पीछे हट जाते हैं. मटके का चलन कम होने से हमारा रोजगार तो जा ही रहा है साथ में प्याऊ के मटके में पानी भरने वाली जो बाई होती थी, उसका भी रोजगार चला गया.

कुम्हारों का कहना है कि लोग पहले मिट्टी के बर्तन में खाना और पानी पिया करते थे तो लोगों की उम्र बढ़ती थी पर अब ऐसा नहीं होता है. उनका कहना है कि मटके का पानी पीने से न ही पेट में कुछ होगा और न ही गला खराब होगा. इसके अलावा स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

महासमुंद : गुरु अपने शिष्य को शिक्षा तो देता है पर इसके एवज में उसको सही गुरु दक्षिणा नहीं मिलती, उसी तरह कुम्हार मिट्टी को आकार तो देता है पर उसे सही मूल्य नहीं मिल पाता. हम बात कर रहे हैं कुम्हार जाति की, जो सालों से अपने पूर्वजों के व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं, लेकिन विडंबना है कि आज के अत्याधुनिक जीवन और मशीनी युग में कुम्हारों का व्यवसाय आगे बढ़ने के बजाय और पीछे चला जा रहा है.

कुम्हारों

दो वक्त की रोटी दिलाता है मिट्टी का मटका
कुम्हार अपने दो वक्त की रोटी की जुगाड़ करने के लिए असहाय हो गए हैं. हाईटेक युग में फ्रिज और अन्य संसाधनों की वजह से लोगों की जिंदगी सुखमय और आरामदायक हो गई है पर जिस तरह कुम्हारों की स्थिति है, उसे देखकर लगता है कि आने वाले कुछ समय में लोग मिट्टी के मटके, सुराही और बर्तन को भूल जाएंगे.

शासन भी नहीं दे रहा है ध्यान
कुम्हारों का कहना है कि हम गर्मियों में लोगों की प्यास तो बुझा देते हैं पर हमारी भूख और प्यास नहीं मिट पाती क्योंकि शासन हमारे तरफ ध्यान नहीं देता है, इस वजह से आर्थिक परेशानी होती है.

पैसे कम करा लेते हैं ग्राहक

न हमें मिट्टी मिल पाती है न हमें बाजार मिलता है और रही बात लोगों की, तो वे ठंडा पानी के लिए 10, 20 और 100 रुपए खर्च कर देते हैं पर हमारे मटके का 40 रुपए देने के लिए पीछे हट जाते हैं. मटके का चलन कम होने से हमारा रोजगार तो जा ही रहा है साथ में प्याऊ के मटके में पानी भरने वाली जो बाई होती थी, उसका भी रोजगार चला गया.

कुम्हारों का कहना है कि लोग पहले मिट्टी के बर्तन में खाना और पानी पिया करते थे तो लोगों की उम्र बढ़ती थी पर अब ऐसा नहीं होता है. उनका कहना है कि मटके का पानी पीने से न ही पेट में कुछ होगा और न ही गला खराब होगा. इसके अलावा स्वास्थ्य पर भी बुरा प्रभाव नहीं पड़ेगा.

Intro:एंकर - गुरु अपने शिष्य को शिक्षा तो दे देता है पर उसे सही गुरु दक्षिणा नहीं मिलती उसी तरह कुम्हार मिट्टी को आकृति तो दे देता है पर उसे सही मूल्य नहीं मिलता मिट्टी को आकृति दे उसको एक नया रूप देने वाले सृजन कर्ताओं का जीवन आज के हाईटेक युग व बढ़ती महंगाई में निराकार हो गया है हम बात कर रहे हैं कुम्हार जाति की जो वर्षों से अपने पूर्वजों के व्यवसाय को पीढ़ी दर पीढ़ी करते आ रहे हैं लेकिन बड़ी विडंबना है कि आज के अत्याधुनिक जीवनशैली और मशीनी युग में कुम्हारों का व्यवसाय आगे बढ़ने के बदले और पीछे चला गया है लिहाजा कुम्हार प्रजाति अपने दो वक्त की रोटी मुहैया कराने के लिए भी असहाय हो गई है आज के युग में जिस तरह कुम्हारों की स्थितियां है देख कर लगता है आने वाले कुछ समय में लोग मिट्टी के मटके, सुराही और बर्तन को भूल जाएंगे कुम्हारों के दर्द की बात की जाए तो कुमार मिट्टी को पैर से गून कर उसे छानकर चॉक में घुमाकर कर आकृति तो दे देता है पर उसे उसकी कीमत नहीं मिल पाती और आज के समय में मटके का मूल्य लोगों को बड़ा ही महंगा लगने लगा है कुम्हारों का कहना है कि हम गर्मियों में लोगों के गले की प्यास तो बुझा लेते हैं पर हमारी भूख और प्यास नहीं मिट पाती क्योंकि शासन भी हमारे तरफ ध्यान नहीं देता ना हमें मिट्टी मिल पाती है ना हमें बाजार मिलता है और रही बात लोगों की तो लोग वाटर कूलर पानी की, बोतल पर 10 ,20 और ₹100 खर्च कर लेते हैं पर हमारे मटके का ₹40 देने के लिए लोग पीछे हट जाते हैं और ₹5 भी कम करा कर लेने की कोशिश करते हैं जबकि कुम्हारों का कहना है कि जब मिट्टी के बर्तनों में खाना और पानी पिया जाता था तो लोगों की उम्र 100 एवं 120 आज लोगों की उम्र 60 साल हो गई है वहीं कुम्हारों का कहना है मटके के पानी से ना पेट में कुछ होगा ना स्वास्थ्य खराब हो गा ना गला खराब होगा पर वाटर कूलर का पानी या बोतल का पानी कई दिनों से भरा हुआ रहता है साथ ही साथ मटको का चलन कम होने से हमारा रोजगार तो जा ही रहा है साथ में प्याऊ में जो मटके भरने वाली बाई होती थी उसका भी रोजगार चला गया है।


Body:one2one - लीला बाई (पहचान - महिला, लाल और काली साड़ी) बाइट क्रमांक 84107

one2one - संजय चक्रधारी (पहचान - नीला टी शर्ट) बाइट क्रमांक 91732

बाइट 3 - सुखनंदन चक्रधारी (पहचान - बनियान वाला) बाइट क्रमांक 94454

बाइट 4 - कालिंद्री चक्रधारी ( पहचान - हरा स्कार्फ) बाइट क्रमांक 85036


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