ETV Bharat / state

चंपारण सत्याग्रह : वो आंदोलन जिसने गांधी को 'महात्मा' बना दिया - west champaran news

चंपारण के 'किसान आंदोलन' से ही महात्मा गांधी बापू बने थे. किसानों के इस आंदोलन को ही सत्याग्रह का पहला सफल प्रयोग माना जाता है. नील की खेती को लेकर अंग्रेज किसानों पर शोषण कर रहे थे. महात्मा गांधी के सत्याग्रह के बाद इसपर रोक लग गई. जानिए कैसे यहां से पैदा हुई सत्याग्रह की पहली लहर...

Champaran movement
Champaran movement
author img

By

Published : Apr 10, 2021, 7:03 AM IST

Updated : Apr 10, 2021, 11:28 AM IST

पश्चिम चंपारण: चंपारण का नाम सुनते ही गांधी जी का सत्याग्रह जेहन में आता है. 15 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी नील किसानों के बुलावे पर चंपारण पहुंचे थे. 10 अप्रैल 1917 को गांधीजी ने बिहार की धरती पर पहला कदम रखा था. इस दिन महात्मा गांधी ट्रेन से पटना पहुंच थे. यहां से वे मुजफ्फरपुर चले गए. 15 अप्रैल को गांधीजी ने चम्पारण में कदम रखा. हर स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत हुआ. वो मोतिहारी स्टेशन पहुंचे, वहां से सीधे गोरख प्रसाद वकील के घर चले गए.

Champaran movement
10 अप्रैल 1917 को गांधीजी ने बिहार की धरती पर रखा कदम

यह भी पढ़ें- रद्दी कागजों से मनीष बनाते हैं खूबसूरत कलाकृतियां, देश ही नहीं विदेशों में भी बढ़ी डिमांड

तीनकठिया प्रणाली के खिलाफ रोष
बिहार के पश्चिमोत्तर इलाके में स्थित चंपारण में अंग्रेजों ने तीनकठिया प्रणाली लागू कर दी थी. इसके तहत एक बीघा जमीन में तीन कट्ठा खेत में नील लगाना किसानों के लिए अनिवार्य कर दिया गया. पूरे देश में बंगाल के अलावा यहीं पर नील की खेती होती थी. किसानों को इस मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था. वर्ष 1907 में शोषण से भड़के किसानों ने हरदिया कोठी के प्रबंधक ब्रूमफील्ड को घेर लिया और लाठी से पीटकर उनकी जान ले ली. इसकी वजह से अंग्रेजी सरकार और सख्त हो गई.

Champaran movement
15 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी पहुंचे चंपारण
ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX

नील की खेती क्या है?
नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी. यूरोप में ब्लू डाई की अच्छी डिमांड होने की वजह से नील की खेती करना आर्थिक रुप से लाभदायक था. लेकिन इसके साथ समस्या ये थी कि ये जमीन को बंजर कर देता था और इसके अलावा किसी और चीज की खेती होना बेहद मुश्किल हो जाता था.

कैसे होती थी नील की खेती
कहने को तीन कट्ठा या पांच कट्ठा का करार होता था पर निलहे खेत का सबसे उपजाऊ हिस्सा अपने लिए चुनते थे. और अक्सर माप भी तीन कट्ठे से ज्यादा ही हो जाती थी. अगर किसी खेत के चुने हिस्से में एक बार फसल अच्छी नहीं हुई तो दूसरा हिस्सा ले लिया जाता था और उस पर लगी फसल पर हल चलवाकर नील के लिए खेत तैयार कराना आम था. नील कपड़ों में चमक पैदा करने के काम आता है. पहले इसकी खेती होती थी लेकिन अब ये कृत्रिम तौर पर ज्यादा तैयार किया जाता है. नील का पौधा दो-तीन हाथ ऊंचा होता है. ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल और बिहार में इसकी खेती करानी शुरू की थी.

ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX
Champaran movement
नील की खेती के खिलाफ किसानों में था रोष

राजकुमार शुक्ला ने गांधी जी को किसानों की दुर्दशा से कराया अवगत
चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ला ने नील की खेती करने के लिए मजबूर किसानों की दुर्दशा से महात्मा गांधी को अवगत कराया और गांधी जी से चंपारण आने का आग्रह किया. उसके बाद जो हुआ वह चंपारण के इतिहास में से एक है.

Champaran movement
चंपारण महात्मा गांधी का प्रयोगशाला बन गया

15 अप्रैल 1917 को गांधी पहुंचे चंपारण
किसान नेता राजकुमार शुक्ला के आग्रह पर 15 अप्रैल 1917 को पहली बार महात्मा गांधी चंपारण आए. चंपारण के किसान नील की खेती से तबाह हो गए थे. लेकिन नील की खेती उनकी मजबूरी थी. अंग्रेजों ने तीन कठिया व्यवस्था लागू कर दी थी. जिसके तहत एक बीघा में से 3 कट्ठे पर नील की खेती अनिवार्य कर दी गई. किसानों के लिए मुश्किलों की शुरुआत यहीं से हुई. यहां तक की बुआई के लिए जमीन जमादार तय करते थे. यानी किसान जमीन के किस हिस्से पर नील बोयेगा यह किसानों के हाथ में नहीं था. फसल की कीमत बेहद कम होती थी. वह भी किसानों को नहीं मिलता था. मुआवजे की कोई व्यवस्था नहीं थी. ऐसे में किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी.

ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX

चंपारण बना प्रयोगशाला
चंपारण महात्मा गांधी का प्रयोगशाला बन गया. गांधी जी ने चंपारण में सत्य व अहिंसा पर पहला प्रयोग किया और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया. गांधी जी का चंपारण सत्याग्रह सफल रहा और अंग्रेज झुकने को मजबूर हुए. चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था. गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाएं हुए अस्त्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया. यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर बसर करेंगे. इसी आंदोलन के बाद उन्हें महात्मा की उपाधि से विभूषित किया गया.

गुलामी के निशान मौजूद
गौरतलब है कि बेतिया जिला मुख्यालय से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर वह इलाका स्थित है जहां नील की खेती के नाम पर अंग्रेज भारतीय किसानों का शोषण करते थे. यहां स्थित हरदिया कोठी और अन्य कई कोठियों में आज भी गुलामी के निशान मौजूद हैं. गांधी जी के नेतृत्व में बिहार के चंपारण जिले में सन् 1917 में सत्याग्रह हुआ था. इसे चंपारण सत्याग्रह से के नाम से जाना जाता है. गांधी जी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था.

Champaran movement
चंपारण के बापू स्मारक की तस्वीर

यह भी पढ़ें- जेपी आंदोलन ने बदली राजनीति की तस्वीर, लेकिन क्रांति के लक्ष्य से आज भी हम दूर

नील की खेती की व्यवस्था का अंत
गांधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था. बापू ने जगह-जगह घूमकर किसानों से बात कर उनपर हुए जुल्मों को कलमबद्ध किया और उन्हें 4 जून को लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गैट को दे दिया गया. इन बयानों के आधार पर 10 जून को चंपारण कृषि जांच समिति बनी, जिसके एक सदस्य बापू भी थे. काफी विचार-विमर्श के बाद कमेटी ने अक्टूबर में रिपोर्ट जमा की. इस रिपोर्ट के आधार पर 4 मार्च 1918 को गवर्नर-जनरल ने चंपारण एग्रेरियन बिल पर हस्ताक्षर किए. इसके साथ ही इस प्रथा का अंत हुआ.

गांधी का सत्याग्रह
बिना कांग्रेस का प्रत्यक्ष साथ लिए हुए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई. इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस तरह यहां पिछले 135 सालों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई.

पश्चिम चंपारण: चंपारण का नाम सुनते ही गांधी जी का सत्याग्रह जेहन में आता है. 15 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी नील किसानों के बुलावे पर चंपारण पहुंचे थे. 10 अप्रैल 1917 को गांधीजी ने बिहार की धरती पर पहला कदम रखा था. इस दिन महात्मा गांधी ट्रेन से पटना पहुंच थे. यहां से वे मुजफ्फरपुर चले गए. 15 अप्रैल को गांधीजी ने चम्पारण में कदम रखा. हर स्टेशन पर गांधीजी का स्वागत हुआ. वो मोतिहारी स्टेशन पहुंचे, वहां से सीधे गोरख प्रसाद वकील के घर चले गए.

Champaran movement
10 अप्रैल 1917 को गांधीजी ने बिहार की धरती पर रखा कदम

यह भी पढ़ें- रद्दी कागजों से मनीष बनाते हैं खूबसूरत कलाकृतियां, देश ही नहीं विदेशों में भी बढ़ी डिमांड

तीनकठिया प्रणाली के खिलाफ रोष
बिहार के पश्चिमोत्तर इलाके में स्थित चंपारण में अंग्रेजों ने तीनकठिया प्रणाली लागू कर दी थी. इसके तहत एक बीघा जमीन में तीन कट्ठा खेत में नील लगाना किसानों के लिए अनिवार्य कर दिया गया. पूरे देश में बंगाल के अलावा यहीं पर नील की खेती होती थी. किसानों को इस मेहनत के बदले में कुछ भी नहीं मिलता था. वर्ष 1907 में शोषण से भड़के किसानों ने हरदिया कोठी के प्रबंधक ब्रूमफील्ड को घेर लिया और लाठी से पीटकर उनकी जान ले ली. इसकी वजह से अंग्रेजी सरकार और सख्त हो गई.

Champaran movement
15 अप्रैल 1917 को महात्मा गांधी पहुंचे चंपारण
ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX

नील की खेती क्या है?
नील की खेती सबसे पहले बंगाल में 1777 में शुरू हुई थी. यूरोप में ब्लू डाई की अच्छी डिमांड होने की वजह से नील की खेती करना आर्थिक रुप से लाभदायक था. लेकिन इसके साथ समस्या ये थी कि ये जमीन को बंजर कर देता था और इसके अलावा किसी और चीज की खेती होना बेहद मुश्किल हो जाता था.

कैसे होती थी नील की खेती
कहने को तीन कट्ठा या पांच कट्ठा का करार होता था पर निलहे खेत का सबसे उपजाऊ हिस्सा अपने लिए चुनते थे. और अक्सर माप भी तीन कट्ठे से ज्यादा ही हो जाती थी. अगर किसी खेत के चुने हिस्से में एक बार फसल अच्छी नहीं हुई तो दूसरा हिस्सा ले लिया जाता था और उस पर लगी फसल पर हल चलवाकर नील के लिए खेत तैयार कराना आम था. नील कपड़ों में चमक पैदा करने के काम आता है. पहले इसकी खेती होती थी लेकिन अब ये कृत्रिम तौर पर ज्यादा तैयार किया जाता है. नील का पौधा दो-तीन हाथ ऊंचा होता है. ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल और बिहार में इसकी खेती करानी शुरू की थी.

ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX
Champaran movement
नील की खेती के खिलाफ किसानों में था रोष

राजकुमार शुक्ला ने गांधी जी को किसानों की दुर्दशा से कराया अवगत
चंपारण के किसान राजकुमार शुक्ला ने नील की खेती करने के लिए मजबूर किसानों की दुर्दशा से महात्मा गांधी को अवगत कराया और गांधी जी से चंपारण आने का आग्रह किया. उसके बाद जो हुआ वह चंपारण के इतिहास में से एक है.

Champaran movement
चंपारण महात्मा गांधी का प्रयोगशाला बन गया

15 अप्रैल 1917 को गांधी पहुंचे चंपारण
किसान नेता राजकुमार शुक्ला के आग्रह पर 15 अप्रैल 1917 को पहली बार महात्मा गांधी चंपारण आए. चंपारण के किसान नील की खेती से तबाह हो गए थे. लेकिन नील की खेती उनकी मजबूरी थी. अंग्रेजों ने तीन कठिया व्यवस्था लागू कर दी थी. जिसके तहत एक बीघा में से 3 कट्ठे पर नील की खेती अनिवार्य कर दी गई. किसानों के लिए मुश्किलों की शुरुआत यहीं से हुई. यहां तक की बुआई के लिए जमीन जमादार तय करते थे. यानी किसान जमीन के किस हिस्से पर नील बोयेगा यह किसानों के हाथ में नहीं था. फसल की कीमत बेहद कम होती थी. वह भी किसानों को नहीं मिलता था. मुआवजे की कोई व्यवस्था नहीं थी. ऐसे में किसानों की हालत बद से बदतर हो गई थी.

ईटीवी भारत GFX
ईटीवी भारत GFX

चंपारण बना प्रयोगशाला
चंपारण महात्मा गांधी का प्रयोगशाला बन गया. गांधी जी ने चंपारण में सत्य व अहिंसा पर पहला प्रयोग किया और उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ सत्याग्रह आंदोलन छेड़ दिया. गांधी जी का चंपारण सत्याग्रह सफल रहा और अंग्रेज झुकने को मजबूर हुए. चंपारण का किसान आंदोलन अप्रैल 1917 में हुआ था. गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह और अहिंसा के अपने आजमाएं हुए अस्त्र का भारत में पहला प्रयोग चंपारण की धरती पर ही किया. यहीं उन्होंने यह भी तय किया कि वे आगे से केवल एक कपड़े पर ही गुजर बसर करेंगे. इसी आंदोलन के बाद उन्हें महात्मा की उपाधि से विभूषित किया गया.

गुलामी के निशान मौजूद
गौरतलब है कि बेतिया जिला मुख्यालय से महज 8 किलोमीटर की दूरी पर वह इलाका स्थित है जहां नील की खेती के नाम पर अंग्रेज भारतीय किसानों का शोषण करते थे. यहां स्थित हरदिया कोठी और अन्य कई कोठियों में आज भी गुलामी के निशान मौजूद हैं. गांधी जी के नेतृत्व में बिहार के चंपारण जिले में सन् 1917 में सत्याग्रह हुआ था. इसे चंपारण सत्याग्रह से के नाम से जाना जाता है. गांधी जी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था.

Champaran movement
चंपारण के बापू स्मारक की तस्वीर

यह भी पढ़ें- जेपी आंदोलन ने बदली राजनीति की तस्वीर, लेकिन क्रांति के लक्ष्य से आज भी हम दूर

नील की खेती की व्यवस्था का अंत
गांधीजी के नेतृत्व में भारत में किया गया यह पहला सत्याग्रह था. बापू ने जगह-जगह घूमकर किसानों से बात कर उनपर हुए जुल्मों को कलमबद्ध किया और उन्हें 4 जून को लेफ्टिनेंट गवर्नर सर एडवर्ड गैट को दे दिया गया. इन बयानों के आधार पर 10 जून को चंपारण कृषि जांच समिति बनी, जिसके एक सदस्य बापू भी थे. काफी विचार-विमर्श के बाद कमेटी ने अक्टूबर में रिपोर्ट जमा की. इस रिपोर्ट के आधार पर 4 मार्च 1918 को गवर्नर-जनरल ने चंपारण एग्रेरियन बिल पर हस्ताक्षर किए. इसके साथ ही इस प्रथा का अंत हुआ.

गांधी का सत्याग्रह
बिना कांग्रेस का प्रत्यक्ष साथ लिए हुए यह लड़ाई अहिंसक तरीके से लड़ी गई. इसकी वहां के अखबारों में भरपूर चर्चा हुई जिससे आंदोलन को जनता का खूब साथ मिला. इसका परिणाम यह हुआ कि अंग्रेजी सरकार को झुकना पड़ा. इस तरह यहां पिछले 135 सालों से चली आ रही नील की खेती धीरे-धीरे बंद हो गई.

Last Updated : Apr 10, 2021, 11:28 AM IST
ETV Bharat Logo

Copyright © 2024 Ushodaya Enterprises Pvt. Ltd., All Rights Reserved.