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अनोखी प्रथा: भेदभाव मिटाने को लेकर आज भी यहां दो जातियों के बीच होता है प्रतीकात्मक युद्ध - etv bihar hindi news

शेखपुपरा में नवमी के दिन दो जातियों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध किया जाता है. इस युद्ध में एक जाति के द्वारा रावण की सेना बनाई जाती है जबकि दूसरी जाति के लोग राम की सेना बनते हैं.

दुर्गा पूजा पर दो जातियों के बीच होता है प्रतीकात्मक युद्ध
दुर्गा पूजा पर दो जातियों के बीच होता है प्रतीकात्मक युद्ध
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Published : Oct 16, 2021, 6:59 PM IST

शेखपुरा: बिहार के शेखपुरा जिले के विभिन्न स्थानों पर दुर्गा पूजा (Durga Puja) को लेकर अब भी वर्षो पुरानी परंपरा कायम है. सदर प्रखंड के मेहुस गांव (Mahas Village in sheikhpupra) में जातीय भेदभाव मिटाने और आपसी सामंजस्य को बढ़ाने को लेकर नवमी के दिन दो जातियों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध (Symbolic war) किया जाता है. इस युद्ध में एक जाति के द्वारा रावण की सेना बनाई जाती है जबकि दूसरी जाति के लोग राम की सेना बनते हैं.

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सेना बनाने के बाद दोनों जातियों के बीच नवमी के दिन प्रतीकात्मक युद्ध होता है. इस युद्ध में एक समाज के लोग दूसरे समाज के लोगों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकते हैं. दोनों सेना में युद्ध होता है और एक समाज के लोग इसमें हार जाते हैं फिर दूसरे समाज के लोग मंदिर में प्रवेश करते हैं. जिसके बाद सभी तरह की पूजा गांव में शुरू की जाती है.

देखें वीडियो.

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इस संबंध में ग्रामीणों ने बताया कि यह परंपरा पिछले 100 साल से से चली आ रही है. आज भी ग्रामीणों के द्वारा पालन किया जा रहा है. राम और रावण के युद्ध के बहाने एक समाज को सम्मान देने और भेदभाव मिटाने को लेकर यह परंपरा निभाई जाती है. दूसरे समाज के लोग पहले मंदिर में प्रवेश करते हैं. तभी मंदिर में किसी प्रकार की पूजा पाठ शुरू होती है. दूसरे जाति के मंदिर में प्रवेश की रोक को लेकर देश दुनिया में कई चर्चाएं है. परंतु यहां माता महेश्वरी के मंदिर में पहले दूसरे जाति के ही लोग प्रवेश करते हैं.

बरबीघा प्रखंड अंतर्गत पिजड़ी गांव में दुर्गा पूजा के अवसर पर पिछले कई सालों से पुरानी परंपरा को निभाया जा रहा है. जिसमें इस प्रथा के अंतर्गत एक जाति के घर दूसरे जाति के लोगों की टोली का स्वागत होता है. साथ ही इस परम्परा के अनुसार रास्ते में लोग लेटे रहते हैं और दूसरी जाति की टोली उन्हें लांघ कर जाते हैं. वहीं टोली के सदस्य एक घड़ा लिए आगे रहता है जबकि अन्य लोग हाथों में ग्रामीण परंपरा के अनुसार हथियार रखते हैं. बली बोल का नारा लगाते हुए लोग आगे बढ़ते रहते हैं. ग्रामीणों के अनुसार यह परंपरा पिछले 300 सालों से भी पुरानी है.

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इस दौरान विधिवत पूजा करने के बाद दूसरी जाति के टोले में से एक जाति की टीम निकलती है. जिसके बाद दुर्गा मंदिर के आगे उसका समापन किया जाता है. बलि बोल की टीम के अगुआ के द्वारा घड़ा वहां फोड़ जाता है. उस घड़े के टुकड़े को ग्रामीण ले जाकर अपने मवेशियों के स्थल पर रखते हैं. लोगों का मानना है कि रास्ते में लेटे हुए लोग को लांघ कर जब टीम गुजरती है तो उन लोगों की सभी प्रकार की बीमारी दूर हो जाती है और लोगों को शक्ति प्रदान होती है.

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शेखपुरा: बिहार के शेखपुरा जिले के विभिन्न स्थानों पर दुर्गा पूजा (Durga Puja) को लेकर अब भी वर्षो पुरानी परंपरा कायम है. सदर प्रखंड के मेहुस गांव (Mahas Village in sheikhpupra) में जातीय भेदभाव मिटाने और आपसी सामंजस्य को बढ़ाने को लेकर नवमी के दिन दो जातियों के बीच प्रतीकात्मक युद्ध (Symbolic war) किया जाता है. इस युद्ध में एक जाति के द्वारा रावण की सेना बनाई जाती है जबकि दूसरी जाति के लोग राम की सेना बनते हैं.

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सेना बनाने के बाद दोनों जातियों के बीच नवमी के दिन प्रतीकात्मक युद्ध होता है. इस युद्ध में एक समाज के लोग दूसरे समाज के लोगों को मंदिर में प्रवेश करने से रोकते हैं. दोनों सेना में युद्ध होता है और एक समाज के लोग इसमें हार जाते हैं फिर दूसरे समाज के लोग मंदिर में प्रवेश करते हैं. जिसके बाद सभी तरह की पूजा गांव में शुरू की जाती है.

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इस संबंध में ग्रामीणों ने बताया कि यह परंपरा पिछले 100 साल से से चली आ रही है. आज भी ग्रामीणों के द्वारा पालन किया जा रहा है. राम और रावण के युद्ध के बहाने एक समाज को सम्मान देने और भेदभाव मिटाने को लेकर यह परंपरा निभाई जाती है. दूसरे समाज के लोग पहले मंदिर में प्रवेश करते हैं. तभी मंदिर में किसी प्रकार की पूजा पाठ शुरू होती है. दूसरे जाति के मंदिर में प्रवेश की रोक को लेकर देश दुनिया में कई चर्चाएं है. परंतु यहां माता महेश्वरी के मंदिर में पहले दूसरे जाति के ही लोग प्रवेश करते हैं.

बरबीघा प्रखंड अंतर्गत पिजड़ी गांव में दुर्गा पूजा के अवसर पर पिछले कई सालों से पुरानी परंपरा को निभाया जा रहा है. जिसमें इस प्रथा के अंतर्गत एक जाति के घर दूसरे जाति के लोगों की टोली का स्वागत होता है. साथ ही इस परम्परा के अनुसार रास्ते में लोग लेटे रहते हैं और दूसरी जाति की टोली उन्हें लांघ कर जाते हैं. वहीं टोली के सदस्य एक घड़ा लिए आगे रहता है जबकि अन्य लोग हाथों में ग्रामीण परंपरा के अनुसार हथियार रखते हैं. बली बोल का नारा लगाते हुए लोग आगे बढ़ते रहते हैं. ग्रामीणों के अनुसार यह परंपरा पिछले 300 सालों से भी पुरानी है.

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इस दौरान विधिवत पूजा करने के बाद दूसरी जाति के टोले में से एक जाति की टीम निकलती है. जिसके बाद दुर्गा मंदिर के आगे उसका समापन किया जाता है. बलि बोल की टीम के अगुआ के द्वारा घड़ा वहां फोड़ जाता है. उस घड़े के टुकड़े को ग्रामीण ले जाकर अपने मवेशियों के स्थल पर रखते हैं. लोगों का मानना है कि रास्ते में लेटे हुए लोग को लांघ कर जब टीम गुजरती है तो उन लोगों की सभी प्रकार की बीमारी दूर हो जाती है और लोगों को शक्ति प्रदान होती है.

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