जगदलपुर: विजयदशमी के दिन एक ओर पूरे देश में रावण का पुतला दहन किया जाता है. वहीं बस्तर में विजयदशमी के दिन दशहरा की प्रमुख रस्म भीतर रैनी निभाई जाती है. इस साल भी देर रात इस महत्वपूर्ण रस्म को धूमधाम से पूरा किया गया. मान्यताओं के अनुसार आदिकाल में बस्तर रावण की नगरी हुआ करती थी. यही वजह है कि शांति अंहिसा और सदभाव के प्रतीक बस्तर दशहरा पर्व में रावण का पुतला दहन नहीं किया जाता.
क्या है भीतर रैनी रस्म: बस्तर दशहरा पर्व में भीतर रैनी रस्म में 8 चक्के के विशालकाय नये रथ को शहर में परिक्रमा कराने के बाद आधी रात को इसे चुराकर माडिया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हडाकोट ले जाते है. बताया जाता है कि राजशाही युग में राजा से असंतुष्ट लोगों ने रथ चुराकर एक जगह छिपा दिया था.
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बाहर रैनी रस्म: आज बाहर रैनी की रस्म निभाई जाएगी. इस रस्म में बस्तर राजा कुम्हडाकोट पहुंचकर ग्रामीणों को मनाकर उनके साथ भोजन करते हैं. फिर शाही अंदाज में रथ को वापस लाया जाता है. बस्तर के राजा पुरुषोत्तम देव को पुरी से रथपति की उपाधि मिलने के बाद बस्तर में दशहरे के अवसर पर रथ परिक्रमा की प्रथा शुरू की गई थी. जो आज तक अनवरत चली आ रही है और इसी के साथ बस्तर में विजयदशमी के दिन रथ परिक्रमा की जाती है.
मुरिया दरबार रस्म: मुरिया दरबार में बस्तर के राजा माझी चालकियों और दशहरा समिति के सदस्यों से मुलाकात कर उनकी समस्या सुनते हैं. लेकिन अब इस प्रथा को प्रदेश के सीएम निभाते हैं. राजा के स्थान पर वह माझी चालकियों से मुलाकात करते हैं और उनकी समस्याओं का निराकरण करते हैं.
डोली विदाई और कुटुम्ब जात्रा पूजा की रस्म: विश्व प्रसिद्ध बस्तर दशहरे का समापन डोली विदाई और कुटुंब जात्रा पूजा के साथ की जाती है. दंतेवाड़ा से आई मां को जिया डेरा से विदा किया जाता है. विदाई से पहले मांई की डोली और छत्र को स्थानीय दंतेश्वरी मंदिर के सामने बनाए गए मंच पर आसीन कर महाआरती की जाती है. यहां सुरक्षाबलों के द्धारा माई को सशस्त्र सलामी दी जाती है. इस तरह 75 दिनों तक चलने वाले इस दशहरे का समापन हो जाता है.