सारण: मिट्टी के बर्तन, खिलौना और मूर्तियां बनाने वाले कुम्हार जाति के लोगों की स्थिति बदहाल है. हाजीपुर से गाजीपुर को जोड़ने वाली राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 19 के किनारे लगभग एक दर्जन से ज्यादा कुम्हार समुदाय का परिवार मिट्टी से विभिन्न देवी-देवताओं की प्रतिमा बनाकर अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करते हैं. लेकिन महंगाई का असर अब इनके पेशे पर भी पड़ रहा है. लागत के हिसाब से इन्हें मुनाफा नहीं हो रहा है. इस कारण दूसरे प्रदेशों में रोजगार की तलाश में पलायन करने को ये मजबूर हैं.
जिले के पश्चिमी छोर पर सड़क किनारे श्याम चौक से लेकर ब्रह्मपुर तक दर्जनों ऐसे परिवार हैं जो अपने पुराने पुश्तैनी कार्यो को बखूबी निर्वहन करते आ रहे हैं. लेकिन सरकारी उदासीनता के कारण कुम्हार जाति के लोग अपने आपको उपेक्षित महसूस कर रहे हैं. मूर्तिकारों का कहना है कि इनके पारंपरिक पेशे को अभी तक उद्योग का दर्जा नहीं दिया गया है. जिस कारण कुम्हार समुदाय के लोग अपने पुस्तैनी पेशे को छोड़कर दूसरे प्रदेशों में पलायन करने को मजबूर हो रहे हैं.
महंगाई की मार झेल रहे कुम्हार
मिट्टी से दुर्गा की प्रतिमा बना रहे कारीगर विकास का कहना है कि अपनी पढ़ाई को बाधित करते मूर्ति बनाने में पिता जी की मदद कर रहे हैं. दुर्गा पूजा को लेकर जुलाई से ही मूर्ति बनाने के काम शुरू हो गया है. इनका कहना है कि अब पहले की तरह मूर्तियों की बिक्री नहीं होती. महंगाई का असर साफ तौर पर देखा जा रहा है.
पेशे में नहीं हो रहा मुनाफा
वहीं मूर्ति बना रहे धनंजय का कहना है कि चार पीढ़ियों से हम मूर्ति बनाने का काम कर रहे हैं. जुलाई महीने से लेकर अक्टूबर तक मां दुर्गा की प्रतिमा बनाते हैं. अक्टूबर से नवंबर तक लक्ष्मी जी की प्रतिमा और नवंबर से फरवरी तक सरस्वती मां की प्रतिमा बनाने का काम करते हैं. बाकी के दिनों में दीपावली व छठ पूजा के लिए बर्तन बनाये जाते हैं. लेकिन पहले की अपेक्षा अब उतनी बचत नहीं हो पाती है.
कम बिकती हैं मूर्तियां
मूर्तिकारों का कहना है कि कर्ज लेकर मूर्ति का निर्माण करते हैं. ऊपर से चंदा इकठ्ठा कर मूर्ति खरीदने वालों की मार अलग से झेलनी पड़ती हैं. महंगाई के इस दौर में कोई भी अधिक चंदा नहीं देता है. नतीजा, लोग मूर्ति कम दामों में खरीदते हैं. ऐसे में मुनाफा कुछ नहीं होता. वहीं, जब बनाई गई मूर्तियां नहीं बिकती हैं तो पूंजी डूबने तक कि नौबत आ जाती है.
सरकार की उदासीनता
सरकार के उदासीन रवैये के कारण अपनी पुस्तैनी पेशे को छोड़ना कुम्हारों के लिये मजबूरी बन गया है. धीरे-धीरे इनके सामने भूखमरी की नौबत आने लगी है. यदि सराकर ये घोषणा कर दे कि मिट्टी से बने कुल्हड़ को स्टेशन और बस स्टैंड पर चाय पीने के प्रयोग में लाया जाए, तो ये कुम्हारों के लिए वरदान साबित हो सकता हैं.